विधानसभा चुनाव 2023: दलित और आदिवासी जिधर झुका, सत्ता होगी उसी के पास! बीते चुनावों के आंकड़े कर रहे ये इशारा
आंकड़ों के मुताबिक पांच राज्यों में विधानसभा की 679 सीटें हैं। इन सभी सीटों में 240 सीटें ऐसी हैं, जो दलित और आदिवासियों के लिए सुरक्षित सीटें हैं। आंकड़ों के मुताबिक पांचों राज्यों की तकरीबन ऐसी 35 फ़ीसदी सीटें आरक्षित कोटे में आती हैं|
देश में होने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में सभी सियासी दलों ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी है। वैसे तो यह ताकत सभी विधानसभा क्षेत्रों में लगाई जा रही है, लेकिन सभी सियासी दलों को अंदाजा है कि इन पांच राज्यों में अगर दलित और आदिवासियों को अपने पक्ष में कर लिया गया, तो सत्ता उनके पास ही होगी। दरअसल राजनीतिक दलों के पास ऐसा सोचने और इस समुदाय के लोगों को अपने पक्ष में करने के पीछे सबसे बड़ा कारण बीते चुनावों के नतीजे हैं। आंकड़े बताते हैं कि 2018 में जिस राज्य में दलित और आदिवासी का बंपर वोट जिस राजनीतिक दल को मिला, सत्ता की चाबी उसको ही मिली। 2013 के नतीजे इस बात की पुष्टि करते हैं कि यह ट्रेंड सत्ता पाने के लिए बना रहना बेहद जरूरी है। क्योंकि 2013 में सत्ता पाने वाली भाजपा ने 2018 के चुनाव में मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में इस समुदाय पर अपना अधिकार खो दिया था।
सियासी आंकड़े इस बात की तस्दीक करते हैं कि आने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में अगर दलित और आदिवासी समुदाय को अपने पक्ष में कर लिया गया, तो राज्य में सत्ता एक तरह से उसी की हो जाती है। आंकड़ों के मुताबिक पांच राज्यों में विधानसभा की 679 सीटें हैं। इन सभी सीटों में 240 सीटें ऐसी हैं, जो दलित और आदिवासियों के लिए सुरक्षित सीटें हैं। आंकड़ों के मुताबिक पांचों राज्यों की तकरीबन ऐसी 35 फ़ीसदी सीटें आरक्षित कोटे में आती हैं। राजनीतिक विश्लेषक बृजेश शुक्ला का कहना है कि 2018 के चुनाव में मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में इन सभी सुरक्षित सीटों पर तकरीबन दो तिहाई कब्जा कर कांग्रेस ने सत्ता की चाबी पाई थी। यही वजह है कि 2022 के विधानसभा चुनावों में सभी राजनीतिक दलों का पूरा फोकस दलित और आदिवासियों पर ही ज्यादा से ज्यादा केंद्रित है। क्योंकि यही सुरक्षित सीटें विधानसभा के चुनाव की दशा और दिशा पूरी तरह से बदल देती हैं।
राजस्थान में सुरक्षित सीटों पर जीत से मिलती है सत्ता
राजस्थान में कुल 200 विधानसभा की सीटें हैं। इसमें तकरीबन तीस फीसदी सीटें यानी 59 सीटें सुरक्षित कैटेगरी में आती हैं। राजस्थान की आबादी में 17 फीसदी दलित और 13 फीसदी आदिवासी समुदाय के लोग शामिल हैं। इसी आधार पर सुरक्षित की गई यहां की 34 सीटें एससी और 25 सीटें एसटी कोटे में सुरक्षित हैं। 2013 के चुनावी परिणाम के मुताबिक भारतीय जनता पार्टी ने इन 59 सीटों में से 45 सीटें अपने खाते में जीत के तौर पर दर्ज की थीं। जबकि इसी चुनावी साल में कांग्रेस को इन सुरक्षित सीटों पर महज 7 सीटें ही जीत पाई थी। चुनावी परिणाम बताते हैं कि 2018 में जब चुनाव हुए, तो कांग्रेस ने 59 सीटों में से 34 सीटों पर जीत दर्ज कर सत्ता पर कब्जा जमा लिया। जबकि भारतीय जनता पार्टी सिर्फ इक्कीस सुरक्षित सीटें ही जीत सकी।
छत्तीसगढ़ में भी सत्ता की चाबी रहती है दलित और आदिवासियों के पास
छत्तीसगढ़ में तकरीबन 34 फीसदी आबादी आदिवासी समुदाय की है और 11 फीसदी आबादी दलित समुदाय से ताल्लुक रखती है। छत्तीसगढ़ की कुल 90 विधानसभा की सीटों में 39 सीटें सुरक्षित कैटेगरी में आती हैं। यानी यहां की तकरीबन चालीस फीसदी सीटें दलित और आदिवासियों के लिए छोड़ी जाती हैं। इसमें 29 सीटें आदिवासियों के लिए और 10 सीटें दलितों के चुनाव लड़ने के लिए सुरक्षित हैं। छत्तीसगढ़ के चुनावी आंकड़े बताते हैं कि 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने इन 39 सीटों में से 33 सीटें जीतकर सत्ता पर कब्जा किया था। जबकि भारतीय जनता पार्टी को इसी चुनाव में 39 में से महज 6 सीटें ही मिली थीं। राजनीतिक जानकार और वरिष्ठ पत्रकार चंद्रकांत मांगम का कहना है कि छत्तीसगढ़ में दलित और आदिवासियों को अपने साथ जोड़कर कांग्रेस ने तीन बार से लगातार चली आ रही भाजपा की सत्ता को छत्तीसगढ़ से उखाड़ दिया था।
एमपी में सत्ता खिसक गई थी शिवराज की
राजस्थान और छत्तीसगढ़ की तरह मध्यप्रदेश में भी सत्ता की चाबी दलित और आदिवासियों के हाथ में दिख रही है। मध्यप्रदेश में 21 फ़ीसदी आदिवासी और 16 फीसदी दलित की आबादी है। यहां की 230 विधानसभा सीटों में दलित और आदिवासियों के लिए 82 सीटें सुरक्षित हैं। इसमें 47 सीटें आदिवासियों के लिए और 35 सीटें दलितों के लिए सुरक्षित हैं। मध्यप्रदेश के भी आंकड़े बताते हैं कि दलित और आदिवासियों को जिसने अपने हिस्से में कर लिया जीत उसकी ही हुई। 2013 के आंकड़े बताते हैं कि भारतीय जनता पार्टी में 82 सुरक्षित सीटों में से 53 सीटें अपने खाते में करके मध्यप्रदेश में सत्ता बरकरार रखी थी। लेकिन 2018 आते-आते भारतीय जनता पार्टी के खाते से दलित और आदिवासी समुदाय के लोग खिसकने लगे। उसी साल हुए विधानसभा के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी राज्य की 82 सुरक्षित सीटों में से महज 25 सीटों पर ही अपनी जीत सुनिश्चित कर पाए। नतीजा हुआ की 2018 के चुनाव परिणामों में भारतीय जनता पार्टी को राज्य की जनता ने सत्ता से बेदखल कर दिया था। मध्यप्रदेश के आंकड़े बताते हैं 2013 में कांग्रेस 82 में से महज 12 सीटें ही जीत सकी थी। लेकिन 5 साल में कांग्रेस ने 2018 के चुनाव में अपना आंकड़ा 12 से बढ़ाकर 40 कर लिया और सत्ता पर कब्जा जमा लिया।
सियासी जानकारों का मानना है कि राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश की तरह ही तेलंगाना और मिजोरम में भी आदिवासी और दलितों के हाथों में सत्ता की चाबी रहती है। तेलंगाना की 30 फीसदी आबादी दलित और आदिवासी समुदाय से सीधे तौर पर ताल्लुक रखती है। यहां की 119 विधानसभा सीटों में 31 सीटें इन्हीं समुदाय के लिए रिजर्व रखी जाती हैं। इसमें 19 सीटें दलित समुदाय और 12 सीटें आदिवासियों के लिए सुरक्षित हैं। आंकड़े बताते हैं कि 2018 में केसीआर ने ही इस समुदाय की सीटों पर कब्जा करके सत्ता को बरकरार रखा था। मिजोरम की 40 विधानसभा सीटों में आदिवासी समुदाय के हिस्से में आती हैं। जबकि एक सीट सामान्य श्रेणी में आती है। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि 2018 में एमएनएफ इसी समुदाय की सीटों पर सबसे ज्यादा कब्जा कर सत्ता में पहुंचे थे।
सौजन्य :अमर उजाला
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