अपने लोकगीत से दुनिया को हिलाने वाले दलित सिंगर को क्यों छिपानी पड़ी थी अपनी पहचान?
‘तू जिन्दा है तो जिन्दगी की जीत में यकीन कर, अगर है कहीं स्वर्ग तो उतार ला जमीन पर’ यह गाना सबने अपने बचपन में खूब सुना होगा, और सुनकर कुछ कर गुजरने का जज्बा भी मिला होगा. लेकिन क्या आप जानते है इस गाने के गायक की कहानी ? तो आज हम आपके लिए लेकर आए है इस गायक की जीवन के कुछ ऐसे पहलू जो उजागर करना जरूरी है, जिन्होंने अपने जीवन में 800 से भी अधिक गीत गए है, उनके गीतों का अपना ही एक दौर था.
शैलेन्द्र भारती जी अपने समय के महत्वपूर्ण गीतकार थे. जिनके लिखे गीत न केवल भारत में बल्कि पूरी दुनिया में सुने जाते है. उनके गीतों की वजह से ही “आवारा” जैसी फिल्मों को देश विदेशो में लोकप्रियता मिली लेकिन शैलेन्द्र भारती के योगदान को हमेशा ही अनदेखा किया गया. आईये आज हम आपको बतायेंगे कि क्यों शैलेन्द्र भारती को क्यों कोई पुरस्कार नहीं मिला है ? दादा साहेब फाल्के पुरस्कार या भारत रत्न के हकदार गायक को कोई छोटा मोटा पुरस्कार तक क्यों नहीं मिला है ?
पूरा जीवन जातिगत भेदभाव ने शैलेन्द्र जी का पीछा नहीं छोड़ा शैलेन्द्र भारती का जन्म रावलपिंडी के एक दलित परिवार में हुआ था. इनके घर की आर्थिक स्थिति कुछ ठीक न होने की वजह से इन्हें हमेशा ही मुसीबतों का सामना करना पड़ा था लेकिन इनकी जिंदगी का असली सघर्ष तो तब शुरू हुआ जब पिता कि बीमारी और आर्थिक तंगी के कारण पूरा परिवार रावलपिंडी से मथुरा आए, जहाँ इनके बड़े भाई रेलवे में नौकरी करते थे. उनकी आर्थिक स्थिति इतनी इतनी खराब हो गयी थी कि उन्हें और उनके भाइयों के बीडी पीने के लिए मजबूर किया जाता था ताकि उनकी भूख मर जाये. उनके साथ जातिगत भेदभव ने उनके परिवार की आर्थिक स्थिति को ठीक नहीं होने दिया. किसी तरह उन्होंने अपनी पढाई पूरी करने के बाद मुंबई जाने का सोचा, मुंबई जाने का इरादा जब ओर पक्का हो गया, जब हॉकी खेलते समझ कुछ लडको ने इमका मजाक उड़ाते हुए कहा कि “अब ये लोग भी खेलेंगे”. जिससे उन्हें इतना बुरा लगा कि उन्होंने अपनी हॉकी स्टिक तोड़ दी. शैलेन्द्र को यह जातिवाद कमेन्ट बहुत चुभा..
मुंबई में उन्होंने रेलवे में इंजीनियरिंग विभाग में अपरेंटिस के तौर पर काम मिल गया था. लेकिन वर्कशॉप के मशीनों के शौर में और बड़े शहर के चकाचौंध में उनका अन्दर का कवि मरा नहीं. उन्हें कई बार अकेले में बैठे कुछ लिखते देखा जाता था. काम के बाद भारती जी ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ के कार्यालय में चले जाते थे, जो पृथ्वीराज कपूर के रॉयल ओपेरा हाउस के सामने था. यही उनका परिचय राजकपूर से हुआ था, वह राजकपूर की फिल्मों के लिए गीत लिखने लगे. उनके गीत इस कदर लोकप्रिय हुए कि राजकपूर की चार-सदस्यीय टीम में उन्होंने सदा के लिए अपना स्थान बना लिया था. भारती जी ने कुल मिलाकर करीब 800 गीत लिखे और उनके लिखे ज्यादातर गीत लोकप्रिय भी हुए. उन्होंने अपने गीतों से समतामूलक भारतीय समाज के निर्माण के अपने सपने और अपनी मानवतावादी विचारधारा को अभिव्यक्त किया और उन्होंने दबे-कुचले लोगों की आवाज को बुलंद करने के लिये नारा दिया -”हर जोर-जुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा हैष्.
प्रसिद्ध गायक शैलेन्द्र भारती को क्यों अपनी पहचान छुपानी पड़ी ?
शैलेन्द्र जी ने पूरा जीवन जातिगत भेदभाव का सामना किया, जिसके चलते उन्होंने अपनी पहचान छुपा कर रखनी पड़ी. यह बे उस समय की है जब शैलेन्द्र जी राजकपूर की फिल्मों में गाना गया करते थे. उस समय दलितों और मुसलमानों के साथ जातिगत भेदभाव होता था. और उन्हें कोई काम नहीं देता था जिसके चलते शैलेन्द्र जी को अपनी जाति छुपानी पड़ी और अपना नाम बदल कर फिल्मों के एक गायक बना रहा. लोगो को उनकी जाति का पता तब चला जब उनके बेटे ने उनकी एक कविता सग्रह “अन्दर की आग” को प्रकाशित किया. और लोगो के सामने शैलेन्द्र जी की कहानी रखी. उनके साथ हुए जातिगत भेदभाव की दस्ता बयां की लेकिन लोगो के मन से जातिगत भेदभाव नहीं जा सकता.
उनकी जाति और पहचान छुपाने का पता चलते ही लोगो ने उनक विरोध करना शुरू कर दिया और कहा कि उन्होंने सभी साहित्यिक प्रेमियों का अपमान किया है. परन्तु सवाल यह है कि कोई महान शख्सियत अगर दलित हो, तो उसकी जाति पता चलने में क्या दिक्कत है? जब ब्राह्मण या अन्य सवर्ण विभूतियों की जातियों का खुलेआम प्रचार किया जाता है तब तो किसी को आपत्ति नहीं होती, लेकिन किसी दलित विभूति की जाति को उजागर किये जाने का विरोध होने लगता है?
सौजन्य : Nedrick news
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