तमिलनाडु: दबंगों के वर्चस्व को चुनौती- चप्पल पहन सड़कों पर निकले दलित समुदाय के लोग
नई दिल्ली। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन देश भर में सामाजिक न्याय की ताकतों को एक साथ मिलकर काम करने की बात करते रहे हैं। देश में गैर-भाजपा सरकार बनाने के लिए वह इंडिया गठबंधन के प्रमुख पैरोकारों में रहे हैं। वह मनुष्यों के बीच जाति, क्षेत्र और रंग के आधार पर भेदभाव का विरोध करते रहे हैं। उनकी पार्टी डीएमके भी मानव द्वारा निर्मित ऊंच-नीच की विरोधी रही है। दक्षिण भारत में जातिवाद और छुआछूत के विरोध में लंबा आंदोलन चला है। ऐसा माना जाता है कि जिसका प्रभाव वहां की राजनीति और समाज पर है। लेकिन ताजा कुछ घटनाओं को देखने के बाद यह सवाल उठता है कि क्या राज्य में भेदभाव न होने की बात सिर्फ कागजों तक सीमित है।
दरअसल, राज्य में आज भी दलितों को ऊंची जातियों (पिछड़ी जाति) के सामने और यहां तक कि सड़कों पर भी चप्पल पहनकर चलने से रोकता है। दलितों के ऊपर यह अत्याचार वहां की दबंग मानी जाने वाली नायकर और गौंडर्स करते रहे हैं।
प्रभु जातियों के इस अलिखित कानून को अब राज्य के दलित चुनौती देने का मन बनाया है। खबर के मुताबिक तिरुप्पुर जिले के मदाथुकुलम तालुक के राजावुर गांव के 60 दलित रविवार देर रात गांव में ‘कंबाला नैकेन स्ट्रीट’ पर जूते पहनकर चले। ऐसा करके उन्होंने ऊंची जातियों के उस अलिखित नियम को तोड़ दिया, जो दलितों को सड़क पर चप्पल पहनकर चलने से रोकता था। सूत्रों का तो यहां तक कहना है कि अनुसूचित जाति के सदस्यों को सड़क पर साइकिल चलाने की भी अनुमति नहीं है।
300 मीटर लंबी सड़क के किनारे के सभी निवासी पिछड़ी जाति के नायकर समुदाय से हैं। गांव के लगभग 900 घरों में से 800 गौंडर्स और नायकर जैसी प्रमुख जातियों के हैं।
एक ग्रामीण, ए मुरुगानंदम (51) ने पीढ़ियों से चली आ रही आपबीती के बारे में बताते हुए कहा, “अरुंथथियार समुदाय के सदस्यों को सड़क पर चप्पल पहनकर चलने से रोक दिया गया था। अनुसूचित जाति के सदस्यों को जान से मारने की धमकियां दी गईं और उनके साथ मारपीट भी की गई। यहां तक कि ऊंची जाति की महिलाओं ने भी धमकियां दीं और कहा कि अगर अनुसूचित जाति के सदस्य सड़क पर चप्पल पहनकर चलेंगे तो स्थानीय देवता उन्हें मौत के घाट उतार देंगे। हम दशकों से सड़क पर जाने से बच रहे थे और उत्पीड़न के तहत जी रहे थे। कुछ हफ़्ते पहले, हमने इस मुद्दे को दलित संगठनों के ध्यान में लाया। ”
एक अन्य ग्रामीण ने कहा कि “पैदल चलने के बाद दलित अब भी डरे हुए हैं।”
एक अन्य ग्रामीण ने कहा, “रविवार की देर रात, हम चप्पल पहनकर सड़क पर चले और दशकों से चले आ रहे उत्पीड़न को समाप्त किया।”
दलित समुदाय के एक अन्य सदस्य ने कहा, “जब आजादी के बाद अस्पृश्यता पर प्रतिबंध लगा दिया गया था, तो प्रमुख जाति के सदस्यों ने इस प्रथा को कायम रखने के लिए एक कहानी गढ़ी, जिसमें कहा गया कि सड़क के नीचे एक वूडू गुड़िया को दफनाया गया है और अगर एससी लोग चप्पल पहनकर सड़क पर चलते हैं, वे तीन महीने के भीतर मर जायेंगे। कुछ दलित समाज के सदस्यों ने उन कहानियों पर विश्वास किया और बिना चप्पल के चलना शुरू कर दिया, और यह प्रथा आज भी जारी है।
तमिलनाडु अस्पृश्यता उन्मूलन मोर्चा (तिरुप्पुर) के सचिव सीके कनगराज ने कहा, “पिछले हफ्ते, हम गांव गए थे और कई दलित महिलाओं ने कहा कि वे उस विशेष सड़क में प्रवेश भी नहीं कर सकती हैं। हमने विरोध शुरू करने का फैसला किया, लेकिन पुलिस ने अनुमति देने से इनकार कर दिया और हमें स्थगित करने के लिए कहा। हमने वह अनुरोध स्वीकार कर लिया। लेकिन सीपीएम, वीसीके और एटीपी के पदाधिकारियों के साथ हमारे मोर्चे के सदस्यों ने सड़क पर चलने और गांव में राजकलियाम्मन मंदिर में प्रवेश करने का फैसला किया।”
उन्होंने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा “रविवार शाम को, लगभग 60 दलित चप्पल पहनकर सड़क पर चले और किसी ने हमें नहीं रोका। पूरे कार्यक्रम की निगरानी स्थानीय पुलिस द्वारा की गई। पदयात्रा के आयोजन के बाद भी, कुछ दलित अभी भी डरे हुए हैं और हमें उम्मीद है कि हमारे पदयात्रा से उनका आत्मविश्वास बढ़ेगा।”
तिरुप्पुर (Tiruppur) तमिलनाडु राज्य का एक ज़िला है और राज्य का पांचवा सबसे बड़ा नगर है। तिरुप्पुर नोय्यल नदी के किनारे बसा हुआ है। यह दक्षिण भारत के प्राचीन कोंगु नाडु क्षेत्र के एक हिस्से का भाग था, जहां पाण्ड्य राजवंश और चोल राजवंश का राज्य रहा है। आधुनिक काल में यह वस्त्र उद्योग का एक महत्वपूर्ण केन्द्र है, जहां से भारी मात्रा में वस्त्र निर्यात होते हैं।
सौजन्य : जनचौक
नोट : समाचार मूलरूप सेjanchowk.com मे प्रकाशित हुआ है मानवाधिकारों के प्रति सवेदनशीलता व जागरूकता के उद्देश्य से प्रकाशित|