मनुवादी व्यवस्था को आगे बढ़ा रहा है संघ
संघ परिवार की ओर से देश के धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक ढांचे को तोड़ कर इसके स्थान पर एक धर्म आधारित देश (कट्टर हिंदू राष्ट्र) स्थापित कर मनुवादी सामाजिक व्यवस्था को लागू करने का अपना लक्ष्य बहुत देर से घोषित किया जा चुका है।
संघ परिवार की ओर से देश के धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक ढांचे को तोड़ कर इसके स्थान पर एक धर्म आधारित देश (कट्टर हिंदू राष्ट्र) स्थापित कर मनुवादी सामाजिक व्यवस्था को लागू करने का अपना लक्ष्य बहुत देर से घोषित किया जा चुका है। संघ की ओर से इस दिशा में पहले से ही बहुत कुछ किया जा चुका है और बाकी का रहता कार्य वह 2024 के लोकसभा चुनावों को जीतने के बाद पूरा करने की मंशा रखता है। ऐसी व्यवस्था पूरी तरह से गैर-लोकतांत्रिक होगी। अर्थात यह फासीवादी तर्ज पर आधारित होगी जिसके अंदर मनुष्य के लिए अपनी आजाद मर्जी के साथ किसी भी धर्म को अपनाने, लिखने, बोलने और पढ़ने की स्वतंत्रता जैसे बुनियादी अधिकारों का पतन होना लाजिमी है।
मनुवादी सामाजिक व्यवस्था समस्त दलित समाज और अन्य पिछड़े वर्गों को जातिवाद की जंजीरों में जकड़ कर ऐसी स्थिति में फैंक देगी जहां मनुष्य के रूप में समाज की सेवा कमा रहे दलित तथा पिछड़े वर्ग के लोगों की जिंदगी गुलामों से भी बदतर हो जाएगी। जागीरदारी काल के दौरान दलित और पिछड़े वर्ग की जो स्थिति थी अर्थात पढ़ने-लिखने और जायदाद बेचने और खरीदने पर पाबंदी, अलग-अलग जलस्रोत और छुआछूत जैसी भयानक बीमारियां आज उसी रूप में लागू न भी हों परन्तु सामाजिक भेदभाव नए रूपों में पहले से भी अधिक गहरे होने की संभावनाओं को रद्द नहीं किया जा सकता। सिख गुरु साहिबानों, भक्ति लहर के समाज सुधारकों, कम्युनिस्टों तथा अन्य इंकलाबियों के प्रयासों के सदका ही सामाजिक समानता, निजी आजादी, पढ़ने-लिखने और बोलने जैसे अधिकारों की जितनी भी प्राप्ति हुई है उन सबके विलुप्त हो जाने के खतरों को अनदेखा करना अपने आप से धोखा करने के समान होगा।
स्वतंत्रता से पहले और उसके बाद भारत में ई.वी. पेरियार, महात्मा ज्योतिबा राव फुले और सावित्री बाई फुले, बिरसा मुंडा, बाबा मंगू राम मुगोवालिया, डा. बी.आर. अम्बेदकर जैसे नेताओं और बुद्धिजीवियों ने दलित और पिछड़े वर्ग के कल्याण की खातिर सामाजिक भेदभाव से छुटकारा दिलाने के लिए बड़े संघर्ष किए थे। भारतीय संविधान के अंदर जो कुछ सीमित रूप में सामाजिक न्याय के लिए अर्जित किया गया है उसने भी दलितों-पिछड़े वर्गों के अंदर चेतना जगाने और दलित आबादी के एक छोटे से हिस्से को आर्थिक रूप में अच्छा जीवन जीने के सक्षम बनाया है।
मगर आज कार्पोरेट घरानों की सेवाहित और पूंजीवादी संकट के मद्देनजर आर.एस.एस. के राजनीतिक विंग भाजपा ने भारत के अंदर फासीवादी तर्ज की हुकूमत कायम करके मनुवादी सामाजिक ढांचा कायम करने की पूरी योजना बना रखी है। इस खतरे को देश की प्रमुख भाजपा विरोधी राजनीतिक पार्टियां अनुभव कर चुकी हैं और उन्होंने भाजपा के मुकाबले 2024 के लोकसभा चुनावों में एकजुट होकर चुनावी मैदान में कूदने के लिए ‘इंडिया’ जैसे राजनीतिक गठजोड़ को बनाया है।
बेशक इस गठबंधन में शामिल कई राजनीतिक दल सत्ता प्राप्ति की होड़ में अतीत में एक-दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ते रहे हैं। इन दलों की विचारधारा एक समान होते हुए भी राजसत्ता पर कब्जे के सवाल पर इनके दरम्यान कई तरह के मतभेद रहे हैं। सभी मुश्किलों, मतभेदों के बावजूद यदि इन दलों के नेताओं के मनों के अंदर धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक और संघात्मक ढांचे और सामाजिक न्याय के बारे में जितना भी सम्मान होगा तभी वे दल 2024 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को सत्ता से बेदखल कर सकेंगे।
परन्तु बसपा जोकि दलित और पिछड़े वर्ग से हो रहे भेदभाव को खत्म करने के नाम पर अस्तित्व में आई थी, अभी तक अपना राजनीतिक कार्ड स्पष्ट नहीं कर सकी है। पिछले 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों में बसपा भाजपा और कांग्रेस के मुकाबले में तीसरे दल के तौर पर खड़ी होकर कोई अधिक कामयाबी हासिल नहीं कर पाई है। मगर इसने मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भाजपा विरोधी वोटों को बांट कर भाजपा की जीत यकीनी बनाने वाले ‘भरोसेमंद सहायक’ की भूमिका जरूर अदा की है।
बसपा का धरातल स्तर का ईमानदार और समॢपत वर्कर बाबा साहेब अम्बेदकर की विचारधारा के साथ चट्टान की तरह आज भी जुड़ा हुआ है। यदि किसी भी कारण आर.एस.एस. का आशीर्वाद प्राप्त करने वाली भाजपा 2024 के चुनावों में जीत हासिल करके सत्ता पर काबिज हो जाती है तो भारतीय आबादी में सबसे ज्यादा इसका खामियाजा दलित और पिछड़े वर्ग को भुगतना पड़ेगा। हमारी दिली इच्छा है कि ऐसा न घटे और हम वर्तमान संविधान के अधीन काम कर रहे देश का धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक और संघात्मक ढांचा कायम रखा जा सकें।
मगर यदि किसी भी कारण बसपा सुप्रीमो और अन्य दलित नेता भाजपा विरोधी ऐसी राजनीतिक रणनीति नहीं अपनाते तो उन लाखों वर्करों जोकि सामाजिक बदलाव के कार्य प्रति ईमानदारी के साथ समर्पित हैं, को खुद को ही राजनीतिक मैदान में उतर कर मनुवादी शक्तियों को सत्ता से उतार कर अहम रोल अदा करना चाहिए।(ब्लॉग -मंगत राम पासला)
सौजन्य: पंजाब केसरी
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