सीवर, सफाई कर्मी और संविधान
भारत के समाज में दलित अर्थात हरिजनों या अनुसूचित जातियों के लोगों के साथ सदियों से पशुवत व्यवहार होता रहा है मगर इनमें से भी सबसे ज्यादा बुरी स्थिति सामुदायिक साफ- सफाई करने वाले लोगों की रही है जिनकी एक अलग ही जाति बना दी गई।
पूरे समाज में भौतिक स्वच्छता करने का भार अपने कन्धे पर उठाये ये वंशानुगत तरीके से यही काम करते आ रहे हैं और इनकी पीढि़याें की पीढि़यां घनघोर उपेक्षा की शिकार रही हैं। अपने वंशानुगत कार्य से बाहर निकलने के रास्ते इनके सामने लगभग बन्द हैं जिसका सबसे बड़ा कारण गरीबी और शिक्षा का अभाव एवं सामाजिक तिरस्कार है। इतना सब होने के बावजूद यह समाज अपना सफाई करने का कार्य अपना भाग्य या विधि का लेखा समझकर करता आ रहा है और सर्वाधिक विपन्नता की परिस्थितियों में जी रहा है। आजादी के बाद हमने चांद तक को नापने की तरक्की प्राप्त कर ली है और विज्ञान के क्षेत्र में भूतल से लेकर नभ और अंतरिक्ष तक बड़ी-बड़ी सफलताएं प्राप्त कर ली हैं मगर अपने अपशिष्ट से निजात पाने के क्षेत्र में हम अभी तक दकियानूसी बने पुरानी राह पर चलना ही अपनी तरक्की की पहचान मानते हैं।
हम बड़े-बड़े शहरों में गगनचुम्बी आधुनिक अट्टालिकाओं का जाल खड़ी करके अपनी प्रगति की डींगें हांकते हैं परन्तु इन विशाल भवनों से निकलने वाले मानव अपशिष्ट के निपटारे के लिए किसी ऐसी तकनीक को अपनाने से बचते हैं जिसमें किसी मनुष्य को खुद गन्दा होकर उसे साफ न करना पड़े। हर महीने हम सुनते रहते हैं कि किसी न किसी शहर में ‘सीवर’ को साफ करने के लिए उसमें घुसे सफाई कर्मचारी की जहरीली गैसों की वजह से मृत्यु हो गई। हमने नगर पंचायतों से लेकर नगर पालिकाओं व नगर निगमों तक की व्यवस्था गांव से लेकर महानगरों तक में साफ-सफाई का प्रबन्ध करने के लिये की मगर यह कभी नहीं सोचा कि स्वच्छता का काम करने वाले लोग किन नारकीय परिस्थितियों में अपना जीवन गुजारते हैं और मानव जनित ‘कचरे’ को साफ करने के उपक्रम में खुद ही ‘कचरा’ बन जाते हैं। हम एक तरफ आधुनिक दिखना चाहते हैं और दूसरी तरफ अपने में से ही कुछ मानवों को बदबू का पर्याय मान लेते हैं।
हकीकत से आंखें चुरा कर कोई भी समाज कभी सभ्य नहीं बन सकता क्योंकि सभ्य वही कहलाता है जो मानव के काम करने के तरीकों को भी सभ्य बनाता है। क्या यह हैरत की बात नहीं है कि हम अपने कस्बों से लेकर शहरों तक में बिछी हुई सीवर लाइनों की साफ-सफाई के लिए अभी तक यूरोपीय देशों की भांति मशीनरी का इस्तेमाल करने लायक नहीं हो सके हैं और इन सीवरों में इंसानों को उतार देते हैं। क्या गजब है कि ये सफाई कर्मचारी अब हर छोटे से लेकर बड़े शहरों की नगर पालिकाओं तक में ठेके पर रखे जाते हैं जिससे स्थानीय निकाय प्रशासन अपनी जिम्मेदारी ठेकेदारों पर डाल कर आराम से चादर तान कर सोया रहता है और सफाई कर्मचारी उसका बन्धक बन कर न्यूनतम दिहाड़ी पर काम करने को मजबूर रहता है। दलितों के लिए संवैधानिक आरक्षण की व्यवस्था को रौंदने के लिए हमने यह ठेका प्रणाली ईजाद कर ली है। मगर सफाई कर्मियों और इस समुदाय व समाज के लोगों के शोषण की यही सीमा नहीं है बल्कि आज भी भारत में ऐसे बहुत से स्थान हैं जहां मनुष्य अपशिष्ट उठाने का काम सफाई कर्मी ही करते हैं लेकिन भारत एक लोकतन्त्र है और इसकी स्वतन्त्र न्यायपालिका मानवीय मूल अधिकारों के प्रति हमेशा बहुत ही संजीदा रहती है। अतः सर्वोच्च न्यायालय ने केन्द्र व सभी राज्य सरकारों को आदेश दिया है कि वे अपने-अपने क्षेत्र में सुनिश्चित करें कि मानव अपशिष्ट सफाई का काम ‘मानव’ ही न करे।
देश की सबसे बड़ी अदालत के न्यायमूर्तियों सर्वश्री एस. रवीन्द्र भट व अरविन्द कुमार ने इस सन्दर्भ में दायर एक जनहित याचिका का निपटारा करते हुए सरकारों को 14 निर्देश दिये जिससे 2013 में संसद द्वारा बनाये गये सफाई कर्मचारी नियोजन कानून का कायदे से पालन हो सके और भारतीय संविधान के विभिन्न अनुच्छेदों में जो सामाजिक समानता का सिद्धान्त दिया गया है वह उचित रूप से लागू हो सके। न्यायालय ने आदेश दिया कि सीवर में काम करते हुए यदि किसी व्यक्ति की मृत्यु होती है तो उसके परिवार के निकटतम व्यक्ति को 30 लाख रुपये का मुआवजा दिया जाये और यदि कोई ऐसा काम करते हुए विकलांग या शारीरिक रूप से अक्षम हो जाता है तो उसे 10 लाख से लेकर 20 लाख रुपए तक की धनराशि दी जाये। न्यायमूर्तियों ने यह भी कहा कि सफाई कर्मियों के समुदाय को बन्धक की तरह मानकर इनके जिम्मे समाज ने यह काम थोपा हुआ है। यह पूरे समाज की जिम्मेदारी बनती है कि वह इनकी व्यथा को समझे। समझने की जरूरत यह भी है कि जब हम अपनी संस्कृति का ढोल पीटते हैं तो उसमें समाज के इन्हीं दबे- कुचले व उपेक्षित लोगों की आवाज को निकाल कर बाहर कर देते हैं। इसकी वजह यही है कि हम सच्चाई के उन चित्रों काे छिपाना चाहते हैं जो हमारे समाज की सच्चाई का चित्रण करते हैं। मगर ऐसा करने से हम अपनी कमियों को छिपा नहीं सकते। सच्चाई का सामना करने का साहस महात्मा गांधी का था जिन्होंने दिल्ली में अपना प्रवास एक हरिजन बस्ती में बना कर समाज को सन्देश दिया था कि सफाई कर्म से जुड़े लोग समाज की गन्दगी दूर करते हैं और जो यह कार्य करता है वह पवित्र होता है। मगर वर्ष 2022 में 347 सफाई कर्मी सीवर की सफाई करते हुए मृत्यु को प्राप्त हो गये।(आदित्य नारायण चोपड़ा)
सौजन्य :पंजाब केसरी
दिनाक :23 अक्टूबर 20 23
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