गोरखपुर दलित भूमि आंदोलन का दमन और भाजपा के दलितों तक पहुंच के लिए ‘नमो-मित्र’ और ‘भीम सम्मेलन’ का पाखंड
गोरखपुर जमीन आंदोलन में गिरफ्तार सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं के मामले में जमानत याचिका CJM कोर्ट से खारिज होने के बाद 20 अक्टूबर को ऊपरी कोर्ट में सुनवाई होनी थी, जो condolence के कारण अब 26 अक्टूबर को होगी। इस बीच तमाम राजनीतिक दलों, जनसंगठनों, बौद्धिक-सांस्कृतिक मंचों, महिला नेताओं, अधिवक्ता संगठनों तथा नागरिक समाज की हस्तियों ने इन गिरफ्तारियों का विरोध किया है।
ज्ञातव्य है कि 7 अक्टूबर को गोरखपुर में चर्चित अम्बेडकरवादी बुद्धिजीवी और सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता एस आर दारापुरी, पत्रकार सिद्धार्थ रामू , अंबेडकर जनमोर्चा के संयोजक श्रवण निराला व अन्य लोगों को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया। ये लोग गोरखपुर कमिश्नरी पर सभी गरीबों, दलितों, पीड़ितों के लिए न्यूनतम 1 एकड़ जमीन देने की मांग को लेकर आयोजित एक शांतिपूर्ण कार्यक्रम में शामिल हुए थे।
जाहिर है जमीन की मांग न तो गैर-कानूनी थी, न अजूबा, वरन यह दलितों-गरीबों के सम्मानजनक आजीविका की जरूरी शर्त और पूरी तरह न्यायसंगत है।
इस मांग को लेकर हुए शांतिपूर्ण कार्यक्रम पर शासन-प्रशासन के कठोर दमनात्मक रुख से लोग चकित रह गए। आखिर भूमिहीनों के लिए जमीन की मांग पर आयोजित एक लोकतान्त्रिक धरना-प्रदर्शन को लेकर इस अभूतपूर्व सख्ती का राज क्या है? उन लोगों तक को गिरफ्तार कर 307 जैसी धारा में जेल भेज दिया गया, जो कार्यक्रम में महज वक्ता के रूप में शरीक हुए थे।
पूरे मामले पर गौर करने से साफ है कि इन गिरफ्तारियों के पीछे भाजपा और योगी सरकार का विशुद्ध राजनीतिक एजेंडा है। दरअसल 2024 आम चुनाव के मद्देनजर भाजपा की निगाह दलितों-गरीबों के वोट पर है जिसे लेकर इन दिनों उत्तर प्रदेश में विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच तीखी प्रतियोगिता छिड़ी हुई है।
2014 के बाद से गैर-जाटव दलित समुदायों में भाजपा ने मजबूत पकड़ बना ली है, लेकिन कठिन होती जीवन स्थितियों के बीच गरीबों में बढ़ती बेचैनी के कारण उसे टिकाए रखने की चुनौती उसके सामने है। उधर, हाल के वर्षों में बसपा का जिस तरह पराभव हो रहा है और अपने सामाजिक आधार पर मायावती की पकड़ ढीली पड़ रही है, उसका लाभ उठाते हुए बसपा के core वोट बैंक जाटव समुदाय में घुसपैठ के लिए भाजपा बेचैन है।
लेकिन उसके इस प्रोजेक्ट को विपक्ष से जबरदस्त चुनौती मिल रही है।
मायावती से दलितों के अलगाव पर निगाह लगाए कांग्रेस और समाजवादी पार्टी भी उन्हें अपने पक्ष में लामबंद करने की कोशिश में लगी हैं। कांग्रेस दलित-गौरव संवाद आयोजित कर रही है तो सपा मुखिया अखिलेश यादव ने पिछले महीने रायबरेली में कांशीराम की प्रतिमा का अनावरण किया।
अतीत में दलित कांग्रेस के winning social coalition का अहम घटक हुआ करते थे। बसपा के उभार के साथ वे कांग्रेस से छिटक गए थे। आज जब बसपा का पराभव हो रहा है और कांग्रेस राहुल के नए अवतार में कांशीराम द्वारा दिये गए ‘जिसकी जितनी संख्या उसका उतना हक’ जैसे नारों के साथ सामने आ रही है तथा दलित मूल के मल्लिकार्जुन खड़गे उसके अध्यक्ष हैं, ( जिनके UP से चुनाव लड़ने और PM के लिए projection तक के सन्देश दिये जा रहे हैं!), कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर पर revival के साथ UP में दलितों को पुनः अपने fold में वापस लाने की जीतोड़ कोशिश में लगी है।
उधर सुदूर पश्चिम के खतौली और पूर्वांचल के घोसी में अधिसंख्य दलित भाजपा को हराने वाले सपा-रालोद के पक्ष में खड़े हुए और उनकी भूमिका भाजपा को हराने में निर्णायक साबित हुई।
अगर 2024 के आम चुनाव में दलित समुदाय की sizable गोलबंदी भाजपा के विरुद्ध विपक्षी गठबंधन के पक्ष में हुई तो UP में बाजी पूरी तरह पलट सकती है। उल्लेखनीय है कि गुजरात के अपवाद को छोड़कर तकरीबन हर राज्य में संकट में घिरी भाजपा के लिए मोदी की पुनर्वापसी की सारी उम्मीदें UP पर टिकी हैं। UP में कोई setback पूरा खेल पलट देगा।
इन सब नई संभावनाओं से भाजपा घबराई हुई है। इसलिए दलितों के बीच घुसपैठ के लिए योगी के नेतृत्व में वह युद्धस्तर पर अभियान में उतर पड़ी है। 17 अक्टूबर को अनुसूचित वर्ग सम्मेलनों की श्रृंखला हापुड़ से शुरू हुई जिसे स्वयं योगी ने सम्बोधित किया।
एक पखवारे में प्रदेश के विभिन्न अंचलों में ऐसे कुल 6 सम्मेलन होने हैं- 19 अक्टूबर को अलीगढ़, 28 को कानपुर, 30 को प्रयागराज, 2 नवम्बर को लखनऊ और 3 नवम्बर को गोरखपुर। फिर नवम्बर में जाटव बस्तियों को फोकस करते हुए विधानसभावार “भीम सम्मेलन” होंगे। दलित युवाओं को खासतौर से जोड़ने के लिए नमो मित्र प्लान तैयार किया गया है।
दलितों को हिंदुत्व के fold में ले आने के लिए संघ-भाजपा दुहरी रणनीति पर अमल कर रहे हैं। वे वाल्मीकि, रविदास अंबेडकर जैसे दलित icons को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के फ्रेमवर्क में ढाल रहे हैं। योगी ने हापुड़ में कहा, “अनुसूचित जाति के कहे जाने वाले संतों ने समाज का मार्गदर्शन किया। वाल्मीकि ने भगवान श्रीराम से साक्षात्कार कराया, संत रविदास ने भक्ति का सन्देश दिया- ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’, बाबा साहब ने संविधान बनाकर 142 करोड़ भारतीयों को एकता के सूत्र में बांधने का काम किया।”
उन्होंने आगे जोड़ा, “बाबा साहब अम्बेडकर को सही मायने में किसी ने सम्मान देने का काम किया है, तो मोदी जी ने किया है। उनकी जन्मभूमि से लेकर उनके रहने वाले स्थान पर उनके स्मारक बनवाये।”
दूसरी ओर कुछ आर्थिक योजनाओं, आवासीय पट्टे आदि का लॉली पॉप दिखा रहे हैं, क्योंकि 5 किलो अनाज वाली लाभार्थी योजनाओं की चमक फीकी पड़ चुकी है, उससे बहुत बड़ी बड़ी गारंटी तो अब कांग्रेस और INDIA वाले दे रहे हैं और लागू कर रहे हैं। हापुड़ सम्मेलन में योगी ने दलितों के लिए 102 योजनाओं की चर्चा की, हालांकि उनके लिए कुल आबंटन मात्र 136 करोड़ है।
योगी ने अखिलेश यादव पर हमला बोलते हुए बाबा साहब तथा कांशी राम का नाम लेकर दलितों के साथ छलावा करने का आरोप लगाया। उन्होंने कहा कि अखिलेश ने तुष्टीकरण की राजनीति करते हुए बाबा साहब के नाम पर बनी संस्थाओं का नाम बदल दिया। योगी ने अपनी सरकार द्वारा डॉ भीमराव अंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर बनाने का उल्लेख किया।
जाहिर है, भाजपा के महत्वाकांक्षी दलित outreach कार्यक्रम के बीच गरीबों, दलितों का जमीन के रैडिकल सवाल पर बड़ा जमावड़ा वह भी योगी जी के गढ़ गोरखपुर में किसी रंग में भंग से कम नहीं था। आंदोलन के प्रति शासन-प्रशासन की अप्रत्याशित और disproportionate प्रतिक्रिया और उसे iron hand से deal करने के पीछे यही मूल कारण प्रतीत होता है।
लेकिन इससे शायद ही कोई लाभ हो। उल्टे दलितों-गरीबों में भाजपा के खिलाफ जो गुस्सा पहले से पनप रहा है, उसे इससे और खाद पानी ही मिलेगा।
यह सुविदित तथ्य है कि भूमिहीनता का अभिशाप ग्रामीण गरीबों- दलितों की चौतरफा तबाही-उनकी आर्थिक विपन्नता, सामाजिक पिछड़ेपन व अपमान तथा राजनीतिक शक्तिहीनता के मूल में है। उनमें से अधिकांश अपनी बदहाल स्थिति के कारण आरक्षण जैसे संवैधानिक प्रावधानों का भी लाभ उठा पाने की स्थिति में नहीं है।
भाजपा राज में आज वैसे भी सरकारी नौकरियां, शिक्षा, उनमें आरक्षण के अवसर खत्म होते जा रहे हैं। अंधाधुंध निजीकरण के फलस्वरूप शिक्षा स्वास्थ्य के दरवाजे गरीबों के लिए पूरी तरह बंद ही होते जा रहे हैं। उधर ग्रामीण इलाकों में दबंग सामंती तत्वों के हौसले बुलंद हैं और गरीबों दलितों पर हमले बढ़ते जा रहे हैं, उनकी महिलाओं पर यौन हिंसा की घटनाओं की बाढ़ आ गयी है।
स्वाभाविक रूप से गरीबों-दलितों में बेचैनी बढ़ती जा रही है। इन हालात में शायद किसी भी और समय की तुलना में भूमिहीनों के लिए जमीन की मांग आज और भी प्रासंगिक हो उठी है।
नामकरण और स्मारक बनाने की खोखली प्रतीकात्मकता जमीन, आजीविका, सम्मान और आज़ादी की ठोस मांग और आकांक्षा का विकल्प नहीं हो सकती।
राजनीतिक तौर पर अपनी परम्परागत ब्राह्मण- बनिया पहचान के चलते दलितों के लिए भाजपा कभी natural choice नहीं रही। मोदी युग में भी तमाम उपायों द्वारा उनका हिंदुत्वकरण करने, सोशल इंजीनियरिंग और लाभार्थी योजनाओं द्वारा लुभाने की कोशिशों के बावजूद वह उनके बीच कोई बड़ी वैधता और स्वीकृति हासिल कर पाने में सफल नहीं हो पा रही है।
उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में योगी राज में सामंती दबंगई जिस तरह पुनर्जीवित हुई है और परवान चढ़ी है, दलित उसके सीधे निशाने पर हैं। फलस्वरूप उनकी सामाजिक गोलबंदी की स्वाभाविक दिशा भाजपा की राजनीति के विरुद्ध है। खतौली और घोसी चुनाव नतीजे इसकी ताजा मिसाल हैं।
विपक्ष मूलभूत दलित एजेंडा- भूमि वितरण, रोजगार, आरक्षण, शिक्षा, स्वास्थ्य, उत्पीड़न से मुक्ति, संविधान की रक्षा- जैसे प्रश्नों को गम्भीरता के साथ address करते हुए उत्तर प्रदेश में भाजपा के लिए निर्णायक चुनौती खड़ी कर सकता है।
(लाल बहादुर सिंह, इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं।)
सौजन्य :जनचौक
दिनाक :21 अक्टूबर 20 23
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