हूल दिवस विशेष : अंग्रेजों, जमींदारों-महाजनों के शोषण के खिलाफ आदिवासियों के विद्रोह की ऐसी कहानी, जिसके बाद देश में आजादी के लिए संघर्ष हुआ तेज !
संताल हूल, बिरसा उलगुलान जैसे विद्रोहों की एक लम्बी फेहरिस्त है, जो न सिर्फ अंग्रेजों के विरूद्ध संघर्ष थे, बल्कि अंग्रेजों की शोषणकारी नीतियों की आड़ में यहाँ के शोषक साहूकारों, सूदखोरों, जमींदारों और इजारेदारों के खिलाफ भी यहाँ की आदिवासियों ने आर-पार की संघर्ष का बिगुल फूंक दिया था..
Hul Diwas 2024 : आज 30 जून को हूल दिवस है, यानी यह दिन अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ 1855-56 में सिदो-कान्हू के नेतृत्व में जल, जंगल, जमीन और आदिवासी अस्मिता के सवाल पर संतालों के विद्रोह या हूल दिवस के रूप में जाना जाता है, जिसकी नींव तिलका मांझी ने 1771 में डाली थी।
प्रस्तुत है हूल दिवस पर कुछ बुद्धिजीवियों, लेखकों व समाजसेवियों के विचार सहित हूल दिवस पर स्वतंत्र पत्रकार विशद कुमार की विशेष रिपोर्ट
आदिवासियों द्वारा ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ हुए इन तमाम विद्रोहों पर संताली त्रैमासिक पत्रिका ‘जिवेत आड़ाङ’ के संयोजक व सह संपादक एवं रांची में कार्यरत रेलवे के अभियंता पंकज किस्कू कहते हैं कि संताल हूल विश्व इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक है। अब तक इस घटना पर विभिन्न विचार विमर्श किया जा चुका है, इस पर देश विदेश के विद्वानों ने अपनी राय जाहिर की है, बेशकीमती पुस्तकें प्रकाशित की हैं। इन सभी विचारों शोधों का निष्कर्ष यही है कि संतालों (उस क्षेत्र में रहने वाले तमाम आदिवासियों को लेकर) पर होने वाले अत्याचार की पराकाष्ठा का परिणाम यह विद्रोह था।
आदिवासी मामले के जानकार एके पंकज अपनी राय देते हुए कहते हैं कि संताल आदिवासी सदियों तक अपनी बसे बसाऐ गांवों खेत खलिहानों से बेदखल किए जाते रहे। इन संतालों ने अतिक्रमण करने वाले इन बाहरी लोगों से प्रति दिन प्रताड़ित होने से अपने गांवों को छोड़कर अन्य जगह की ओर प्रस्थान करना श्रेयस्कर समझा। हालांकि संताल कायर नहीं थे पर उन्होंने युद्ध करना, रक्तपात करना अच्छा नहीं समझा। यही गुण आदिवासियत है। परंतु 1855 तक आते आते शोषण की अति हो गई और संतालों ने वो किया जो उनके इतिहास में कभी नहीं हुआ था। परंतु सशस्त्र विद्रोह के पहले उन्होंने अंग्रेजी शासकों को उन पर होने वाले अत्याचारों से अवगत कराया था। अंग्रेज प्रशासकों से न्याय की गुहार लगाई थी। पर उनके निवेदन को अनसुना कर दिया गया। इसलिए संतालों को हथियार उठाना पड़ा। उनका विश्वास था कि यह युद्ध केवल वे नहीं लड़ रहे, वरन् उनके साथ उनके सृष्टिकर्ता ठाकुर जीव लड़ रहे हैं।
पंकज आगे कहते हैं कि ऐसा नहीं था कि संतालों के नेतृत्व कर्ताओं को इस युद्ध का अंजाम का आभास नहीं था। वे भी जानते थे कि उन पर अत्याचार करने वाले महाजनों जमींदारों के साथ अंग्रेजी हुकूमत है और इस युद्ध में उन्हें अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ेगी। उनके इस बलिदान का फल था संताल परगना का गठन। नरेगा वाच के राज्य संयोजक जेम्स हेरेंज कहते हैं कि झारखण्ड में ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ विद्रोह या उलगुलान का इतिहास लगभग 200 साल से भी अधिक पुराना रहा है। स्वतंत्रता संग्राम के रजनीतिक पटल पर जब जवाहरलाल नेहरु, सुभाष चन्द्र बोस जैसे नेताओं का कहीं प्रादुर्भाव नहीं हुआ था, तभी चुटियानागपुर (अब छोटानागपुर) के आदिवासी क्रांतिवीरों के विद्रोहों से अंग्रेजी हुकूमत की सत्ता डोल रही थी। 1807 का तमाड़ विद्रोह, 1819-20 में रुदु और कोंता मुण्डा का तमाड़ विद्रोह और 1820-21 में पोड़ाहाट में हो विद्रोह 1832 में भरनो में बुधु भगत का विद्रोह, 1830-33 में कोल्हान में मानकी मुंडाओं का विद्रोह, संताल हूल, बिरसा उलगुलान जैसे विद्रोहों की एक लम्बी फेहरिस्त है, जो न सिर्फ अंग्रेजों के विरूद्ध संघर्ष थे, बल्कि अंग्रेजों की शोषणकारी नीतियों की आड़ में यहाँ के शोषक साहूकारों, सूदखोरों, जमींदारों और इजारेदारों के खिलाफ भी यहाँ की आदिवासियों ने आर-पार की संघर्ष का बिगुल फूंक दिया था।
दलित चिंतक और प्रोफेसर विलक्षण रविदास आदिवासियों के विद्रोह का तीन कारण बताते हैं। संतालों के विद्रोह के पीछे तीन कारक थे। जल, जंगल और जमीन पर हक का सवाल, ब्रिटिश हुकूमत की लगान वसूलने की नीति और इसके लिए उसके द्वारा बहाल जमींदारों की द्वारा शोषण और महाजनों द्वारा सूदखोरी के नाम पर आर्थिक शोषण।
इन तीनों कारकों ने आदिवासियों के विद्रोही बना दिया, जबकि आदिवासी बड़े शांतप्रिय प्रकृति के थे, जो आज भी हैं। बताते चलें कि संताल विद्रोह ब्रिटिश हुकूमत और महाजनी-जमींदारी शोषण के खिलाफ अकेला विद्रोह नहीं था। इसके पहले और इसके बाद भी संतालों ने विद्रोह किए। झारखंड क्षेत्र में अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ बगावत की शुरूआत तत्कालीन जंगल महल से रघुनाथ महतो के नेतृत्व में 1769 का ‘चुहाड़ विद्रोह’, 1771 में तिलका मांझी का ‘हूल’, 1820-21 का पोटो हो के नेतृत्व में ‘हो विद्रोह’, 1831-32 में बुधु भगत, जोआ भगत और मदारा महतो के नेतृत्व में ‘कोल विद्रोह’, 1855-56 में सिदो-कान्हू के नेतृत्व में ‘संताल विद्रोह’ और 1895 में बिरसा मुंडा के नेतृत्व में हुए ‘उलगुलान’ ने अंग्रजों को ‘नाको चने चबवा’ दिये थे। ब्रिटिश हुकूमत और महाजनी शोषण के खिलाफ संतालों ने एक नहीं, कई बार विद्रोह किए।
हर बार जल, जंगल, जमीन और अपनी अस्मिता, संस्कृति की हिफाजत और शोषण के खिलाफ संताल समाज ने विद्रोह किया। 1854 से लेकर 1917-18 तक छाेटानागपुर-संताल परगना से लेकर मयूरभंज तक कम-से-कम नौ-दस बार संतालों ने विद्रोह किया है। संतालों के विद्रोह के पीछे तीन कारक थे। पहला — जल, जंगल और जमीन पर हक का सवाल। दूसरा — ब्रिटिश हुकूमत की लगान वसूलने की नीति और इसके लिए उसके द्वारा बहाल जमींदारों की नीयत। तीसरा — महाजनों सूदखोरी के नाम पर आर्थिक शोषण। इन तीनों कारकों को पुलिस, न्याय और प्रशासन में बैठे लोगों के भ्रष्ट आचरण ने और भी प्रगाढ़ बना दिया था। अत: बार-बार विद्रोह हुए और एक-दो को छोड़कर हर बार संतालों ने हुकूमत को झुकाया, नीति व व्यवस्था में सुधार और बदलाव करने के लिए मजबूर किया और ब्रिटिश हुकूमत ने समय-समय पर अपनी नीतियों बदलाव व सुधार करती रही, लेकिन इन सुधारों और बदलावों के बावजूद संतालों के असंतोष को समाधान की सीमा तक कम करने में हुकूमत को कामयाबी नहीं मिली और उसे संतालों के विरोध का लगातार सामना करना पड़ा।
दरअसल 1765 में ईस्ट इंडिया कंपनी को बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी शाह आलम द्वितीय से मिली। वर्तमान झारखंड की भौगोलिक सीमा भी इसी दायरे में आयी, जिसके कारण यह क्षेत्र भी कर चुकाने वाला इलाका बन गया तथा टकराव की शुरूआत यहीं से हुई। कंपनी ने जगह-जगह अपने एजेंट और जमींदारों को बहाल किया और उनके जरिये कर की वसूली के लिए जनता पर अत्याचार शुरू कराया। इसके लिए जिस शक्ति के इस्तेमाल की जरूरत पड़ी, उस लायक कानूनी व्यवस्था बना दी गयी। आदिवासियों के लिए यह समझ से परे था कि जब जंगल उनका, जमीन उन्होंने तैयार की, तो टैक्स लेने वाले जमींदार और कंपनी के एजेंट कौन हैं, कहां से आ गये? इन सवालों ने उनके अंदर प्रतिरोध को जन्म दिया, जिसे दबाने के प्रयास में कंपनी द्वारा कई तरह के प्रपंच और पाखंड किए गए, जिसके कारण आदिवासियों का विद्रोह और मुखर होता चला गया। इसकी पहली बड़ी आग 1769 में जंगल महल में फैली और चुआड़ विद्रोह हुआ।
इसके बाद के सालों में पलामू पर आक्रमण और चेरो विद्रोह (1771-1819 ), पहाड़िया विद्रोह (1784), तमाड़ विद्रोह (1782-98), सिंहभूम का हो विद्रोह (1820-21), कोल विद्रोह (1831-32), मानभूम-सिंहभूम भूमिज विद्रोह (1832-33) जैसे विद्रोह होते चले गये। संघर्ष के इसी दौर में, 1790 से 1810 के बीच संताल जनजाति के लोग मानभूम, सिंहभूम, हजारीबाग, बांकुड़ा, पुरुलिया और मिदनापुर जिलों से आ कर राजमहल की पहाड़ी की तराई वाले क्षेत्र में बस गये। हालांकि इन्हें इस क्षेत्र में बसने में अंग्रेज प्रशासन ने ही मदद की, किंतु कर वसूली के सवाल पर संघर्ष की भूमि जल्द ही तैयार हो गयी। कर वसूली के लिए इस क्षेत्र में आकर बसे दिकू कहे जाने वाले महाजनों और जमींदारों का जुल्म बढ़ने लगा। तब वर्तमान संताल परगना से लेकर इसके अन्य सीमावर्ती इलाकों के संतालों में प्रतिरोध की भावना प्रबल हुई और उन्होंने बार-बार आंदोलन छेड़ा। संताल परगना के बीरसिंह मांझी ने 1854 में दिकू लोगों के खिलाफ आंदोलन छेड़ा, जो प्रकारांतर से ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह में बदल गया।
पारसनाथ पहाड़ी क्षेत्र के मोरगो मांझी ने जिस विद्रोह का ऐलान किया था, बीरसिंह मांझी ने उसे आगे बढ़ाया। बीरसिंह मांझी ने यह ऐलान कर दिया कि उन्हें चांदों बोंगा (शिखर के देवता) और मारांग बुरू (बड़ा पहाड़ होता है, लेकिन संताल समाज उसे शिव की तरह मानता है) के दर्शन हुए हैं। उन्होंने यह भी एलान किया कि चांदों बोंगा-मारांग बुरू ने उन्हें चमत्कारिक शक्ति दी है और संतालों के शोषकों को दंडित करने का आदेश दिया है। शोषण और अत्याचार से त्रस्त संताल समाज ने उनका नेतृत्व स्वीकार किया। इस विद्रोह ने क्षेत्र को खूब आंदोलित किया। इसके एक साल बाद ही 1855-56 में सिदो-कान्हू के नेतृत्व में संताल हूल हुआ। संताल हूल की लपटें हजारीबाग भी पहुंची। लुबिया मांझी और बैरू मांझी के नेतृत्व में भीषण विद्रोह हुआ। विद्रोह इतना प्रबल था कि शहर से गांव तक इसके जद में आ गए।
अप्रैल 1856 में संताल विद्रोही हजारीबाग जेल में घुस गये और आग लगा दी। इस विद्रोह को दबाने के लिए जहां ब्रिटिश हुकूमत की क्रूरता का शिकार होकर बड़ी संख्या में संताल विद्रोहियों ने शहादत दी। 1855-56 के संताल विद्रोह के बाद भी संतालों को महाजनी शोषण और जमींदारी उत्पीड़न से मुक्ति नहीं मिली थी। हालांकि ब्रिटिश हुकूमत ने संतालों के असंतोष को कम करने के लिए शासनिक व्यवस्था और कर प्रणाली में सुधार की बड़ी पहल की, किंतु इस बदलाव ने नये किस्म का संकट पैदा किया। जमींदारी हक खरीद कर नये जमींदार पैदा हुए और उन्होंने कर की दरें मनमाने ढंग से बढ़ानी शुरू की। लिहाजा, संतालों ने एक बार फिर विद्रोह किया। साल 1866 का उत्तरार्द्ध आते-आते उड़ीसा (ओड़िशा) के मयूरभंज के बामनघाटी परगना के संतालों का शोषण और अत्याचार सहते जाने का धैर्य जवाब दे गया और उन्होंने विद्रोही रुख अख्तियार कर लिया। विद्रोह के यहां तीन कारक थे – भ्रष्ट अफसर, शोषक दिकू और भीषण अकाल। ब्रिटिश हुकूमत ने जमीन का सर्वे और उसकी बंदोबस्ती का काम शुरू किया था। इस काम में लगे अफसर और कर्मचारी भ्रष्ट थे। जमीन मापी में मनमानी करते थे। लगान वसूलते थे, मगर रसीद नहीं देते थे। ऊपर से खुद के लिए नाजायज तरीके से अनाज मांगते थे। वहीं, इलाके में बड़ी संख्या में बसे बाहरी लोग (दिकू/हतुआ) स्थानीय निवासियों संताल, कोल, भूमिज आदि की जमीन हड़पने के लिए महाजनी कर्ज का खेल खेल रहे थे। ऊपर से इलाके में भीषण अकाल पड़ा था, चारों ओर भुखमरी और अकाल मौत की चादर पसरी हुई थी। अत: संताल पीड़ों के चार सरदारों ने अनाज देने से इनकार कर दिया। तब उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। संतालों ने विद्रोह शुरू कर दिया। राजा के सिपाहियों को खदेड़ा। महीनों तक क्षेत्र में अशांति रही।
अंतत: 1867 में हुकूमत को झुकना पड़ा। संताल सरदारों के साथ लिखित समझौता हुआ। राजा बर्खास्त किया गया। बामनघाटी का प्रशासन सिंहभूम के उपायुक्त डाॅ हेयस को सौंपा गया। संताल सरदारों को पुलिस-अधिकार मिले। गांवों का बंदोबस्त उनके साथ किया गया। 1869-70 का टुंडी में विद्रोह हुआ। यहां भी जमीन पर हक और लगान की दर को लेकर संताल रैयतों और स्थानीय जमींदार के बीच संघर्ष हुआ। 1869 के उत्तरार्द्ध में 52 गांवों के संताल रैयतों ने जमींदार के खिलाफ विद्रोह छेड़ दिया। जमींदार ने टुंडी छोड़ कर कतरास में शरण ली। 1870 में कर्नल डाल्टन के हस्तक्षेप पर संतालों एवं जमींदार के बीच समझौता हुआ। रैयतों को जंगल और जमीन पर अधिकार वापस मिला। लगान की चालू दर अगले आठ साल तक के लिए स्थिर कर दी गयी। 1871 में सफाहोड़ आंदोलन हुआ जिसका नेतृत्व झारखंड के संताल परगना (तब जिला) के गोड्डा सब डिवीजन (अब जिला) के तरडीहा गांव के आध्यात्मिक नेता भागीरथ मांझी ने किया। उन्होंने खुद को राजा घोषित कर दिया। वह जमीन का लगान वसूलने लगे और रसीद भी जारी करने लगे। रैयतों को आदेश दे दिया कि कोई सरकार या जमींदार को लगान नहीं देगा।
1871 में यह आंदोलन चरम पर था। सरकार ने भागीरथ मांझी को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया। यह आंदोलन छोटानागपुर के हजारीबाग में भी फैला, जहां इसका नेतृत्व दुबिया गोसाईं ने किया। 1896-97 में ब्रिटिश शासन व्यवस्था के खिलाफ पाकुड़ विद्रोह तब हुआ जब संताल परगना में सड़कों का निर्माण और उनकी मरम्मत के लिए यह अनिवार्य कर दिया गया कि इस काम में गांव के लोग हिस्सा लेंगे, मगर उन्हें मजदूरी नहीं मिलेगी। दूसरी ओर पाकुड़ में मिस्टर क्रेवन ने भूमि संबंधी व्यवस्था में बदलाव की कोशिश की, जो संतालों को स्वीकार नहीं थी। लिहाजा, पूर्व परगनैत फत्तेह संताल (फुत्तेह संताल) के नेतृत्व में आंदोलन शुरू हुआ। रैयतों ने लगान चुकाने से इनकार कर दिया। बाजार लूटे जाने लगे। अंतत: फत्तेह को गिरफ्तार कर लिया गया। सरायकेला के राजा ने लगान की दर मनमाने ढंग से तय कर दी और उसकी वसूली के लिए अत्याचार की नीति अपनायी। राजा रैयतों से नजराने की भी जबरन वसूली करने लगा। इससे कुचिंग पीड़ के संतालों में आक्रोश फैला और उन्होंने 1902 में देवी और किशुन के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया तथा लगान देने से इनकार कर दिया। क्षेत्र में खूब अशांति फैल गयी। किशुन को गिरफ्तार करने पुलिस भेजी गयी, पर उन्होंने पुलिस अफसर को मार डाला। हुकूमत को विद्रोह के प्रमुख नेताओं को गिरफ्तार करने के लिए विशेष सैन्य बल भेजना पड़ा। 1902 के इस विद्रोह को सरायकेला का विद्रोह कहा जाता है। संताल विद्रोह की फेहरिस्त में 1917-18 का सेना में भर्ती पर विद्रोह भी काफी चर्चे में रहा है। इस विद्रोह विद्रोह का केंद्र मयूरभंज था। यह प्रथम विश्वयुद्ध का समय था। फ्रांस भेजने के लिए सेना में श्रम सैनिक के रूप में आदिवासियों की भर्ती करने की कोशिश की गयी। संतालों ने इसका विरोध किया। भर्ती अधिकारी पर हमला कर दिया गया। दुकानें लूटी गयीं। बांगरीपोसी के निकट रेलवे लाइन क्षतिग्रस्त की गयी। विद्रोह इतना उग्र था कि क्षेत्र में सेना भेजी गयी। विद्रोह के नेता गिरफ्तार किये गये। मैथ्यू अरिपरम्पिल लिखते हैं कि 1118 व्यक्तियों के खिलाफ न्यायिक जांच की गयी, जिनमें से 977 को दोषी करार दिया गया। चार लोगों को फांसी की और 33 को आजीवन काले पानी की सजा दी गयी।
सौजन्य: जनज्वार
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