केजरीवाल की गिरफ़्तारी, इलेक्टोरल बॉन्ड और कांग्रेस के खाते फ़्रीज़ करने पर बीबीसी से क्या बोले पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त
पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई क़ुरैशी ने कहा है कि किसी राजनीतिक पार्टी के बैंक खातों को फ़्रीज करना, ऐसे समय में जब चुनाव होने वाले हों, सभी को एक समान अवसर देने के नियम से उसे वंचित करना है|
हाल ही में कांग्रेस पार्टी के शीर्ष नेताओं ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस कर आरोप लगाया कि दो पुराने मामले का हवाला देते हुए पार्टी के खातों को फ्रीज़ कर दिया गया है|कांग्रेस का आरोप है कि 30-35 साल पुराने मामले को खोल कर चार खातों को फ्रीज़ कर दिया गया जबकि इस मामले में करीब 14 लाख रुपये की गड़बड़ी के चलते 285 करोड़ रुपये का फंड रोक लिया गया|
बीबीसी संवाददाता इक़बाल अहमद से विशेष बातचीत में पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई क़ुरैशी ने कहा कि चुनाव आयोग का काम है स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराना, इसलिए वो कांग्रेस के बैंक खाते फ़्रीज़ किए जाने के मामले में निर्देश दे सकता है. वो ये कह सकता है कि जैसे इतने दिन रुका गया, दो महीने और रुका जा सकता है|
हालांकि उनका कहना है कि अरविंद केजरीवाल का मामला अलग है. बीते एक साल से समन आ रहे थे और वो उसे नज़रअंदाज़ कर रहे थे|
आचार संहिता लागू होने के बाद, पार्टियों के शीर्ष नेतृत्व को गिरफ़्तार करने से पहले जांच एजेंसियों को क्या चुनाव आयोग को सूचित नहीं करना चाहिए? इस सवाल के जवाब में क़ुरैशी ने कहा कि ऐसा मामला पहले चुनाव आयोग के सामने आया नहीं| हलांकि उन्होंने कहा कि ऐसे समय में दो दो मुख्यमंत्रियों को जेल के अंदर डालने से एक ग़लत छवि बनती है. और कुछ लोग रूस से तुलना कर सकते हैं जहां हाल ही में हुए आम चुनाव के दौरान विपक्षी नेताओं को जेल के अंदर डाल दिया गया था| उन्होंने कहा कि कार्रवाई करने वाली एजेंसियां भी बहुत हद तक स्वतंत्र होती हैं, ऐसा कहना मुश्किल है|
इलेक्टोरल बॉन्ड जब लाया जा रहा था तो इसी चुनाव आयोग ने आपत्ति ज़ाहिर की थी और 2017 में उसने चिट्ठी लिखी थी और रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया भी इसके विरोध में था. लेकिन बाद में उनकी राय बदल गई|
ये पूछने पर कि इससे क्या आशय निकलता है, एसवाई कुरैशी ने कहा, “जब ये इलेक्टोरल बॉन्ड आए थे, तो 2017 में चुनाव आयोग की प्रतिक्रिया बहुत कड़ी थी. रिज़र्व बैंक ने इस बारे में चिट्ठी लिखी. लेकिन 2021 में इन्होंने बिल्कुल यूटर्न ले लिया.” अब जबकि इलेक्टोरल बॉन्ड की स्कीम रद्द कर दी गई है और चुनाव आयोग ने इससे जुड़ी सारी जानकारियों को सार्वजनिक कर दिया है, क्या इससे कोई बदलाव आएगा?
इस पर एसवाई कुरैशी का कहना था कि इससे बदलाव तो ज़रूर आएगा, “सुप्रीम कोर्ट ने इसे स्पष्ट रूप से असंवैधानिक क़रार दिया है. ये तो चुनाव आयोग की ही मांग थी और मेरी भी इस बारे में पुख़्ता राय रही है.”
इलेक्टोरल बॉन्ड को लेकर एसवाई कुरैशी ने अपनी एक किताब ‘इंडिया एक्सपेरिमेंट विद डेमोक्रेसी: लाइफ़ ऑफ़ ए नेशन थ्रू इट्स इलेक्शन’ का हवाला दिया.
कुरैशी कहते हैं, “जब इलेक्टोरल बॉन्ड लाया जा रहा था तो तत्कालीन वित्त मंत्री ने कहा था कि बिना पारदर्शी राजनीतिक फ़ंडिंग के स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव संभव नहीं हैं और बीते 70 साल में इसे पारदर्शी बनाने की हमारी कोशिशें नाकाम रहीं. लेकिन अपने भाषण में पारदर्शी प्रणाली को ही उन्होंने ख़त्म कर दिया.”
वो कहते हैं, “उस वक्त ये नियम था कि 20 हज़ार से ऊपर चंदा लेने पर चुनाव आयोग को बताना होता था और सर्टिफिकेट दिया जाता था. इस आधार पर इनकम टैक्स छूट मिलती थी. इलेक्टोरल बॉन्ड के आने के बाद 20 हज़ार करोड़ का भी कोई हिसाब नहीं है. किसने किसको कितना दिया ये पता ही नहीं चलता है.”
एक देश, एक चुनाव: मोदी सरकार के लिए कितना मुश्किल, कितना आसान लेकिन सवाल उठता है कि एक आदर्श चुनावी चंदे की कोई प्रणाली होनी चाहिए. ये प्रणाली क्या हो सकती है?
इस पर कुरैशी ने कहा, “इलेक्टोरल बॉन्ड से पहले राजनीतिक पार्टियों को जाने वाला 70 प्रतिशत चंदा नकद में होता था. ये कहां से आया किसने दिया, कुछ पता नहीं लगता था. उस समय भी सुधार की बात उठी.” वो कहते हैं, “इसका एक ही तरीका है कि नेशनल इलेक्शन फ़ंड (राष्ट्रीय चुनाव कोष) बना दिया जाए, क्योंकि ये कहा जाता है कि चंदा देने वाले डरते हैं कि दूसरी पार्टी न नाराज़ हो जाएं. प्राइम मिनिस्टर फंड, नेशनल डिज़ास्टर फंड आदि में देने में किसी को ऐतराज नहीं होता. इसी तरह इसमें भी फ़ंड दिए जाएं.”
उनके मुताबिक, “इस राष्ट्रीय चुनावी फ़ंड से पिछले चुनाव में मत प्रतिशत के आधार पर पार्टियों को फ़ंड दे दिये जाएं. 70 फीसदी यूरोपीय देशों में ये प्रणाली चल रही है. इससे काफ़ी हद तक चुनावी चंदे में पारदर्शिता आ सकती है.”
चुनाव क़रीब आते ही ईवीएम पर फिर से सवाल खड़े होने लगे हैं और कांग्रेस की अगुवाई वाले विपक्षी इंडिया गठबंधन ने हाल ही में मुंबई में हुई एक रैली में इस पर तीखा हमला बोला| पूर्व चुनाव आयुक्त ने कहा, “ईवीएम पर सबसे अधिक विरोध 2009 में बीजेपी ने किया था. मैं 2010 में चुनाव आयुक्त बना. लेकिन मेरी धारणा ईवीएम को लेकर सकारात्मक रही है. अगर कोई सवाल है तो राजनीतिक दलों की बैठक कर उसे हल करना चाहिए.”
“ईवीएम के पक्ष में सबसे बड़ा तर्क है कि उसी ईवीएम से राजनीतिक दल लगातार हारते और जीतते रहते हैं, कर्नाटक, पंजाब, दिल्ली, हिमाचल इसका उदाहरण है, जहां सत्तारूढ़ पार्टी हारी. हालांकि इसमें सुधार किया जा सकता है. मेरा सुझाव है कि वीवीपैट में ऐसी सुविधा दी जाए कि मतदाता संतुष्ट होने के बाद हरा बटन दबाए और तभी पर्ची निकले. और अगर इसमें गड़बड़ी हो तो अलार्म का लाल बटन हो ताकि मतदान को रोका जा सके.”
अभी चुनिंदा मतदान केंद्रों पर ही वीवीपैट की सुविधा होती है लेकिन कई राजनीतिक दल इसे 100 प्रतिशत लागू करने और उन पर्चियों की गिनती की भी मांग करते रहे हैं.
इस पर कुरैशी ने कहा कि ‘भरोसा कायम करने के लिए ये दोनों मांगें मानी जानी चाहिए. इससे चुनावी नतीजों में थोड़ी ही देरी होगी. हालांकि ये भी तरीका बनाया जा सकता है कि अगर किसी सीट के दो शीर्ष उम्मीदवार किसी बूथ के वोट की फिर से गिनती करवाना चाहें तो ये करने देना चाहिए, जिससे फिर से पूरी मतगणना से बचा जा सकेगा.’
हालांकि उन्होंने कहा कि ईवीएम बनाने वाली कंपनी में सत्तारूढ़ दल बीजेपी के लोगों का स्वतंत्र निदेशक की हैसियत से शामिल होना गंभीर बात है| उनके अनुसार, “निदेशक के पास बहुत ताक़त होती है, वो कुछ बदलाव के लिए कह सकता है. लेकिन निदेशक भले ही कुछ न करें, उनकी राजनीतिक नियुक्ति लोगों के मन में संदेह पैदा करती है. हालांकि ये भी सुझाव पहले से रहा है कि सॉफ़्टवेयर को ओपन सोर्स कर दिया जाए. सार्वजनिक होने से उसमें सुधार ही होगा.”
ये पूछने पर कि टीएन शेषन के कार्यकाल की तुलना में बाद के चुनाव आयुक्तों की कार्यपद्धति में क्या बदलाव आया, कुरैशी कहते हैं कि जिस काम को उन्होंने शुरू किया, बाद के चुनाव आयुक्तों पर उसे और मज़बूत करने की ज़िम्मेदारी थी और हुआ भी| उन्होंने तत्कालीन क़ानून मंत्री वीरप्पा मोइली के बारे में एक क़िस्सा भी सुनाया कि चुनाव सुधार की मीटिंग के लिए वो खुद उनके पास आए| उन्होंने कहा कि टीएन शेषन कहते थे कि चुनाव आयुक्त को क़ानून मंत्री के दफ़्तर के बाहर दो घंटे इंतज़ार करना पड़ता था. लेकिन तबसे स्थिति काफ़ी सुधरी है.
वो पूछते हैं कि टीएन शेषन कहते थे कि वो नाश्ते में नेताओं को खाते हैं लेकिन क्या आज कोई चुनाव आयुक्त ऐसा कह सकता है? हाल के दिनों में चुनाव आयोग में हुए विवादों पर कुरैशी ने कहा कि ‘2019 में जैसे अशोक लवासा की असहमति का मामला सामने आया. इससे थोड़ा धक्का तो लगा ही. उस समय चुनाव आयोग की विश्वसनीयता पर असर पड़ा था लेकिन पिछले सालों में आयोग की छवि में सुधार ही हुआ है.’ (बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप यहां क्लिक कर सकते हैं. आप हमें फ़ेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम और यूट्यूब पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.)
सौजन्य :बीबीसी
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