पसमांदा मुसलमान वृहद् दलित समाज का हिस्सा हैं- सुभाषिनी अली
सुभाषिनी अली
पटना के गांधी पुस्तकालय में 23 सितम्बर को अली अनवर की नई पुस्तक, ‘सम्पूर्ण दलित आन्दोलन – पसमांदा तसव्वुर’ (राज कमल प्रकाशन) का विमोचन, उनके मुस्लिम पसमांदा महाज़ की स्थापना करने के ठीक 25 साल के बाद हुआ। 1997 में उन्होंने अपनी पहली किताब ‘मसावात की जंग’ छापी थी। उन्हें केके बिड़ला प्रतिष्ठान से ‘‘बिहार के दलित मुसलमान’’ पर शोध करने के लिए फेलोशिप मिली थी। उन्होंने बिहार और दिल्ली के तमाम पुस्तकालयों और अभिलेखागारों को छान मारा लेकिन उन्हें इस विषय पर ज्यादा कुछ मिला ही नहीं। लेकिन, अपने जीवन के अनुभवों के ज़रिये वह अच्छी तरह यह जानते थे कि मुसलमानों में भी जाति-उत्पीड़न मौजूद है क्योंकि वह खुद एक ऐसी बिरादरी से थे, जिसे उनके धर्म को मानने वालों द्वारा भी हर तरह से इस उत्पीडऩ का शिकार बनाया जाता है। इसलिए, वह पुस्तकालयों से निकले और अपना शोध शहरी और कस्बाई बस्तियों और गांवों के टोलों में करने में जुट गए। इसी का परिणाम थी, ‘मसावात की जंग’। इस किताब में समाज की सीढ़ी के निचले पायों पर जीने वाले लोगों की कहानियां हैं। इनमें गरीबी और अपमान तो है ही लेकिन इनमें अदृश्य होने का असीम दु:ख भी है। हिन्दू दलितों के उत्पीड़न और वर्णाश्रम-धर्म की सच्चाई तो जगजाहिर है, लेकिन मुसलमान दलितों की पीड़ा को यह कहकर अनदेखा और अनसुना कर दिया जाता है कि इस्लाम में तो जातियां हैं ही नहीं; वह तो मसावात पर आधारित धर्म है। ऐसा केवल हिन्दू समाज के लोग ही नहीं मानते हैं, इसका प्रचार खुद मुस्लिम धर्म के आलिम, धर्मगुरु और बुद्धिजीवी भी करते हैं।
अली अनवर की किताब ने उन पर्दों को चीरकर रख दिया जो मुसलमान दलितों की सचाई को छिपाने के लिए उस पर डाले जाते हैं। उन्होंने इस सच को उजागर किया कि पसमांदा मुसलमान, भारतीय मूल के विभिन्न पेशों से सम्बन्ध रखते हैं जिन्हें सामाजिक उत्पीड़न हज़ारों सालों से बर्दाश्त करना पड़ रहा है। इसी उत्पीड़न से बचने के लिए बहुतों ने इस्लाम धर्म अपना तो लिया, लेकिन उनकी जाति ने उनका साथ नए धर्म में भी नहीं छोड़ा। इस पुस्तक में उन तमाम बिरादरियों का उल्लेख है, जिनके पेशों से जुड़े हिन्दू दलित समुदाय के सदस्य हैं, जैसे धोबी, नट, सफाई-कर्मी, डोम इत्यादि। लेकिन, कुछ बिरादरियों लोग जो मुस्लिम बन गए जैसे बुनकर, उन्हें पिछड़ी जाति में शुमार कर दिया गया है।
अली अनवर की पुस्तक का विरोध कई तरफ से होने लगा। उन्होंने जो दलित मुसलमानों के लिए आरक्षण की मांग उठाई, उसका विरोध हिन्दू समाज के कई हिस्सों से हुआ। साम्प्रदायिक हिन्दुओं ने उलट तर्क दिया कि तब धर्म-परिवर्तन किया ही क्यों था? अब तो घर वापसी कर लेनी चाहिए, आदि। दूसरी ओर, मुसलमानों के एक हिस्से से भी ज़बरदस्त विरोध हुआ। अली अनवर को ‘‘कौम को बांटने’’ वाला कहा गया और बार-बार इस बात की दुहाई दी गयी कि इस्लाम में जाति-विभेद के लिए कोई जगह ही नहीं है। उनपर इस बात का ज़बरदस्त दबाव बनाया गया कि वह अपने दावों को वापस लें या कम से कम किताब लिखने के बाद चुप रहें, मामले को आगे न बढाएं।
लेकिन, किताब तो अली अनवर के लिए केवल एक मुहिम की बुनियाद थी, एक आन्दोलन का आधार थी। उन्होंने 25 अक्टूबर, 1998 को पटना में, विधायक कालोनी के क्लब हॉउस में तमाम पसमांदा जाति के लोगों की बैठक बुलाई, जिसमें बिहार के विभिन्न जिलों के साथ ही उत्तर प्रदेश के लोग भी आये। करीब 200 प्रतिनिधियों के बीच उन्होंने ‘‘पसमांदा मुस्लिम महाज़’’ की स्थापना का एलान किया। काफी जोश-खरोश के साथ लोगों ने इस संगठन का पैगाम बिहार के कोने-कोने में पहुंचाने का फैसला लिया। उत्तर प्रदेश से जो लोग आये थे और उन्होंने भी पूर्वांचल के जिलों में काम करने का फैसला लिया.
बहरहाल, इस संगठन का ठीक से जन्म भी नहीं हुआ था कि इसका गला घोंटने की संगठित तैयारियां शुरू हो गयीं। तमाम बड़े मुस्लिम संगठनों और धर्म गुरुओं ने ज़हर उगलना शुरू कर दिया और घूम-घूम कर इसके खिलाफ प्रचार किया। मुसलमानों के लिए धर्म-विरोधी होने का इलज़ाम बहुत ही गंभीर और काफी खतरनाक माना जाता है, सो इसका इस्तेमाल अली अनवर और उनके पस्मान्दियों के खिलाफ दिल खोलकर किया गया।
पर अली अनवर इस सबके सामने झुके नहीं। उन्होंने अपनी मुहिम को जारी रखा और दलित समाज का हिस्सा माने जाने और आरक्षण के हकदार बनने की मांगों की पैरवी उन्होंने बिना डरे, बिना थके, हर कहीं करने का काम किया।
ऐसा नहीं है कि उनकी बात में दम न हो। डा0 बाबासाहब आंबेडकर ने 1946 में अपने लेख ‘पाकिस्तान या भारत का विभाजन’ में लिखा कि ‘1901 के लिए बंगाल प्रांत के जनगणना अधीक्षक ने बंगाल के मुसलमानों के बारे में ये रोचक तथ्य दर्ज किये हैं: ‘‘मुसलमान दो मुख्य सामाजिक विभाजन मानते हैं 1. अशराफ … और 2. अज्लाफ़। अश्राफ का तात्पर्य है कुलीन और इसमें विदेशियों के वंशज तथा ऊंची जाति के धर्मान्तरित हिन्दू शामिल हैं। व्यवसायिक वर्ग और निचली जातियों के धर्मान्तरित शेष अन्य मुसलमान अज्लाफ़ अर्थात नीच अथवा निकृष्ट माने जाते हैं…कुछ स्थानों पर एक तीसरा वर्ग ‘अर्जाल’ भी है, जिसमें आनेवाले व्यक्ति सबसे नीच समझे जाते हैं। उनके साथ कोई भी अन्य मुसलमान मिलेगा-जुलेगा नहीं और न उन्हें मस्जिद और सार्वजनिक कब्रिस्तानों में प्रवेश करने दिया जाता है। इन वर्गों में भी हिन्दू में प्रचलित जैसी सामाजिक वरीयता और जातियां हैं।’
आगे बाबासाहब लिखते हैं ‘दूसरी और, मुसलमान यह महसूस ही नहीं करते हैं कि ये बुराइयां हैं। परिणामत: वे उनके निवारण हेतु सक्रियता भी नहीं दर्शाते हैं। इसके विपरीत, अपनी मौजूदा प्रथाओं में किसी भी परिवर्तन का विरोध करते हैं।
इसी कमी को पूरा करने का काम अली अनवर और उनके संगठन द्वारा चलाया जा रहा अभियान कर रहे हैं। उनकी मुहिम के दो प्रमुख मांगें हैं: पहली यह कि इस बात को स्वीकार किया जाए कि मुसलमानों में भी दलित जातियां मौजूद हैं। और दूसरी यह कि दलित मुसलमानों को भी अन्य दलितों की तरह नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण मिले।
यहां पर इस बात को समझना ज़रूरी है की दलित मुसलामानों को आरक्षण के अधिकार से कैसे वंचित रखा गया है। संविधान में आरक्षण के प्रावधान (धरा 341) का धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं है। आरक्षण का अधिकार उनको दिया गया है, जो सामजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े और पीडि़त हैं और जिन्हें अस्पृश्यता भी झेलनी पड़ती है। बहरहाल, 1950 में राष्ट्रपति के आदेशानुसार, इस धारा में उप-धरा 3 जोड़ दी गई, जिसके अनुसार आरक्षण का फायदा केवल हिन्दुओं को प्राप्त हो सकता था। गैर-हिन्दू अस्पृश्यों को इसका लाभ नहीं मिल सकता था। फिर 1956 में राष्ट्रपति के एक नए आदेश से सिख धर्म के दलितों को भी आरक्षण का लाभ दे दिया गया और 1990 में इस धारा में फिर संशोधन करके बौद्ध धर्म के दलितों को भी इसका लाभ दे दिया गया।
इसके बाद से लगातार इस बात की मांग उठती रही है कि दलित मुसलमानों और ईसाइयों को भी इस आरक्षण का लाभ मिलना चाहिए। 1998 के बाद से पसमांदा महाज़ ने इस मांग को पुरजोर तरीके से उठाया है। इन प्रयासों का यह नतीजा हुआ कि 2004 में बनी मनमोहन सिंह सरकार ने, रंगनाथ आयोग का गठन इस सवाल का अध्ययन करके अपनी सिफारिशें देने के लिए किया था कि क्या मुसलमान और ईसाई धर्म को मानने वाले भी, दलित समुदाय में आते हैं।
2007 में रंगनाथ आयोग के 4 में से 3 सदस्यों ने इस बात की सिफारिश की कि आरक्षण को धर्म से ऊपर या ‘‘रिलीजन न्यूट्रल’’ किया जाए। उन्होंने यह भी कहा कि संविधान की धरा 314 की उपधरा-3 को हटाने के लिए, संविधान को संशोधित करने की कोई आवश्यकता नहीं है। यह राष्ट्रपति के आदेश से ही किया जा सकता है।
इसी सरकार द्वारा गठित सच्चर कमिटी ने भी इस बात की सिफारिश की थी कि दलित मुसलमानों को अनुसूचित जाति का आरक्षण दिया जाए। यही नहीं, राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग ने प्रो0 सतीश देशपांडे की अध्यक्षता में जो कमेटी गठित की थी, उसने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि ग्रामीण इलाकों में 40′ दलित मुसलमान और 30′ दलित ईसाई गरीबी रेखा के नीचे हैं। उन्होंने बताया था कि ‘मुसलमान और ईसाई बन जाने के बावजूद, उनके साथ सामाजिक भेदभाव जारी है। उन्हें अलग मस्जिद, अलग चर्च में जाने के लिए बाध्य किया जाता है।’
रंगनाथ आयोग और सच्चर कमिटी की सिफारिशों का सीपीआइ(एम) ने दिल खोलकर स्वागत किया था। उन्हें लेकर पार्टी ने देश के हर राज्य में सम्मेलन और अधिवेशन आयोजित किये थे। लेकिन, जिस सरकार ने इन आयोगों को गठित किया था, वही इनकी सिफारिशों को लागू करने की हिम्मत नहीं जुटा पाई। यह वह दौर था जब भाजपा की ताकत लगातार बढ़ रही थी। वह इन दोनों आयोगों की सिफारिशों का डटकर विरोध ही नहीं कर रही थी बल्कि उन्हें ‘‘तुष्टीकरण’’ का उदाहरण करार देकर, साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण बढ़ाने के लिए ही उनका इस्तेमाल कर रही थी। उनके इस अभियान का सामना करने के लिए, मनमोहन सिंह की सरकार और उनकी पार्टी तैयार नहीं थे। दरअसल, सीपीआइ (एम) को छोड़ कोई भी राजनीतिक दल, इन आयोगों की सिफारिशों को लागू करने के के लिए जोर लगाने को तैयार नहीं हुआ। यही नहीं, दलित संगठनों ने भी यह कहकर अपना पल्ला झाड़ लिया कि वे अपने मौजूदा कोटे से मुसलमान और ईसाई दलितों को आरक्षण देने को तैयार नहीं थे। उनकी दलील पूरी तरह से अनुचित भी नहीं है, इसलिए न्यायालय द्वारा आरक्षण पर लगाई गई 50 ‘ की सीमा को समाप्त करने की मांग भी उठाई जा रही है।
पसमांदा मुस्लिम महाज़ की लड़ाई अपने मकसद को प्राप्त चाहे अभी नहीं कर पाई हो, लेकिन उसकी ओर बढऩे में सफल जरूर रही है। आज उसके द्वारा उठाए गए सवाल को नकारना असंभव हो गया है। मुस्लिम समाज के महत्वपूर्ण हिस्सों और नेताओं की ओर से विरोध के स्वर भी, पहले से बहुत धीमे पड़ गए हैं। दलितों के अधिकारों के लिए लडऩे वाले तमाम लोग, अब उनकी मांगों के औचित्य को स्वीकार कर रहे हैं। पिछले साल, 2022 के 5 नवम्बर को दिल्ली में दलित शोषण मुक्ति मंच और अन्य संगठनों द्वारा आयोजित ऐतिहासिक सम्मेलन में, दलित मुसलमानों और ईसाइयों को अनुसूचित जाति के आरक्षण का लाभ देने की मांग का समर्थन किया गया। आरक्षण पर लगी बेतुकी अधिकतम सीमा को हटाने की मांग भी की गयी। यह भी याद रखने लायक बात है कि मंडल आयोग की सिफारिशों के लागू किये जाने के फलस्वरूप, कई मुस्लिम जातियों के सदस्यों को लाभ भी पहुंचा है। वास्तव में इनमें वे जातियां भी शामिल हैं जिन्हें दरअसल दलितों की श्रेणी में होना चाहिए। फिर भी जब जब तक उन्हें दलित की श्रेणी में आरक्षण नहीं मिलता है, तब तक उन्हें कम से कम ओबीसी श्रेणी में होने का लाभ तो मिल रहा है। पसमांदा आन्दोलन के प्रभाव से ही यह संभव हुआ है और भारत में हिन्दू धर्म से इतर धर्मों में भी जाति व्यवस्था के मौजूद होने पर मोहर लग गयी है।
पसमांदा मुस्लिम महाज़ की स्थापना के 25 वर्ष को अली अनवर ने बहुत ही मौजूं तरीके से मनाया। इस अवसर पर उनकी नई किताब का विमोचन हुआ, जिसका शीर्षक है, ‘सम्पूर्ण दलित आन्दोलन – पसमांदा तसव्वुर’। इस मौके पर विशेष रूप से आमंत्रित थे फैज़ान मुस्तफा, प्रो0 रविकांत, संदीप पांडे (सोशलिस्ट पार्टी), बिहार के सरकार के मंत्री, इस्राइल मंसूरी। दलित शोषण मुक्ति मंच की ओर से मैंने भी इस आयोजन में भाग लिया।
पुस्तक का शीर्षक बहुत महत्वपूर्ण है। पसमांदा मुसलमान वृहद् दलित समाज का हिस्सा हैं और इस रूप में उनकी पहचान, दलित आन्दोलन को बल प्रदान करेगी और साम्प्रदायिकता के खिलाफ संघर्ष को और मजबूत करेगी।