‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : नेताओं का गमी, अस्पताल, और दलित-पर्यटन बंद हो, या फोटो खिंचवाना रोका जाए
छत्तीसगढ़ के जांजगीर-चाम्पा इलाके में शराब पीने से एक महिला सहित दो लोगों की मौत हो गई थी। विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष नारायण चंदेल अभी पीडि़त परिवार से मिलने पहुंचे तो वहां की खबर के साथ उनकी तस्वीर भी है। आधा दर्जन लोगों के साथ वे कुर्सियों पर बैठे हुए हैं, सामने बोतल बंद पानी रखा है, और पीडि़त परिवार के सिर मुंडाए लोग सामने खड़े हैं। चूंकि विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष का एक दर्जा होता है, इसलिए आधा दर्जन पुलिस वाले भी आसपास खड़े दिख रहे हैं।
वैसे तो इस खबर और तस्वीर में लोगों को कुछ भी अटपटा नहीं लगेगा, लेकिन जरा सी संवेदनशीलता से इसे देखें तो गमी में शरीक होने पहुंचे नेता जांच कर रहे पुलिस अफसरों के अंदाज में कुर्सियों पर जमकर बैठे हैं, और मृतक परिवार के लोग मुजरिमों की तरह दीनहीन सामने खड़े हैं। अगर यह चुनाव का मौका नहीं भी रहता, तो भी यह नजारा हमें अटपटा लगता कि जो नेता जनता के वोटों पर जिंदा रहते हैं, उनकी जनता की गरिमा और उनकी भावनाओं के लिए जरा भी संवेदनशीलता क्यों नहीं रहती। और अभी तो चुनाव का दौर चल रहा है, नारायण चंदेल प्रदेश के दूसरे सबसे बड़े भाजपा नेता हैं, शायद वे खुद भी विधानसभा चुनाव लड़ें, और उनका यह अंदाज बहुत सी पार्टियों के बहुत से नेताओं का आम अंदाज है। ऐसा लगता है कि दुनिया की सबसे बड़ी, और हिन्दुस्तान की सबसे संपन्न पार्टी, और हिन्दुस्तान के इतिहास की सबसे पुरानी पार्टी, इन दोनों के नेताओं को जनता के साथ मिलने-जुलने, बात करने के तौर-तरीके सिखाने का एक कोर्स होना चाहिए।
पिछले कुछ बरसों से इन दोनों पार्टियों के अलावा और भी कई पार्टियों के नेता छांट-छांटकर दलितों के घर खाने को जाने लगे हैं, और वहां भी उनके लिए अलग से चौकियां लगने लगी हैं, कई जगह सुनाई पड़ता है कि खाना भी बाहर से लाया जाता है। यह सिलसिला दलितों का सम्मान बढ़ाने का नहीं है, उनके राजनीतिक इस्तेमाल का सिलसिला है। दलितों, आदिवासियों, और गरीबों के सबसे हिमायती नेताओं को इस तरह के किसी दिखावे की जरूरत नहीं पड़ती। गरीब के साथ खाना, गरीब जैसा खाना, इसके बजाय अधिक जरूरी यह है कि गरीब के रोज के खाने को किस तरह बेहतर बनाया जा सकता है, यह देखना चाहिए। गरीब की जिंदगी देखना हो, तो जिस तरह राहुल गांधी विदर्भ के खुदकुशी करने वाले किसानों के परिवारों तक बिना किसी लाव-लश्कर के, बिना किसी मुनादी के पहुंचे थे, उस तरह जाकर देखा जा सकता है। लेकिन जब किसी गरीब दलित परिवार में दर्जन भर बड़े नेताओं के लिए दर्जन भर चौकियों पर कपड़ा ढांककर कई तरह का खाना खिलाया जाता है, तो वह दलित-हमदर्दी नहीं रह जाती, वह दलित-पर्यटन हो जाता है। यह पाखंड खत्म करना चाहिए।
हम फिर छत्तीसगढ़ की उसी बात पर लौटें जिसकी वजह से आज इस मुद्दे पर लिख रहे हैं, तो जब लोग किसी परिवार के दुख में शरीक होने पहुंचें, किसी बीमार को देखने अस्पताल पहुंचें, तो उन्हें कैमरे साथ नहीं ले जाना चाहिए। परिवार का अपना दुख है, नेता वहां जाकर उसका नगदीकरण क्यों करवाएं? इसी तरह जब नेता किसी बीमार को देखने पहुंचते हैं तो उन्हें बीमार के बिस्तर तक ले जाने का सिलसिला पूरी तरह बंद होना चाहिए। अपने कई साथियों और चापलूसों के साथ नेता किसी वार्ड में या किसी बीमार के बिस्तर पर पहुंचकर उसे संक्रमण के खतरे के अलावा और कुछ नहीं दे सकते। ऐसे में भी नेता फोटोग्राफर ले जाना नहीं भूलते, और अस्पतालों के ऐसे प्रचार-पर्यटन को भी खत्म करना चाहिए। यह बात अकेले हमारे लिखे अमल में नहीं आएगी, सोशल मीडिया पर लोग जब जहां ऐसी तस्वीर देखें, उसके नीचे इतना लिखें कि नेताओं को यह समझ आ जाए कि उन्हें नाम कम मिल रहा है, बदनामी अधिक हो रही है। जब नेता जनता के दुख के प्रति संवेदनशील न रहें, तो यह जनता की ही जिम्मेदारी हो जाती है कि उन्हें झिंझोडक़र याद दिलाएं कि संवेदनाओं के महज प्रदर्शन के लिए न आएं, बल्कि संवेदनशील होकर भी रहें।
बहुत से नेताओं को हमने देखा है कि किसी मिजाजपुर्सी या किसी गमी में जाने पर वहां भी मीडिया के बात करने पर वे हजार किस्म की राजनीतिक बातें करते हैं। ऐसी खबरों और तस्वीरों पर भी लोगों को जमकर लिखना चाहिए कि किसी एक जगह को तो छोड़ दो, गिद्ध भी पशुओं की लाश खाते हुए कैमरों पर बाईट नहीं देते, कोई बयान जारी नहीं करते, पूरी ईमानदारी से अपना काम करते हैं, और सिर्फ वही करते हैं। चूंकि एक-एक करके अधिकतर राजनीतिक दल संवेदनाशून्य हो चुके हैं, इसलिए जनता को ही इस चुनौती को मंजूर करना पड़ेगा कि वह सार्वजनिक मंचों पर, सोशल मीडिया में इस बात को उठाए कि गिद्धों को भी अपने काम से काम रखना चाहिए, और बीमार या विचलित को इस्तेमाल नहीं करना चाहिए।
लोकतंत्र को सिर्फ राजनीतिक दलों के बीच किस मैच का सामान मान लेने वाली जनता अगर खुद को स्टेडियम के चारों तरफ बैठे दर्शक ही मान लेती है, तो फिर उसे उसी किस्म की सरकार मिलती है। उसे पांच बरस राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप के कीचड़ फेंकने का मैच देखने मिल सकता है, लेकिन अपनी असल जिंदगी की तकलीफों का कोई इलाज नहीं मिल सकता। इसलिए जनता को नेताओं के आरोपों के सैलाब में भी अपनी बुनियादी जरूरतों और अपनी मुद्दों को जिंदा रखना चाहिए, और इसके लिए उसे किसी मीडिया पर भरोसा नहीं करना चाहिए, जो कि अपने खुद के अस्तित्व के लिए नेताओं और सरकारों का मोहताज रहता है। जनता को आज सोशल मीडिया पर मुफ्त में मिली जगह का भरपूर इस्तेमाल करना चाहिए, और नेताओं, पार्टियों, और सरकारों के लिए लगातार दिक्कत खड़ी करनी चाहिए।
लोकतंत्र को सिर्फ राजनीतिक दलों के बीच किस मैच का सामान मान लेने वाली जनता अगर खुद को स्टेडियम के चारों तरफ बैठे दर्शक ही मान लेती है, तो फिर उसे उसी किस्म की सरकार मिलती है। उसे पांच बरस राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप के कीचड़ फेंकने का मैच देखने मिल सकता है, लेकिन अपनी असल जिंदगी की तकलीफों का कोई इलाज नहीं मिल सकता। इसलिए जनता को नेताओं के आरोपों के सैलाब में भी अपनी बुनियादी जरूरतों और अपनी मुद्दों को जिंदा रखना चाहिए, और इसके लिए उसे किसी मीडिया पर भरोसा नहीं करना चाहिए, जो कि अपने खुद के अस्तित्व के लिए नेताओं और सरकारों का मोहताज रहता है। जनता को आज सोशल मीडिया पर मुफ्त में मिली जगह का भरपूर इस्तेमाल करना चाहिए, और नेताओं, पार्टियों, और सरकारों के लिए लगातार दिक्कत खड़ी करनी चाहिए।
सौजन्य : Daily chhattisgarh
नोट : समाचार मूलरूप से dailychhattisgarh.com में प्रकाशित हुआ है ! मानवाधिकारों के प्रति सवेदनशीलता व जागरूकता के उद्देश्य से प्रकाशित !