यूपी कांग्रेस का सांगठनिक ढांचा ऐसा है नहीं कि दलित सहजता से जुड़ सकें
भले ही उत्तर प्रदेश में इंडिया गठबंधन के हिस्से के रूप में कांग्रेस को दलितों के एक हिस्से का वोट मिला है। दलित बुद्धिजीवियों के एक बड़े हिस्से की इंडिया गठबंधन और कांग्रेस के प्रति सहानुभूति भी रही है, कुछ ने खुलकर अपनी पक्षधरता भी जाहिर की, कुछ एक ने खुलकर कांग्रेस को वोट देने की अपील भी की। इन सबका का असर भी हुआ। बसपा के कोर वोटरों के भी करीब 25 प्रतिशत ने इंडिया गठबंधन और कांग्रेस को वोट दिया। गैर-जाटव दलितों के बड़े हिस्से का इस बार यूपी में इंडिया गठबंधन और कांग्रेस को वोट मिला।
दलित वोट और दलित बुद्धिजीवियों का साथ इंडिया गठबंधन को मिलने के मुख्य कारण तीन थे। पहला बुद्धिजीवियों और वोटरों का एक बड़ा हिस्सा हर हालत में भाजपा को हराना चाहता था। वह भाजपा और आरएसएस को मनुवादी-ब्राह्मणवादी मानता है। संविधान और आरक्षण को खत्म करने की कोशिश करने वाला मानता है। वह हर हालत में भाजपा को हराना चाहता था। दूसरा कारण इंडिया गठबंधन, विशेषकर कांग्रेस के नेता राहुल गांधी और अखिलेश यादव द्वारा संविधान और आरक्षण को बचाने का आह्वान भी था। तीसरा कारण यह था कि दलितों की पार्टी कही जाने वाली बसपा न तो सीधे भाजपा को चुनौती देती दिख रही थी, न इस स्थिति में लग रही थी कि वह भाजपा को हरा सके। ऐसे में एक हिस्से ने तो बसपा को अपनी पार्टी मानते हुए भी फिलहाल भाजपा को हराने में सक्षम दिख रहे इंडिया गठबंधन का साथ देने का निर्णय लिया।
इस सबके बावजूद यूपी कांग्रेस का सांगठनिक ढांचा ऐसा नहीं है कि दलित कांग्रेस के साथ आर्गेनिक तौर पर दिल से जुड़ सकें। जब मैं आर्गेनिक कह रहा हूं तो इसका मतलब है, कि दलित कांग्रेस के संगठन के साथ पूरी तरह घुलमिल सकें। उसे अपना संगठन मान सकें। जहां उन्हें लगे कि उनके साथ कोई गैर-बराबरी का व्यवहार नहीं होगा। वे वहां उसी हैसियत से रह सकते हैं जिस हैसियत से कोई बाभन-ठाकुर, भूमिहार या लाला रहता है। सबकी हैसियत एक होगी।
कोई किसी पर अपना वर्चस्व स्थापित करने की कोशिश नहीं करेगा। कांग्रेस के ऑफिसों-बैठकों में कुछ भी ऐसा नहीं होगा, जो उनकी गरिमा के खिलाफ हो, उनके नायकों की गरिमा के खिलाफ हो। उनकी समता, स्वतंत्रता और भाईचारे की भावना के खिलाफ हो। न ही इन ऑफिसों-बैठकों में नायकों का असम्मान तो कतई न होगा, बल्कि बराबरी के स्तर पर सम्मान होगा।
फिलहाल ऐसी स्थिति यूपी में कांग्रेस के किसी दफ्तर या ऑफिस में नहीं दिखाई देती है। सबसे पहले वर्तमान अध्यक्ष अजय राय की बात करते हैं। चुनाव के दौरान बनारस में कांग्रेस के ऑफिस में जाने का मौका मिला। जब मैं कांग्रेस ऑफिस के मुख्य बैठक हाल में गया। तो वहां एकमात्र तस्वीर परशुराम की थी। भव्य तस्वीर इतनी लंबी-चौड़ी की छत को छूती हुई दिख रही थी। कोई दूसरी तस्वीर उस हॉल में नहीं थी। क्या कोई दलित चेतना से लैस (आंबेडकवादी) व्यक्ति उस हॉल में सहज महसूस कर सकता है।
दलितों के सबसे बड़े ऑइकनों में एक जोतिराव फुले, जिन्हें आंबेडकर अपना गुरु कहते हैं, अपनी किताब ‘गुलामगिरी’ में परशुराम को बहुजनों का हत्यारा कहते हैं। गर्भवती बहुजन महिलाओं और बच्चों के हत्यारे के रूप में चित्रित करते हैं, प्रमाणों के साथ। जिन तथाकथित क्षत्रियों का उन्होंने विनाश किया, वे बहुजन शासक और उनके परिवार के लोग थे।
बात इतनी नहीं है, अध्यक्ष बनते ही अजय राय ने विश्वनाथ मंदिर में पूजा-अर्जना की। सब कुछ बाकायदा मीडिया और कैमरे के सामने। यह भी ठीक है, पूजा-अर्जना और देवी-देवता उनकी निजी आस्था के विषय हो सकते हैं, यह कोई खास बात नहीं, लेकिन बार-बार उसका सार्वजनिक प्रदर्शन अलग बात है। इससे आगे बढ़कर उन्होंने उसी दिन अपना जनेऊ लहराया। जनेऊ दलित-बहुजनों को अपमानित करने वाला एक अश्लील धागा है, जो बार-बार जनेऊधारियों को ऊंच और गैर-जनेऊधारियों को ‘नीच’ ठहराता है।
सवाल सिर्फ अजय राय का नहीं है, कांग्रेस के किसी ऑफिस में चले जाइए। वहां सबसे केंद्र और सबसे विशाल तस्वीर गांधी की होगी। गांधी के बराबर कहीं भी आंबेडकर की वैसी तस्वीर नहीं दिखेगी। गांधी के बाद किसी की तस्वीर दिखेगी तो नेहरू, इंदिरा और राजीव गांधी होंगे। भले ही राहुल गांधी आंबेडकर की तस्वीर और संविधान की प्रति लेकर कांग्रेस के लिए वोट मांग रहे हों, लेकिन यूपी के कांग्रेस के ऑफिसों में आंबेडकर या संविधान और संविधान प्रस्तावना के लिए कोई जगह नहीं है। गांधी को छोड़ दीजिए परशुराम दिखेंगे। जैसा मैं ऊपर जिक्र कर चुका हूं।
हो सकता है कांग्रेस के लिए गांधी एकमात्र सबसे बड़े महान व्यक्ति हों। आंबेडकर को वे उनके बराबर का न मानते हों, लेकिन दलितों के लिए आंबेडकर गांधी से बहुत बड़े हैं। कम से कम वे आंबेडकर को गांधी से कमतर तो मानने को तैयार नहीं हैं। आंबेडकर के साथ गांधी या गांधी के साथ आंबेडकर को तो स्वीकार कर सकते हैं लेकिन आंबेडकर को किनारे लगाना कत्तई स्वीकार नहीं कर सकते हैं।
बात प्रतीकात्मक तस्वीरों तक सीमित नहीं है। यूपी में कांग्रेस के संगठन पर उन सवर्णों का कब्जा है, जो भीतर से कभी मान ही नहीं पाए हैं कि दलित ( जाटव-च..) उनकी बराबरी कर सकता है, हर स्तर पर और हर मामले में। उन्हें सेवक मानसिकता का ही दलित पसंद हैं। राम के निषाद या शबरी टाइप का। वह राम या रामराज्य की वर्ण-व्यवस्था को चैलेंज करने वाले शंबूक को बर्दाश्त नहीं कर सकते हैं। उनकी चले तो उनका गला काट देंगे। अपने आदर्श राम की तरह। राजनीतिक मजबूरी में भले ही दलितों को कुछ हद तक स्वीकार कर लें।
कोई सवाल कर सकता है कि कांग्रेस के अध्यक्ष तो दलित समाज के खड़गे हैं, कांग्रेस के कई बड़े नेता दलित हैं। अजय राय से पहले यूपी कांग्रेस के अध्यक्ष एक दलित रहे हैं। यह बहुत ही बचकाना टाइप का सवाल है। यह सवाल वही उठा सकता है, जिसे कांग्रेस के यूपी संगठन पर कब्जा जमाए सवर्णों के व्यवहार का ठीक से पता न हो। वे कांग्रेस अध्यक्ष की कौन कहे, उनके राजनीतिक कैरियर या आर्थिक हित को प्रभावित करने वाले किसी भी दलित को अपना माई-बाप मान सकते हैं, लेकिन वह ताकतवर होना चाहिए। उनके नियति को बनाने-बिगाड़ने की हैसियत वाला होना चाहिए।
बासगांव के लंबे समय तक सांसद रहे महावीर प्रसाद का कई सारे सवर्ण पांव छूते थे, अपने घर खाना खिलाना अपना सौभाग्य समझते थे, क्योंकि वे उनके राजनीतिक कैरियर को ऊंचाई पर पहुंचा सकते थे, उन्हें सरकारी नौकरी दिला सकते थे, उन्हें ठेका-पट्टा दिला सकते थे। उनकी समाज में हैसियत बढ़ा सकते थे। लेकिन ऐसे बहुत सारे वाकये हैं, जब सवर्णों ने उन्हें चाय-नाश्ता कराने और उन्हें खाना खिलाने के बाद उन बर्तनों को अलग कर दिया या अलग रखते थे। महावीर प्रसाद जैसी ही स्थिति शीर्ष स्तर पर जगजीवन राम की भी थी। जगजीवन राम के बारे में तो कहा जाता है कि वे सवर्णों के लिए अलग से ब्राह्मण रसोइया रखकर काज-भोज में खाना बनवाते थे।
महावीर प्रसाद और जगजीवन राम जैसे नेताओं की बात छोड़ ही दीजिए। एक सामान्य दलित दरोगा को भी गांव का वही सवर्ण अपने घर बैठाने और खाना खिलाने के लिए तत्पर दिखता है, दौड़कर आवभगत करता है, जो सवर्ण गांव के किसी सामान्य दलित को अपनी कुर्सी पर भी बैठते नहीं देख पाता है। एसपी और डीएम आदि की बात ही छोड़ दीजिए। स्पष्ट है कि खड़गे जैसे बड़े दलित नेताओं के साथ कांग्रेस के सांगठनिक ढांचे पर कब्जा जमाए सवर्ण क्या व्यवहार करते हैं, इससे बहुसंख्यक दलितों के प्रति उनके व्यवहार का कोई पैमाना नहीं माना जा सकता।
कांग्रेस के साथ डॉ. आंबेडकर का एक रिश्ता था, जो अधिकांश समय मुख्यत: संघर्ष का था। क्योंकि वे उसे सवर्णों की सेवा करने वाली नरम हिंदुत्व की पार्टी मानते थे। जगजीवन राम से कांग्रेस का दूसरा रिश्ता था, वे नरम हिंदुत्व और सवर्ण वर्चस्व को स्वीकारते- कुछ हद तक नकारते उसी में रहे। लेकिन मान्यवार कांशीराम ने सामान्य से सामान्य दलित की संवेदना-चेतना को अब वहां पहुंचा दिया है कि वह कांग्रेस में जगजीवन राम या महावीर प्रसाद की तरह रहने और राजनीति करने को तैयार नहीं है। कुछ व्यक्ति विशेष ऐसा कर सकते हैं, लेकिन बहुसंख्य दलित उसी पार्टी के साथ ही दिल से जुड़ सकता है, उसी पार्टी के साथ पूरे मनोयोग से लग सकता है, जहां उसे पूरी बराबरी मिले। केवल शीर्ष स्तर पर नहीं, सबसे नीचे के बूथ के स्तर पर। राजनीति अब बूथ के स्तर पर हो रही है।
जो दलित अपनी दोयम दर्जे की स्थिति और सवर्ण वर्चस्व को स्वीकार करते हुए अपने व्यक्तिगत लाभ और कैरियर के लिए जीना चाहते हैं, राजनीति करना चाहते हैं, उनके लिए कांग्रेस से बेहतर विकल्प तो भाजपा है, जहां उन्हें बहुसंख्यक दलितों और आंबेडकरवादी विचारधारा के साथ गद्दारी का ज्यादा बड़ा पुरस्कार मिलने की संभावना है। रामनाथ कोविंद की तरह राष्ट्रपति बनने के बारे में भी सोच सकते हैं। फिर वे कांग्रेस में क्यों जाएंगे?
कांग्रेस के लिए स्थिति जटिल और उलझी हुई है। कोर वोटर और बौद्धिक समर्थक के रूप में सवर्ण उसका साथ छोड़ चुके हैं, लेकिन संगठन पर उनका पूरा नियंत्रण और वर्चस्व बना हुआ है। राहुल गांधी 2024 के लोकसभा चुनावों में दलित-बहुजन को अपना कोर वोटर बनाने की कोशिश करते दिखे। दलित-बहुजन एजेंडों को उठाकर। संविधान की दुहाई देकर, आंबेडकर की फोटो हाथ में लेकर। इसका उन्हें फायदा भी मिला। इंडिया गठबंधन और कांग्रेस वहीं जीती जहां दलित, बहुजन और आदिवासियों ने उसका बडे़ पैमाने पर साथ दिया, लेकिन सवर्णों का बहुसंख्यक हिस्सा उनका साथ देते हुए कहीं नहीं दिखा। वे सब मजबूती के साथ भाजपा के साथ खड़े रहे।
दलित अब सवर्णों की पिछलग्गू राजनीति करने को तैयार नहीं हैं, उन्हें हर स्तर पर बूथ से लेकर शीर्ष स्तर तक बराबरी चाहिए। कांग्रेस का सांगठनिक ढांचा लंबे समय से सवर्ण विचारधारा, चेतना, संवेदना और हितों को केंद्र में और प्राथमिकता में रखने के लिए बना है, कमोबेश अभी भी वही कायम है। क्या खड़गे और राहुल गांधी इस ढांचे को तोड़ सकते हैं? फिलहाल तो तोड़ते हुए नहीं दिख रहे हैं। ऐसे में क्या दलित कांग्रेस के सांगठनिक ढांचे से जुड़ सकते हैं, उसे अपना संगठन मान सकते हैं, जवाब होगा नहीं।
यूपी कांग्रेस के कई ऑफिसों और बैठकों को देखने के बाद मैं कह सकता हूं कि कम से कम यूपी में कांग्रेस का सांगठनिक ढांचा ऐसा नहीं है कि दलित उसे अपना संगठन या पार्टी मान पाएं, उससे जुड़ सकें। दलित भाजपा-आरएसएस को हराने के लिए भले ही वे कांग्रेस को वोट देते रहें। उत्तर प्रदेश में बसपा के कमजोर होने और भाजपा को चुनौती न देने की मानसिकता ने दलित वोटरों को इस स्थिति में ला दिया है कि मुसलमानों की तरह इस या उस पार्टी को वोट दें, जो भाजपा को हरा सके। यूपी में फिलहाल उनके पास बसपा से इतर सपा और कांग्रेस ही विकल्प है। फिलहाल सांगठनिक तौर उन्हें कांग्रेस से बेहतर विकल्प सपा दिखाई दे रही है, इसके ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक कारण हैं। भले उसके साथ उनके कटु अनुभव भी हैं। फिलहाल इस पर विस्तार से बाद में। (डॉ. सिद्धार्थ लेखक और पत्रकार हैं)
सौजन्य :जनचौक
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