लोकतंत्र में शासक बदलते रहते हैं लोकतंत्र नहीं बदलता
परिवर्तन प्रकृति का अपरिवर्तनीय नियम है। संसार में बदलाव की प्रक्रिया जारी रहती है। इस बदलाव के अपने नियम हैं। हर बदलाव में मूल तत्व बना रहता है। बुनियाद नहीं बदलती है। जैसे, मनुष्य बदलता रहता है। मनुष्यता नहीं बदलती है। नदी का पानी बदलता रहता है, नदी नहीं बदलती है। जीवन के प्रति मूल प्राथमिकताओं एवं प्रतिबद्धताओं में बदलाव नहीं होता है। बदलाव क्रिया-कलाप में होता है। लोकतंत्र के शासक बदलते रहते हैं, लोकतंत्र नहीं बदलता है। लोकतंत्र नहीं बदलता है, यह एक विवादास्पद बात है। कहा जा सकता है कि लोकतंत्र बदलता है।
असल में लोकतंत्र मानव निर्मित व्यवस्था है। मनुष्य अपनी निर्मित व्यवस्था को कभी भी बदल सकता है। मानव निर्मित व्यवस्था में सभ्यता विकास के साथ-साथ नई जरूरतों के हिसाब बदलाव की प्रक्रिया जारी रहती है। दिक्कत तब आती है जब बदलाव की प्रक्रिया मनुष्य को आत्म-हनन एवं आत्म अतिक्रमण के कगार की ओर ठेलने लगती है। बदलाव की बहुआयामी प्रक्रिया के जारी रहने के दौरान संक्रमण की उत्पीड़कताओं को कम करने की दृष्टि से मनुष्य को इस आत्म-हनन एवं आत्म अतिक्रमण की अवांछित स्थिति से बचने-बचाने की चुनौती होती है। कहना न होगा कि भारत में इस समय बदलाव की जो प्रक्रिया चल रही है उस में आम नागरिकों को आत्म-हनन एवं आत्म अतिक्रमण के भंवर में डालने की ही प्रवणता प्रमुख है।
भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था विधि द्वारा स्थापित कानून से चलती है। कानून का शासन होने के कारण यहां शक्ति के मनमानी प्रयोग की गुंजाइश नहीं होती है। कानून सभी पर समान रूप से लागू होता है। व्यक्तिगत अधिकार का भी महत्व होता है। भारत में नकारात्मक भेद-भाव का कोई भी कानून जो सभी पर समान रूप से लागू नहीं हो सकता है, कानून के शासन की संवैधानिक मानदंडों पर खरा नहीं उतर सकता है। स्पष्टता से कहा जाये तो कानून की नजर में असमान बनानेवाला नकारात्मक भेद-भाव को किसी भी रूप में विधि सम्मत नहीं माना जा सकता है। यह ठीक है कि शाश्वत संविधान या एक शाश्वत कानून की स्थिति नहीं होती है। उस में बदलाव हो सकते हैं, होते रहे हैं। बदलाव की संवैधानिक प्रक्रिया भी संविधान में दर्ज है।
इन दिनों चुनाव का माहौल है। 543 के सदन में भारतीय जनता पार्टी अपने अकेले के लिए 370 से अधिक और गठबंधन के साथ 400 से अधिक संसदीय क्षेत्र में जीत का लक्ष्य लेकर चुनाव के मैदान में उतरी है। अपने गठबंधन के घटक दलों के लिए अधिक-से-अधिक 30-40 सीटों का लक्ष्य है। इतनी सीटें या इतनी अधिक संसदीय शक्ति क्यों चाहिए! अभी पांच साल से तो उसके पास गठबंधन सहित 303 सीट तो थी ही। इस बहुमत के आधार पर कौन-सा संवैधानिक काम, कई बार तो असंवैधानिक काम, वह नहीं कर पाई! असल में भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी का इरादा विपक्ष को ही नहीं, हर वैकल्पिक सोच की संभावनाओं को पूरी तरह से मटियामेट कर देने का है। यानी अभी तक मनमानी का वह नजारा नजर के सामने नहीं आया है, जिसका इरादा भारतीय जनता पार्टी रखती है।
यह आशंकित है कि भारतीय जनता पार्टी का इरादा पूरा संविधान ही बदल देने का है। भारत मूलतः संघात्मक है। संविधान में प्रस्तावना के बाद पहले ही अनुच्छेद में साफ-साफ उल्लिखित है, इंडिया, जो कि भारत है, राज्यों का एक संघ होगा (India, that is Bharat, shall be a Union of States.)। भारत एक विशाल और बहुलताओं से भरा देश है। इसकी जटिलताओं का संबंध इसकी बहुलात्मकता और जटिलताओं की संवेदनशीलता के समावेश और सम्मान के लिए भारत के संविधान में पर्याप्त लोच है। सिर्फ लोच ही नहीं दृढ़ता भी बहुत है। मतलब यह कि भारत का संविधान लचीला भी है और कठोर भी है; या यह भी कहा जा सकता है कि न लचीला है और न कठोर है।
यदि भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भारत के संविधान को बदलना चाहते हैं तो क्यों? संविधान में बदलाव की वह कौन-सी प्रक्रिया है, जिसका प्रावधान संविधान में या तो है नहीं या फिर है लेकिन बहुत कठोर है! इन सारे मुद्दों पर ढुलमुल रवैया न अपनाकर स्पष्टता से भारतीय जनता पार्टी को अपनी बात कहनी चाहिए। खासकर तब जब वह डंके की चोट पर अपनी बात कहने का गौरव रखती है। कभी कोई सांसद कहता है कि 370 और 400 पार का लक्ष्य संविधान या उस में बदलाव है, तो उस की आधिकारिक पुष्टि नहीं होती है। ऊपर से ना-नुकुर, भीतर से हां-हुकुर कम-से-कम भारतीय जनता पार्टी को तो यह शोभा नहीं देता है! इतनी बड़ी छाती है! ठोककर सब कुछ कहना चाहिए साफ-साफ! जब किसी के सामने कोई मांग रखी जाती है तो, उस मांग का औचित्य भी बताना जरूरी होता है। उम्मीद की जानी चाहिए कि जल्दी ही जारी किये जानेवाले अपने संकल्प पत्र में इसका उल्लेख भारतीय जनता पार्टी करेगी। हालांकि, इस उम्मीद में एक पेच है।
पेच यह है कि आम चुनाव में संकल्प-पत्र और घोषणापत्र के मामले में राजनीतिक दल एक धुर्ततापूर्ण और तिकड़मी रवैया अख्तियार करते हुए देखे जाते हैं। इस रवैये को वे अपनी ‘रणनीति’ का हिस्सा मानते हैं। ‘रणनीति’ यह कि अपना संकल्प-पत्र या घोषणापत्र बाद में और चुनाव के बिल्कुल सटाकर जारी किया जाता है। उसके पहले की बयानबाजी में इतना कोलाहल भरा रहता है कि उधर देखने की फुरसत और मोहलत ही किसी नागरिक या हित-धारक के पास नहीं रह जाती है। जिस प्रकार से चुनाव के दिन की घोषणा या अधिसूचना में समय का एक निश्चित अंतराल रखा जाना आवश्यक होता है। उसी प्रकार स्पष्टता से संकल्प-पत्र और घोषणापत्र की घोषणा को सार्वजनिक किये जाने के लिए भी चुनाव के दिन से समय के निश्चित अंतराल को अनिवार्य किया जाना चाहिए।
संकल्प-पत्र और घोषणापत्र में कुछ ऐसे मुद्दों के रहने से भी इनकार नहीं किया जा सकता है जिन पर चुनाव प्रचार के समय की बयानबाजी में तो जोर नहीं होता है, लेकिन सत्ता हासिल हो जाने के बाद हाथ लहराकर संकल्प-पत्र और घोषणापत्र का हवाले से अचंभित करनेवाले सूत्रों को देश के सामने कर दिया जाता है। यह चुनाव में राजनीतिक दलों का धुर्ततापूर्ण रवैया हो या उनकी रणनीति हो, उस में मतदाताओं के विश्वास के उल्लंघन (Breach of Trust) का तत्व जरूर होता है।
जब संकल्प-पत्र सामने आयेगा, तब आयेगा। अभी आम नागरिकों को 370 और 400 पार के निर्धारित लक्ष्य के कारणों और उद्देश्यों को विभिन्न तरीकों से समझने की कोशिश करनी चाहिए। संविधान के सभी अनुच्छेद महत्वपूर्ण हैं, लेकिन अनुच्छेद 368 का बहुत और विशेष महत्व है। 370 और 400 से अधिक संसदीय क्षेत्र में जीत हासिल करने से क्या हासिल होगा! समझने का एक तरीका यह है कि भारतीय जनता पार्टी और उसके गठबंधन के साथियों को मिलाकर 17वीं लोकसभा में जितनी सीटें हैं वह सामान्य बहुमत है। विशेष बहुमत के लिए कम-से-कम 362 सीट चाहिए।
370 सीट भारतीय जनता पार्टी को विशेष बहुमत के मामले में स्वयं-सक्षम बनाता है। गठबंधन के साथ 400 सीट विशेष बहुमत का आयतन बड़ा करता है। भारत के संघात्मक ढांचा में परिवर्तन करने के लिए विशेष बहुमत की जरूरत होती है। कई संशोधन तो ऐसे भी हैं जिनके लिए कुल विधान सभाओं में से आधे का समर्थन हासिल करना होता है। सदन में विशेष बहुमत से पारित होने के बाद विधान सभाओं के बहुमत की भी जरूरत होती है। इस के साथ ही बुनियादी ढांचा के बारे में केशवानंद भारती के मामले में सुप्रीम कोर्ट की व्यवस्था तो अपनी जगह है। सदनों में विशेष बहुमत और आधे से अधिक राज्यों में बहुमत का संयोग मिलाना बहुत कठिन काम होता है।
असल में भारतीय जनता पार्टी की लक्ष्य-सिद्धि में 370 और 400 के पार का यही प्रसंग है। बुनियादी ढांचे में परिवर्तन के बिना भारतीय जनता पार्टी एकदलीय शासनतंत्र के मुहाने पर भारत को लाकर खड़ा कर दिया है। संसदीय मनमानी के ऐसे भी प्रसंग आयेंगे, इसकी आशंका पुरखों को रही होगी, लेकिन दिल न मानता रहा होगा। इस सरकार के ऐसे-ऐसे कारनामे हैं कि कुछ कहना मुश्किल। न राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के मुंह से कुछ निकलता है और न किसी और की कोई सुनवाई का कोई अवसर होता है। न कानून का कोई आदर, न संविधान का कोई सम्मान। रहनिहारों, नागरिकों के बीच विभाजन और विभाजकताओं के पेच डालकर ‘अखंड राष्ट्र’ की कल्पना करने का साहस की दुर्मति के इस तरह के धुरफंदिया कारोबार पर कौन विश्वास करेगा?
विशेष बहुमत नहीं रहने पर नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2019, समान नागरिक संहिता, चुनावी चंदा (Electoral Bonds), जनप्रतिनिधियों को तोड़ने-मरोड़ने, वर्चस्वशाली लोगों से मिलते-जुलते रहने से ही किसी तरह जीवनयापन के संभव होने की परिस्थिति, जीवन के हर प्रसंग को राजनीति में रंग देने, नागरिक पीड़ाओं से परेशान मतदाताओं के संवैधानिक अधिकारों के उच्छेदन और ‘व्यक्तिगत कृपा’ का ऐसा प्रसा, आक्रामकता में आकर्षण पैदा करने की दुरभिसंधियां करने से किस भारत को हम हासिल कर पायेंगे? किस भारत को?
मतदाताओं को ठंडे और पूर्वग्रह मुक्त मन-मस्तिष्क और खुले दिल से इन बातों पर सोचना है। राजनीतिक विरोधी होने के कारण इस तरह से मुख्यमंत्रियों को जेल में डाला जायेगा? प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस पार्टी का बैंक खाता अवरुद्ध कर दिया जायेगा? महत्वपूर्ण संवैधानिक नियुक्तियों में बस एक ही चलेगी! भारत की संस्कृति बताती है कि इसका काम तो एक देवता से भी नहीं चलता है। एक आदमी सब कुछ हथिया ले क्या यह संभव होने दिया जायेगा! नकारात्मक भेद-भाव को नागरिक युद्ध तक घसीट ले जाने की शासकीय प्रवृत्ति को न सिर्फ पहचानना होगा, बल्कि उसी के अनुरूप अपने मतदान सहित सभी नागरिक कर्तव्यों का पालन करना होगा।
अभी चुक गये तो आनेवाली पीढ़ियां हिसाब मांगती रह जायेंगी और हाथ में कोई किताब भी न होगा। कोई प्रचार करने, आये, न आये; प्रचार करने के लिए किसी को सही तरीके से मतदाताओं से संपर्क करने दिया जाये, न दिया जाये मतदाताओं को खुद आत्म-निर्णय के आत्माधिकार का विवेक संगत व्यवहार करना ही होगा। देश की घरेलू और लोकतांत्रिक राजनीति को सर्व-विनाशक हथियार में बदले जाने को रोकना ही होगा। ऐसे कई सवाल भारतीय मानस को भीतर से मथता रहा है। कहना न होगा कि हो-न-हो सोचने का यह आखिरी ही मौका न हो! सोचने और फैसला तो मतदाताओं को ही करना है। (प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)
सौजन्य :जनचौक
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