महाराष्ट्र के इन गांवों में दलितों को अंतिम संस्कार के लिए नहीं मिल रही है जगह: ग्राउंड रिपोर्ट
“हम अपनी दादी के शव के साथ श्मशान गए थे और लोग मुझे लाठी से मारने आ गए. हमें कहा गया कि आप यहां अंतिम संस्कार नहीं कर सकते. हमें गांव के सार्वजनिक श्मशान में प्रवेश करने की अनुमति नहीं है, हमें अपनी ज़मीन पर शवों को जलाने की अनुमति नहीं है, तो हम कहां जाएं?”
21 वर्षीय माउली साबले हताश होकर ये सब पूछते हैं. ये सवाल केवल माउली साबले का नहीं है|
महाराष्ट्र के बीड ज़िले के पालवन में रहने वाले दलित परिवारों को पिछले कुछ सालों से लगातार ये सवाल सालता है कि अगर घर के किसी सदस्य की मौत हो गई तो शव की अंत्येष्टि कहाँ करेंगे|
साल 2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में दलितों की आबादी क़रीब 20 करोड़ 13 लाख थी, यानी कुल जनसंख्या की 16.6% आबादी दलितों की है.
भारतीय संविधान दलितों के साथ किसी तरह के भेदभाव को प्रतिबंधित करता है, फिर भी लाखों दलितों को ज़िंदगी में कई बार जातिगत भेदभाव झेलना पड़ता है. कई बार ये भेदभाव दलित परिवारों को अपनों की मौत के बाद भी झेलना पड़ता है| ऐसी तमाम ख़बरें आज भी मीडिया में देखने को मिलती हैं, जहां कभी दलित युवक की बारात को मुख्य सड़क से गुजरने नहीं दिया जाता, कभी घोड़े पर बैठने पर दलित दूल्हे की हत्या कर दी जाती है|
कभी सार्वजनिक हैंडपंप का पानी पीने के लिए उनकी पिटाई की जाती है तो कभी गांव के सार्वजनिक श्मशान में दलितों के शवों का अंतिम संस्कार करने की मनाही होती है| इसी तरह की एक घटना 13 मई, 2024 को पालवन में हुई थी. तब गांव की सरपंच रहीं मालनबाई साबले के शव का अंतिम संस्कार रोक दिया गया|
पंजीकृत स्थान होने के बावजूद अंतिम संस्कार से रोका गया
घटना के बारे में मालनबाई के पोते माउली साबले कहते हैं, “उस दिन गांव में वोटिंग चल रही थी और मेरी दादी का देहांत हो गया. हम उनके शव को अपने श्मशान घाट ले गए लेकिन जब हम वहां पहुंचे, तो माउली म्हस्के, भरत म्हस्के और रुक्मिणी म्हस्के ने हमें रोक दिया. हमारी जाति का ज़िक्र करते हुए कहा कि क्या आपको शव जलाने के लिए यही जगह मिली है. यहां पर हमारे घर हैं.”
पालवन गांव के सरकारी रिकॉर्ड के अनुसार, ‘हरिजन लोगों’ के उपयोग के लिए श्मशान घाट के लिए एक जगह आवंटित की गई है, लेकिन मालनबाई साबले का अंतिमसंस्कार पंजीकृत स्थान होने के बाद भी रोक दिया गया था|
महाराष्ट्र के हज़ारों गांवों में सार्वजनिक श्मशान नहीं हैं.
कुछ गांव ऐसे भी हैं, जहां दलित समुदाय के परिवारों को श्मशान में प्रवेश करने की अनुमति नहीं है| पालवन में रहने वाले दलित परिवार दशकों से ‘दलित श्मशान’ के रूप में सूचीबद्ध स्थल पर अंतिम संस्कार करते रहे हैं|लेकिन पिछले कुछ सालों से दलित परिवारों को इस जगह पर भी अंतिम संस्कार से रोका जा रहा है|
माउली कहते हैं, “हमारे गांव में एक सार्वजनिक क़ब्रिस्तान है. हमें उस क़ब्रिस्तान में शव जलाने की अनुमति नहीं है. इसलिए हम शव को अपने स्थान पर ले गए. यह वही जगह थी, जहां मेरे पूर्वजों को जलाया गया था, लेकिन हमें अब वहां शव जलाने की अनुमति नहीं है, तो हम कहां जाएं?”
कुछ ग्रामीणों के विरोध का सामना करते हुए भी माउली और उनके परिवार ने दलित श्मशान स्थल पर मालनबाई साबले का अंतिम संस्कार किया.
जिस स्थान से विवाद उत्पन्न हुआ था, वहां पर अभी भी कुछ 20वीं शताब्दी के मकबरे हैं और कुछ क़ब्र भी हैं. कुछ परिवारों में शवों को दफनाने का चलन चार-पांच दशक पहले तक था. ये कब्रें 1970 या उससे पहले की बनी हुई है.
बीबीसी मराठी से माउली कहते हैं, “हमारे दादा ने कहा था कि यहां हमारे श्मशान की 600 वर्ग मीटर ज़मीन हैं, लेकिन अब डिज़िटल रिकॉर्ड में केवल 200 वर्गमीटर का ही श्मशान है. हमारे श्मशान घाट की ओर जाने वाली सड़क पर अन्य समुदायों के लिए एक सार्वजनिक शवदाह गृह बनाया गया है, लेकिन हम वहां नहीं जा सकते.”
इसके बाद 7 जून, 2024 को माउली साबले और उनके साथी बीड कलेक्टर कार्यालय के सामने आमरण अनशन पर चले गए|इसके बाद बीड के अतिरिक्त ज़िला मजिस्ट्रेट शिवकुमार स्वामी ने तहसीलदार और खंड विकास अधिकारी के ख़िलाफ़ जांच और कार्रवाई का आदेश दिया|
बीड के तहसीलदार सुहास हजारे ने बीबीसी मराठी को बताया, “हम जाकर देखेंगे कि मूल रिकॉर्ड के अनुसार पालवन में श्मशान के लिए कितनी जगह है. हमारा स्टैंड इस मामले में दलित परिवारों के लिए न्याय सुनिश्चित करना है. हम सभी पहलुओं की जांच करेंगे और उचित कार्रवाई करेंगे.”
साबले परिवार के ही संजय साबले कहते हैं कि 7 जून को उनकी भूख हड़ताल के बाद एक भी अधिकारी ज़मीन नापने या पूछताछ के लिए पालवन नहीं आया है.
माउली साबले की दायर शिकायत के अनुसार, पालवन के ज्ञानेश्वर उर्फ़ माउली म्हस्के, भारत म्हस्के और रुक्मिणी म्हस्के के ख़िलाफ़ दलित अत्याचार प्रतिबंध क़ानून के तहत मामला दर्ज किया गया है|हमने उन लोगों का पक्ष भी जानने की कोशिश की, जिनके ख़िलाफ़ यह मामला दर्ज किया गया.
मामले के एक अभियुक्त ज्ञानेश्वर म्हस्के ने हमसे बात करने से पहले अपने वकील की अनुमति मांगी और फिर कहा, “सर, आप देख सकते हैं कि हमारे यहां घर हैं. हमारे पास कहने के लिए और कुछ नहीं है, उन्हें वह स्थान लेना चाहिए जहां वो पंजीकृत हैं और वो जो करना चाहते हैं वो करें. जब वो उस दिन मालनबाई का शव लेकर आए, तो हमने उनसे बस इतना कहा कि घर में बच्चे हैं, उन्हें ना जलाएं.”
गांव में सार्वजनिक श्मशान के बारे में ज्ञानेश्वर म्हस्के ने कहा, “गांव में एक और श्मशान है, जहां हरिजनों को छोड़कर सभी को अंतिम संस्कार करने की अनुमति है.”
केस दर्ज होने के बाद ज्ञानेश्वर म्हास्के, भारत म्हास्के और रुक्मिणी म्हास्के को अग्रिम ज़मानत मिल गई है.’महाराष्ट्र के 67% गांवों में श्मशान की समस्या’
दलितों और भूमिहीन समुदायों के लिए श्मशान घाट के मुद्दे पर पिछले 15 वर्षों से काम कर रहे गणपत भिसे परभणी में रहते हैं|उन्होंने पिछले 15 वर्षों में आरटीआई अधिनियम के तहत राज्य में दलित कब्रिस्तानों के बारे में जानकारी प्राप्त करने की कोशिश की है|
इस बारे में गणपत भिसे कहते हैं, “इस समय महाराष्ट्र में श्मशान केवल काग़ज़ों पर ही पाए जाते हैं. महाराष्ट्र के 28,021 गांवों में से कम से कम 18,958 गांवों में राजस्व विभाग के पास श्मशान घाट का रिकॉर्ड नहीं है.”
उन्होंने कहा, “बाक़ी के 9,062 गांव पंजीकृत हैं, लेकिन ज़मीन पर अतिक्रमण हो चुका है. यानी महाराष्ट्र के 28,000 गांवों में से 20,000 गांवों में अभी भी श्मशान भूमि को लेकर विवाद है. महाराष्ट्र के 67 प्रतिशत गांवों में श्मशान घाट की समस्या है.”
आज़ादी के बाद से इस गांव में कोई श्मशान नहीं
सोलापुर ज़िले के बारशी तालुका के वालवड़ गांव में कोई श्मशान नहीं है|महाराष्ट्र के हज़ारों गांवों की तरह, इन गांवों में रहने वाले भूमिहीन और दलित समुदायों को दाह संस्कार के लिए उन लोगों पर निर्भर रहना पड़ता है जिनके पास अपनी ज़मीन है.
गणपत भिसे कहते हैं, “जिस गांव में अलग से श्मशान घाट नहीं है, वहां सरकारी ज़मीन पर अंतिम संस्कार किया जाता है. जिन गांवों में ऐसी कोई जगह नहीं है, उनमें से अधिकांश में नदी के किनारे या नहर के किनारे अंतिम संस्कार किया जाता है.”
वालवड़ में भी नाले के किनारे दलित शव जलाए जाते थे, लेकिन अब जल जीवन मिशन के काम से नाले की चौड़ाई बढ़ गई और वह ज़मीन भी दलितों के हाथों से खिसक गई| वालवड़ की रहने वाली अनीता कांबले का लंबी बीमारी के बाद अक्टूबर 2021 में निधन हो गया. उनकी मृत्यु के बाद, गांव में एक भी ज़मींदार परिवार ने उन्हें उनके अंतिम संस्कार के लिए जगह नहीं दी|
इससे परेशान परिजनों ने तहसील कार्यालय के सामने अनीता कांबले का शव रखकर आंदोलन किया था.
अनीता कांबले की भाभी प्रमिला जोम्बडे कहती हैं, “हम अपनी ननद को जलाने के लिए दो फुट की ज़मीन चाहते थे. कुछ घरों को छोड़कर, हमारी दलित बस्ती के लोगों के पास ज़मीन नहीं है. तो हम वास्तव में अपने परिजनों को कहां जलाएं? इसलिए हमने विरोध किया.”
वालवड़ में रहने वाले शिक्षक सुहास भालेराव कहते हैं, “ग्राम पंचायत का गठन 1960 के आसपास हुआ था. उस स्थापना से लेकर आज तक, हमें अंतिम संस्कार की जगह नहीं मिली है. 2017 में, हम एक श्मशान घाट और दलित बस्ती की ओर जाने वाली सड़क की मांग को लेकर बारशी तहसील कार्यालय के सामने पांच दिन के आमरण अनशन पर बैठे थे, लेकिन अब तक कुछ नहीं हुआ है.”
बारिश आए तो बढ़ती है मुश्किल
जोम्बडे और कांबले परिवारों के विरोध प्रदर्शन पर अगले दिन व्यापक रूप से चर्चा हुई, विरोध की ख़बर अख़बारों और यूट्यूब चैनलों में प्रसारित की गई.
इसके बाद कई सामाजिक कार्यकर्ता, पत्रकार वहां गए और अधिकारियों से जवाब मांगा. लेकिन हक़ीक़त यह है कि तीन साल बीतने के बाद भी इस गांव में अभी भी श्मशान नहीं है.
प्रदर्शन के बाद अधिकारियों ने अनीता कांबले के शव को जलाने के लिए जगह की व्यवस्था की.
यह जगह वालवड़ की ओर जाने वाली सड़क के किनारे एक गड्ढे में है.
जब हम वहां पहुंचे, तो हम घटनास्थल तक नहीं पहुंच सके क्योंकि हाल ही में हुई बारिश के कारण वहां कीचड़ जमा था.
अगर मॉनसून के दौरान किसी दलित या भूमिहीन व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है, तो रिश्तेदारों को शव को अपने घर में छोड़ना पड़ता है. फिर बारिश खुलने या ज़मीन साफ़ होने तक इंतजार करना पड़ता है.
जाति और अंतिम संस्कार की अलग जगह
आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में अलग-अलग स्थानों पर ब्राह्मण, मराठा, मुस्लिम, लिंगायत, हटकर, धनगर, वंजारी, मटंग, महार, माली और कोली का अंतिम संस्कार अलग-अलग किया जाता है.
दलितों का अंतिम संस्कार मराठा समुदाय के लिए बने श्मशान घाट में नहीं किया जा सकता| राजस्व विभाग से संबंधित कार्यालय में दर्ज है कि हर जाति के लिए अलग-अलग श्मशान हैं|
दलित अधिकार कार्यकर्ता केशव वाघमारे कहते हैं, “भारतीय समाज जाति व्यवस्था से बंधा समाज है. वह जन्म से मृत्यु तक इस तरह का जाति-आधारित व्यवहार करते हैं.”
वाघमारे कहते हैं, “बीड ज़िले में आपको कुछ ऐसे गांव मिल जाएंगे जहां सिर्फ़ दलितों के लिए ही नहीं बल्कि मराठा समुदाय की उपजातियों के लिए भी अलग-अलग श्मशान घाट हैं. उनके पास खाने के लिए रोटी तो नहीं ही हैं, साथ ही उन्हें मरने के बाद जलाने के लिए भी जगह नहीं मिलती.”
क़ानून क्या कहता है?
भारत के संविधान के अनुच्छेद 17 के अनुसार, भारत में छुआछूत पर पाबंदी है.
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के पूर्व प्रमुख प्रोफ़ेसर सुखदेव थोराट कहते हैं, “भारतीय संविधान में छुआछूत के ख़िलाफ़ एक प्रावधान है. मौलिक अधिकार के तहत अस्पृश्यता अपराध है और इसके उल्लंघन पर सज़ा का प्रावधान है.”
उन्होंने कहा, “इस बारे में 1955 में क़ानून बन गया. 1955 में अस्पृश्यता अपराध अधिनियम लागू हुआ और इसका नाम बदलकर नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1979 कर दिया गया. अधिनियम में प्रावधान है कि दलितों को सार्वजनिक सेवाओं में पूर्ण अधिकार हैं. उनकी इन सुविधाओं तक समान पहुंच होनी चाहिए.”
नागरिक सुरक्षा अधिनियम दलितों को सार्वजनिक जल निकायों, नदियों, कुओं, सार्वजनिक नलों, घाटों और श्मशानों का उपयोग करने का समान अधिकार देता है.
अगर उन्हें ऐसा करने से रोका जाता है तो क़ानून में सज़ा का प्रावधान है.
केंद्रीय सामाजिक न्याय राज्य मंत्री रामदास अठावले ने बीबीसी मराठी से कहा, “समाज के नेता और सामाजिक न्याय मंत्री के तौर पर यह सुनिश्चित करना मेरी नैतिक ज़िम्मेदारी है कि इस तरह का कोई विवाद न हो और दलितों के लिए एक अलग श्मशान हो.”
“मैं निश्चित रूप से ऐसा करने की कोशिश करूंगा. महाराष्ट्र में अनुसूचित जाति के अंतर्गत 59 जातियां हैं. कई जगहों पर थोड़ी दिक्कत है, दलित दलितों के लिए अलग से श्मशान घाट की मांग कर रहे हैं. मेरा मंत्रालय इस पर गौर कर रहा है.”
रामदास अठवाले ने कहा, “हिंदू श्मशान घाट में दलितों के दाह संस्कार का अकसर विरोध होता है. मैं बाद में मुंबई में एक बैठक जरूर बुलाऊंगा. दलितों के लिए एक अलग श्मशान घाट बनाने के लिए नियम बनाना बहुत महत्वपूर्ण है या दलितों को क़ानूनी रूप से हिंदू श्मशानों में अंतिम संस्कार करने की अनुमति दी जानी चाहिए. उस दृष्टिकोण से, मैं निश्चित रूप से कोशिश करने जा रहा हूं.”
पालवन हो या वालवड़, ये भारतीय समाज में जाति व्यवस्था के उदाहरण मात्र हैं.
महाराष्ट्र की तरह, उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब और तमिलनाडु जैसे राज्य जिनमें दलितों की एक बड़ी आबादी है, इन राज्यों में भी दलितों के अंतिम संस्कार रोक दिए जाने के मामले सामने आते रहते हैं.
इसलिए जब तक भारत के हर गांव में सार्वजनिक श्मशान नहीं होगा और हर व्यक्ति के लिए श्मशान में एक समान पहुंच नहीं होगी, तब तक मृत्यु के बाद जातिवाद की ऐसी घटनाएं होती रहेंगी|
सौजन्य:बीबीसी
यह समाचार मूल रूप से.bbc.com में प्रकाशित हुआ है|और इसका उपयोग पूरी तरह से गैर-लाभकारी/गैर-व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए विशेष रूप से मानव अधिकार के लिए किया गया था|