7 साल की उम्र से मैला ढोया:पीली दाल खा नहीं पाती, लोग बासी खाना फेंक कर देते; मेरी परछाई से भागते
मैं ऊषा चौमर राजस्थान के अलवर की रहने वाली हूं। 7 साल की उम्र में मां की उंगली पकड़ यह देखने गई कि मेरी मां मैला कैसे साफ करती है। मां मैला ढोती और मैं खेलने-कूदने की उम्र में मैला उठाने की ट्रेनिंग लेती। मैला कैसे उठाना है, परात में कैसे रखना है और कहां फेंकना है।मां इसलिए सिखाती कि लड़की जात है, ससुराल जाकर यही काम तो करना है। सिर्फ घर बदलता, काम नहीं। 10 साल की उम्र में शादी भी हो गई। छोटी थी, नन्हें हाथ थे, इसलिए चार साल बाद ससुराल पहुंची। वहां मां नहीं, सास थीं। उनके साथ मैला ढोने घर-घर जाती। लोगों की गंदगी ढोना अपनी नियति मानकर जीने लगी कि तभी धूमकेतु की तरह सुलभ इंटरनेशनल मेरी जिंदगी में आया और फिर अचानक से एक दिन सबकुछ बदल गया।
सिर पर मैला नहीं, सम्मान की पगड़ी बंधी। दुर्गंध और बदबू नहीं, अपने काम के हुनर की खुशबू को फैलते देखा। सिर पर कभी मैला ढोने वाली को पद्मश्री पुरस्कार मिला और देश-विदेश में नाम भी।
एक घर से मैला ढोने के मिलते महीने के 10 रुपए
पीढ़ियों से हमारे यहां मैला ढोने का काम होता रहा है। घर की महिलाएं चूड़ी से भरे हाथों में झाड़ू, परात लेकर घर-घर जातीं। मैला उठाकर सिर पर रखती और दूर फेंक कर आतीं। एक घर से महीने के 10 रुपए मिलते। किसी के यहां ज्यादा टिन होते तो 20-30 रुपए और मिलते। लेकिन बमुश्किल महीने के 200-300 रुपए ही कमा पाती।
बचा खाना प्लास्टिक में बंद कर लोग दूर से फेंक कर देते
समाज में हमारी हैसियत जानवरों से भी बदतर रही। जिनके यहां गंदगी उठाने जाते वो रात का बचा खाना प्लास्टिक के थैले में रखते और दूर से ही फेंक कर देते। हमारी छाया से भी दूर रहते। अलवर में भयंकर छुआछूत थी। लोगों के घरों में गदंगी साफ करने के लिए अलग रास्ता होता। उधर हमारे सिवा कोई नहीं जाता। गलती से गेट छू लिया तो उसकी सफाई की जाती। साल में एक नई साड़ी मिलती। पति और बच्चों के लिए फटे-पुराने कपड़े मिलते। घर में किसी की शादी रहती, लोग मैला उठाने के लिए बुला लेते | मैला ढोना यानी रोज की ड्यूटी। हमलोगों का भी मन करता कि आज छुट्टी कर लेते हैं। लेकिन लोग दरवाजे पर बुलाने आ जाते। घर में शादी-ब्याह का फंक्शन भी रहता तो वो आ धमकते। कहते कि पहले हमारे घर का मैला उठाकर ले जाओ। उसके बाद ही कुछ करना। बीमार रहती तब भी काम पर जाना पड़ता। अगर न जा सकी तब भी घर से किसी न किसी को भेजना पड़ता।
सुलभ इंटरनेशनल से जुड़ने से पहले मंदिर के अंदर विराज भगवान को कभी नहीं देखा। अलवर में भगवान जगन्नाथ का बड़ा मंदिर है, हम भगवान को अंदर से देखने को तरसते। पंडित हमलोगों को सीढ़ियों पर भी बैठने नहीं देते। रथ यात्रा निकलती तो हम दूर से खड़े होकर देखते। इस सारे छुआछूत के साथ पली और बड़ी हुई।
एक मिनट सुनो!, ये काम क्यों करती हो?
अलवर में एक मैला चौक है। 2003 की बात है। मैं मैला ढोकर आ रही थी, कुछ और भी महिलाएं मेरे साथ थीं। सब घूंघट में थीं। तभी एक व्यक्ति ने कहा कि ‘एक मिनट सुनो’। वो साहब गाड़ी से निकले। पूछा कि ‘पहले तो घूंघट ऊपर करो।’ हमने कहा कि ये आदमी पिटेगा क्या। हम तो पति के अलावा किसी से बात नहीं करते। देवर के सामने भी घूंघट नहीं उठाते। मैंने कहा कि नेता या मंंत्री हो क्या जो वोट लेने आए हो। उन्होंने कहा कि ‘आप ये काम क्यों करती हैं?’ हमने कहा, बड़ा अजीब आदमी है। ये कैसा सवाल कर रहा। कोई और काम है ही नहीं इसलिए कर रहे। उन्होंने कहा, ‘अच्छा काम देंगे तो करोगी?’ मैंने कहा कि कर तो लूंगी पर, मेरे परिवार के लोग कहेंगे तब।
पहली बार सुलभ इंटरनेशनल के फाउंडर डॉ. बिंदेश्वर पाठक से इस तरह परिचय हुआ। उन्होंने हमें दिल्ली बुलाया। मेरे लिए दिल्ली अमेरिका था, बस दिल्ली देखने आ गई मेरी सास कहती कि ये काम छोड़ देगी तो तुम्हारे बच्चे कैसे पलेंगे। क्या खाएंगे? अचार, पापड़ बनाएगी तो कोई खरीदेगा ही नहीं। कपड़े सिलेगी तो कोई माप देने आएगा ही नहीं। जो लोग हमारी छाया से दूर रहते हैं वो भला माप कैसे देंगे। सास ने कह दिया कि दिल्ली-विल्ली नहीं जाना है।
पति ने वरमाला नहीं पहनाई थी, सुलभ में पहली बार गले में माला डाल स्वागत हुआ
दिल्ली ले जाने के लिए हमारे घरों पर गाड़ी आई। पहली बार कार में बैठी। जब पालम में सुलभ के ऑफिस पहुंची तो वहां के स्कूल की टीचर और बच्चियों ने गले में फूल माला डालकर स्वागत किया। मेरे पति ने भी शादी के समय गले में वरमाला नहीं डाली थी।यह मुझे अंदर से दिल को छू गया। कभी इज्जत, सम्मान मिला नहीं था। यहां मिला तो आंखें ही नहीं डबडबाई, मन भी रोया। होटल में पहली बार खाया, साहब ने मिठाई के लिए 200 रुपए दिए | दिल्ली में बिंदेश्वर पाठक हमें बड़े बड़े होटलों में ले गए। अशोका, रेडिशन, ओबेरॉय जैसे होटल। हमने तो वेटरों को भी टीवी पर ही देखा था। साहब ने कहा कि खाने के लिए आप ऑर्डर दें, आपको जो पसंद हो आज वही मंगवाएंगे। पहली बार अपनी पसंद के खाने का ऑर्डर दिया। जब हम अंदर गए तो होटल मैनेजर ने साहब से कहा कि इनको कहां से ले आए सर, ये तोड़-फोड़ मचा देंगे। साहब ने कहा कि एक चम्मच भी गिरा तो हम उसकी कीमत चुकाएंगे। हमने बड़े आराम से खाना खाया। तब मैनेजर ने ‘सॉरी’ कहा। साहब ने कहा कि ‘इंसानों को इंसान समझिए।’ जब अलवर के लिए लौटने लगे तो साहब ने हमें मिठाई के डिब्बे के साथ 200 रुपए भी दिए।
पढ़ाई-लिखाई के साथ स्किल्ड बनाने की ट्रेनिंंग मिली
बिंदेश्वर पाठक ने अलवर में ‘नई दिशा’ नाम से एक संस्था खोली। उसमें उन्होंने टीवी लगाया। कुछ टीचर रखे गए और सबसे पहले हमारी पढ़ाई-लिखाई शुरू हुई। साफ-सफाई के बारे में बताया जाता।हम कभी सुबह में नहाते नहीं थे क्योंकि हमें मैला उठाने जाना होता था। जब ‘नई दिशा’ में ट्रेनिंग शुुरु हुई तो नहा धोकर जाना पड़ता। नाखून काटती, बालों में कंघी करती, साफ-सूथरे कपड़े पहनती। फिर हम अचार, पापड़, नूडल्स बनाने लगे। कपड़े के थैले बनाते, ब्यूटी पार्लर का काम सीखते। मैं पूछती कि ये अचार, पापड़ कौन खरीदेगा। तब बिंदेश्वर पाठक कहते कि सुलभ इंटरनेशनल इसे खरीदेगा। दर्द समझने को आरा में बिंदेश्वर पाठक ने दो दिनों तक सिर पर मैला ढोया| क्या कोई अपना घर चलाने के लिए मैला भी ढो सकता है? जो मैला ढोता है उसे कैसा लगता होगा? बिंदेश्वर पाठक ने आरा से सुलभ इंटरनेशनल की शुरुआत की थी। आरा में ही दो दिनों तक उन्होंने सिर पर मैला ढोया। हमें बहुत खराब लगा। हमने कहा, साहब आप ये काम क्यों कर रहे? तब उन्होंने कहा कि समझना चाहता हूं कि कोई ये काम करके क्या महसूस करता है। कितना दर्द, कितनी पीड़ा, कितनी मजबूरी होती होगी।
सुलभ इंटरनेशनल की प्रेसिडेंट बनी
2003 से शुरू हुई यात्रा ने मेरा जीवन बदल दिया। 2007 में मुझे सुलभ इंटरनेशनल की प्रेसिडेंट बनाया गया। भारत में मैला ढोने की प्रथा को पूरी तरह खत्म करने के लिए सुलभ ने अभियान चलाया। सुलभ ने हमें नई जिंदगी दी। अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस, साउथ अफ्रीका जैसे देशों में होकर आई। साउथ अफ्रीका जब गई तो वहां देखा कि लोग गड्डे खोदकर उसे शौचालय के रूप में इस्तेमाल करते हैं। जो भर जाता है उसमें कूड़ा-मिट्टी डाल देते हैं। तब हम बताते कि ये कभी भी धंस सकता है। वहां पक्के शौचालय बनवाएं। इंग्लैंड के ब्रिटिश एसोसिएशन ऑफ साउथ एशियन स्टडीज का हर साल सम्मेलन होता है। मुझे इस कॉन्फ्रेंस में ‘सैनिटेशन एंड वुमंस राइट्स इन इंडिया’ विषय के स्पेशल पैनल में बोलने के लिए मौका मिला।
अपने देश में शहरों में सार्वजनिक शौचालय हैं लेकिन गांवों में नहीं है। सुलभ अब गांवों में भी सार्वजनिक शौचालय खोल रहा है। अलवर, पटना, टोंक के ग्रामीण इलाकों में ऐसे शौचालय बने हैं।
सुलभ इंटरनेशनल के प्रेसिडेंट के रूप में मीटिंग लेती हूं। जहां से भी शौचालय की देखरेख में शिकायत आती है तत्काल उस पर एक्शन लिया जाता है। नए और आधुनिक शौचालयों का निर्माण कराया जाता है। अलवर में चल रहे वोकेशनल ट्रेनिंग सेंटर के संचालन की भी जिम्मेदारी है। वहां 115 महिलाएं हैं जबकि टोंक में 22-23 लेडीज हैं।
अमेरिका में कैटवॉक किया
जब अमेरिका गई तो वहां कई मॉडलों को देखा। छोटे-छोटे कपड़ों में मॉडल स्टेज पर उतरतीं। बिंदेश्वर पाठक ने कहा कि तुम लोग भी रैंप पर साड़ी पहनकर चलो। साड़ी में बॉर्डर लगाकर हम भी मॉडल के साथ रैंप पर उतरे और कैटवॉक किया, मटक-मटक चले। हम 35 महिलाओं ने अमेरिका में कैटवॉक किया।
राजनाथ सिंह को अपने हाथों से खिलाया, पीएम मोदी को राखी बांधी
जब लंदन से लौटी तो केंद्रीय मंत्री राजनाथ सिंह सुलभ के ऑफिस पहुंचे। उन्होंने कहा कि लंदन से चॉकलेट लाई हो तो खिलाओ। मैंने कहा कि चॉकलेट तो खत्म हो गए, घर का खाना खिलाऊंगी। तब एक पंक्ति में राजनाथ सिंह बैठे और मैंने उन्हें अपने हाथों से खिलाया।
पद्मश्री पुरस्कार मिला, स्वच्छता के लिए अभियान चलाती हूं
2020 में मुझे तत्कालीन राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के हाथों पद्मश्री पुरस्कार मिला। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी मेरे कामों की सराहना की। उनसे कई बार मिल चुकी हूं। उन्हें राखी बांधती हूं। पीएम द्वारा शुरू किए स्वच्छता अभियान में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेती हूं। जब बिंदेश्वर पाठक को पीएम मोदी ने स्वच्छता का अवार्ड दिया तो उन्होंने ये अवार्ड मुझे थमा दिया, कहा कि इसकी असली हकदार ऊषा है। ये बिंदेश्वर पाठक की महानता रही है।
जिनके घरों से मैला उठाती थी, वहां के लोग अब अपने घर में बिठाते हैं
लोगों की सोच में काफी बदलाव आया है। पहले जिनके घरों में मैला उठाने जाती थी, उनके घर को अंदर से कभी देखा नहीं था। लेकिन अब वे लोग अपने घरों में बुलाते हैं। गेट खुलते ही घर के अंदर चले जाते हैं। जिन ग्लास में वो पानी पीते हैं उसी में हमें भी पिलाते हैं। मंदिर की सीढ़ियां ही नहीं, अंदर भी हम उसी तरह पूजा पाठ कर पाते हैं जैसे सभी लोग करते हैं। हम खुद से भगवान को प्रसाद चढ़ाते हैं, पुजारी हमारे हाथ से दक्षिणा लेते हैं। मंदिर में हमने हवन करवाया। जब भोज करवाया तो ‘धरती और आकाश का मिलन’ हुआ। हमें उम्मीद नहीं थी कि 50 लोग भी जुटेंगे लेकिन 2000 लोग आए। तब होटल से खाना मंगाकर खिलाया। सब एक पंक्ति में बैठ खाए। जयपुर में जब पुरोहित ने अपने लड़के की शादी की तो एक ही पंक्ति में खाना खिलाया। वो सबको बताते कि कैसे ऊषा ने अलवर ही नहीं, देश का सिर ऊंचा किया है।
आज भी पीली दाल नहीं खाती
मेरे घर में आज भी पीली दाल नहीं बनती। लोगों के घर से मैला उठाने के कारण मुझे दाल से घिन हो गई। दाल के रंग को देखकर मैले का दृश्य आंखों के सामने आ जाता है। उल्टी जैसा मन होने लगता है। बेटी MA कर रही, बेटे गाड़ियों के शोरूम में काम करते हैं | मेरे दो बेटे और एक बेटी है। बेटे गाड़ियों के शोरूम में काम करते हैं जबकि बेटी MA कर रही है। वह जब तक अपने पैरों पर खड़ी नहीं होगी तब तक उसकी शादी नहीं करूंगी। मैं यह सोचती हूं कि जिस उम्र में मेरी शादी हुई उस उम्र में किसी लड़की की शादी न हो।
सौजन्य : देनिक भास्कर
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