जाति ही पूछो साधु की, ज्ञान से क्या काम?
किसी ने सही कहा है कि इंसान जन्म के साथ कुछ लेकर नहीं आता। कपड़े तक नहीं। लेकिन पैदा होते ही उसे जाति, धर्म, देश, लिंग, नस्ल सब कुछ बिन मांगे हासिल हो जाते हैं और ज़िंदगी भर उसे न केवल ढोता है, बल्कि उस ढोने पर गर्व भी करता है। जबकि यह महज संयोग है कि आप कहां पैदा होते हैं। मैं जिस परिवार का अंग था और जिस घर में मेरा पालन-पोषण हुआ, उससे बायीं तरफ दो-तीन घर छोड़कर पैदा होता तो मुसलमान होता। घर के पीछे की बस्ती में पैदा होता तो दलित होता। लगभग तीन सौ किलोमीटर पश्चिम में पैदा होता तो देश बदल जाता और पूर्व या दक्षिण में पैदा होता तो राज्य बदल जाता।
जैसे-जैसे बड़ा हुआ, बताया गया कि मैं पुरुष हूं, धर्म से हिंदू हूं, जाति से ओसवाल हूं और मेरा राष्ट्र् भारत है जिस पर मुझे गर्व करना चाहिए। पुरुष इसलिए हूं क्योंकि स्त्री नहीं हूं। हिंदू हूं, इसलिए कि मुसलमान नहीं हूं, ईसाई नहीं हूं। ओसवाल हूं क्योंकि अग्रवाल नहीं हूं, राजपूत नहीं हूं, ब्राह्मण नहीं हूं, दलित नहीं हूं। भारतीय इसलिए हूं कि जिस शहर और राज्य में पैदा हुआ वह भारत नामक देश में है। लेकिन इसमें से कुछ भी मैंने हासिल नहीं किया। ये सब इसलिए मुझे मिला और मेरी पहचान बना क्योंकि मैं एक खास समय, एक खास स्थान और एक खास परिवार में पैदा हुआ।
मेरे ‘मैं’ को जो यह विशिष्ट पहचान मिली, किसी और ‘मैं’ को कुछ और पहचान मिली। और सभी ‘मैं’ की अपनी-अपनी पहचानें महज एक संयोग पर निर्भर हैं कि वह कहां पैदा हुआ, ज़मीन के जिस छोटे टुकड़े पर, जिस मां की कोख से पैदा हुआ, उसने मेरी और उनकी पहचानें तय कर दीं। यही नहीं उसने मेरी और उनकी आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक हैसियत भी तय कर दी, जबकि मैंने और बाकी सबने जन्मते ही जो हासिल किया है, या जिन-जिन से वंचित किया गया है, उसके लिए हम सबने तो कुछ भी नहीं किया। फिर इनमें से किसी भी बात के लिए हमें क्यों गर्व करना चाहिए या शर्मिंदा होना चाहिए या जिनकी वजह से आगे के जीवन में बहुत-सी चीजों से, सुविधाओं, साधनों से क्यों वंचित रखा जाना चाहिए या औरों की तुलना में हमें ज्यादा क्यों मिलना चाहिए।
अन्य पहचानों के साथ जो जातिगत पहचान मिली कि मैं ‘ओसवाल’ हूं, वह कैसे और क्यों हूं। क्या है मेरे में जिसके आधार पर मैं यह कह सकूं कि यह है मेरे में ओसवालपन जिसके कारण मैं ओसवाल हूं। नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं है। ओसवाल इसलिए हूं क्योंकि मेरे माता-पिता ओसवाल हैं और वे ओसवाल इसलिए थे क्योंकि उनके माता-पिता भी ओसवाल थे और मुमकिन है यह सिलसिला कुछ सौ सालों तक पीछे जाता हो। लेकिन सृष्टि के आरंभ से तो असंभव है। जाहिर है कि ओसवाल पुरखों की परंपरा कहीं जाकर खत्म हुई होगी और हमारे पुरखे कुछ और रहे होंगे।
यह भी बहुत संभव है कि वे किसी ऐसी जगह से आये होंगे जिसकी स्मृति तक अब हमें नहीं है। यानी जो स्मृतियां मिट चुकी है, क्या उनका कोई महत्त्व नहीं है? हो सकता है कि हम सबकी कहानियां गोरा (रवींद्रनाथ टैगोर के उपन्यास ‘गोरा’ का नायक गोरा) की तरह हो। आज जिन-जिन पहचानों पर हम गर्व कर रहे हैं, और जिनको हम अपने से भिन्न और निम्न और शत्रु समझ रहे हों, उनका और हमारा डीएनए सबसे नज़दीक हो।
क्या इसे याद नहीं रखा जाना चाहिए कि करोड़ों साल पुरानी इस धरती पर मनुष्य का इतिहास महज कुछ लाख साल पहले का है और जिसे मानव सभ्यता का इतिहास कहा जाता है, वह तो कुछ हजार साल पहले का है और जिन पहचानों पर हम गर्व करते हैं, जिसके लिए हम मरने और मारने के लिए तैयार हो जाते हैं, वह तो कुछ सौ साल पहले मिली पहचानें हैं और कहना मुश्किल हैं कि कितने साल उन्हें आगे आने वाली पीढ़ियां संभाल कर रख पायेंगी।
आज भी तो भाषा को बदलते देख रहे हैं, खानपान बदल रहा है, पहनावा बदल रहा है और एक ही परिवार के जो लोग किसी और शहर में, किसी और राज्य में, किसी और देश में जा बसे हैं, उनकी कितनी पीढ़ियां यह याद रख पायेंगी कि उनके पुरखे कहां से आये थे और वे क्या थे। और इन बदलावों को देखने के लिए हम नहीं होंगे, वैसे ही जैसे हमारे दूरस्थ पुरखे हमारे बदलावों को देखने के लिए हमारे बीच मौजूद नहीं है। क्योंकि करोड़ों साल पुरानी इस धरती पर इस ‘मैं’ का जीवन तो 80-100 साल से ज्यादा का नहीं है। और हमारा अहंकार देखिए कि हमने अपने ‘मैं’ को करोड़ों साल की धरती से ज्यादा बड़ा और ज्यादा लंबा मान लिया है।
ओसवालों की शादियां ओसवालों में होती हैं, वैसे ही जैसे कि कायस्थों की कायस्थों में और ब्राह्मणों की शादी ब्राह्मणों में। इसलिए हमारे एक पीढ़ी पहले तक के सारे रिश्तेदार भी ओसवाल हैं। लेकिन यहीं एक पेच पैदा हो गया है। हम ओसवाल तो हैं लेकिन हमारे सारे ओसवाल रिश्तेदार ओसवाल होने के साथ-साथ जैन भी हैं। जैन हैं यानी कि जैन धर्म के मानने वाले। लेकिन मेरे पिता, दादा, परदादा तो जैन धर्म नहीं मानते थे। वे अपने को हिंदू या वैष्णव कहते थे।
इसका मतलब है, ओसवाल होकर जैन होना कोई अनिवार्यता नहीं है। ओसवाल होकर हिंदू भी हुआ जा सकता है यानी हिंदू धर्म मानते हुए ओसवाल बने रह सकते हैं। लेकिन कोई हिंदू जो ओसवाल नहीं है, क्या वह जैन धर्म मान सकता है। तो मुझे ऐसे जैन साधुओं के उदाहरण बताये गये जो ओसवाल न होकर भी उन्होंने जैन धर्म अंगीकार कर लिया था। इसी तरह यह भी मालूम पड़ा कि बहुत से अग्रवाल भी जैन धर्म का पालन करते हैं। लेकिन फिर यहां पेच था। अग्रवाल और ओसवाल दोनों जैन तो हो सकते हैं, लेकिन उनमें एक दूसरे से शादी नहीं कर सकते क्योंकि उनकी जाति अलग-अलग हैं। शादी में धर्म आड़े नहीं आता, जाति आड़े आती है।
इसका मतलब है कि कोई ओसवाल किसी भी ओसवाल से शादी कर सकता है। नहीं, यहां फिर पेच है। शादी तो ओसवाल में ही होगी, लेकिन अपने गोत्र में नहीं। शादी के लिए जाति का एक होना जरूरी है, लेकिन गोत्र अलग-अलग होना जरूरी है। क्योंकि एक गोत्र के सभी लोग एक दूसरे के भाई-बहन हैं और भाई-बहन की शादी नहीं हो सकती, इसलिए एक गोत्र में शादी भी नहीं हो सकती। इसका मतलब है कि मेरी मां का गोत्र मेरे पिता के गोत्र से अलग है। अलग गोत्र होने के कारण ही उनका विवाह हुआ है।
लेकिन मेरा गोत्र तो वह है जो मेरे पिता और दादा का है। मेरी मां के गोत्र का क्या हुआ जो वह अपने साथ लेकर आयी होंगी? मालूम हुआ कि विवाह के साथ ही मां का गोत्र मां के मायके में ही रह गया। अब वह भी उसी गोत्र की हो गयी जिस गोत्र के मेरे पिता हैं। अपने गोत्र के कारण ही मेरे पिता अपने नाम के साथ ‘पारख’ लिखते थे, अब वह ‘पारख’ मेरी मां के नाम के साथ लगता है, मेरी पत्नी के नाम के साथ लगता है। यानी मेरी मां और पिता का गोत्र अब एक हो गया। मेरी और मेरी पत्नी का गोत्र भी एक हो गया। पुरुष का गोत्र वही रहता है और स्त्री का गोत्र बदल जाता है, क्यों?
अगर यह मान लें कि जाति और गोत्र केवल पहचान है, तो इसका मतलब है कि स्त्री की विवाह के बाद पहचान बदल जाती है। पहले उसकी पहचान अपने पिता से थी, न कि माता से भले ही मां ने उसे नौ महीने अपनी कोख में रखा हो और शादी के बाद उसकी पहचान उसके पति से होगी, भले ही फिर से वह ऐसे बच्चे को जन्म देगी, जो उसकी पहचान लेकर पैदा नहीं होगा, बल्कि पिता की पहचान लेकर पैदा होगा। क्यों?
स्त्री का उदाहरण इस बात का प्रमाण है कि जाति और गोत्र ऊपर से थोपी हुई धारणा है। अगर वह आंतरिक चीज होती तो, वह स्थायी होती और जिसे विवाह के बाद भी बदला नहीं जा सकता था। लेकिन समाज पुरुषों से जाना जाता है, इसलिए जाति और गोत्र पुरुष वर्चस्व की अभिव्यक्ति है। समाज एक ऐसी पितृसत्ता द्वारा संचालित है जिसमें स्त्री सत्ताविहीन है।
जाति और गोत्र में इतनी ही जटिलता नहीं है और भी कई जटिलताएं हैं। वर्णों में श्रेणीबद्धता तो है ही, जाति और गोत्र के अंदर भी श्रेणीबद्धता है। शरतचंद्र के ‘देवदास’ उपन्यास में देवदास के पिता देवदास की शादी पारो से करने के लिए इसलिए तैयार नहीं होते क्योंकि पारो का परिवार ब्राह्मण तो है, लेकिन दर्जे में कमतर है। पारो के परिवार में बेटी के ब्याह में दहेज दिया नहीं जाता बल्कि लिया जाता है। इसलिए पारो के पिता की सामाजिक हैसियत कमतर है।
मुझे अपने बचपन की घटना याद है कि हमारी दादी ने हमारे एक रिश्तेदार से इसलिए संबंध तोड़ लिये क्योंकि उन्होंने बिस्से होकर दस्से परिवार में अपनी बेटी ब्याह दी थी। बिस्से का मतलब अपने ही गोत्र में जिनका सामाजिक मूल्य बीस टक्के के बराबर यानी सबसे ज्यादा है और दस्से वे हैं जिनका सामाजिक मूल्य अपने गोत्र में कमतर है, यानी लगभग आधा।
विडंबना तो यह है कि दलित जातियों में भी श्रेणीबद्धता द्विज जातियों से कम नहीं है। इसके पीछे कहीं न कहीं वही नस्लवादी मनोवृत्ति काम करती है जो अपनी जाति और गोत्र की घेरेबंदी को उसी गर्वभावना से ग्रहण करती है जो नस्लवादी मानसिकता वाला व्यक्ति अपनी नस्ल को लेकर महसूस करता है।
जाति, धर्म, गोत्र आदि इन सबका विज्ञान के लिए कोई अर्थ नहीं है। आप बीमार पड़ते हैं और आपको खून की ज़रूरत होती है तो आपको किसका खून चढ़ेगा, वह न जाति से तय होता है, न धर्म से और न नस्ल से। एक जाति के सभी लोगों का खून एक सा नहीं होता। एक ही धर्म मानने वाले का खून भी एक सा नहीं होता और न ही एक नस्ल के लोगों का खून एकसा होता है। यहां तक कि एक ही परिवार में चार लोग हैं तो बहुत मुमकिन है कि चारों का खून अलग-अलग समूह का हो।
और ऐसे में संकट के समय आपके सबसे नज़दीक व्यक्ति का खून भी आपकी जान नहीं बचा पायेगा। उसके लिए आपको उन दीवारों के पार जाना होगा, जो आपने अपने दिमाग में खड़ी कर रखी हैं। कबीर ने लिखा था कि अगर तूने ब्राह्मण के यहां जन्म लिया है, तो किसी और तरीके से तूने क्यों जन्म नहीं लिया।
जौ तूं बांभन बंभनी जाया। तौ आन वाट ह्वै क्यों नहिं आया।
जौ तूं तुरक तुरकनी जाया। तौ भीतर खतना क्यों न कराया।।
कोरोना वायरस के समय क्या हमारे ऊपर थोपी गयी किसी भी पहचान ने हमारी रक्षा की? ऑक्सीजन की ज़रूरत सभी को समान रूप से थी।
हिंदुओं में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को द्विज कहा गया है यानी जिनका दो बार जन्म होता है। एक जब वह मां की कोख से इस दुनिया में प्रवेश करता है और दूसरा तब जब उसका उपनयन संस्कार होता है। जब तक उपनयन संस्कार नहीं होता और गले में सफेद धागों की जनेऊ धारण नहीं करता तब तक वह ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य नहीं माना जाता। स्त्री चाहे किसी भी वर्ण की क्यों न हो, वह ‘शूद्र’ ही रहती है क्योंकि उसका उपनयन संस्कार नहीं होता। यानी जन्म से सभी मनुष्य स्त्री हो या पुरुष एक ही होते हैं।
जिसे सवर्ण जाति का मानते हैं, वह एक ऐसे बाहरी कर्मकांड की देन है, जिसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। आज ब्राह्मणों को छोड़कर अन्य सवर्ण जाति के अधिकतर लोगों का उपनयन संस्कार नहीं होता, तो भी वे अपने को उसी जाति का मानते हैं जिस जाति में पैदा होते हैं। जबकि बिना उपनयन संस्कार के वे द्विज यानी सवर्ण नहीं होते। सवर्ण परिवार में पैदा हुई स्त्री भी अपने को ब्राह्मण मानती हैं। जबकि वह तो ब्राह्मण है ही नहीं क्योंकि उसका उपनयन संस्कार नहीं हुआ है और न हो सकता है।
विडंबना यह है कि द्विज पुरुष उसके साथ भी कमोबेश वही भेदभाव करते हैं जो गैर सवर्ण जाति के लोगों के साथ करते हैं। वर्णव्यवस्था के अनुसार स्त्री को भी शिक्षा अर्जित करने का अधिकार नहीं है, उसे भी संपत्ति अर्जित करने का अधिकार नहीं है। उसे अपने बच्चों को अपना नाम तक देने का अधिकार नहीं है। वह बिना पहचान के पैदा होती है और पहचान के बिना मर जाती है। यह न भूलें कि हमारे संविधान और संसद ने हिंदू स्त्रियों को जो अधिकार दिये हैं, उनका विरोध सबसे अधिक आरएसएस ने ही किया था जो मनुस्मृति को अपना आदर्श मानता रहा है।
अपने नाम के साथ चिपका जाति सूचक ‘पारख’ से भले ही यह पता न लगता हो कि मैं क्या हूं, बनिया हूं या ब्राह्मण हूं या और कुछ। नाम से इतना जरूर मालूम हो जाता है कि हिंदू हूं। लेकिन यह भ्रम जरूर होता है कि मैं गुजराती हूं। पारख से मिलते जुलते सरनेम गुजरातियों में ज्यादा होते हैं इसलिए जो बिल्कुल नहीं जानते वे गुजराती समझने की भूल करते हैं।
आप बताये या न बतायें लेकिन जब एक बार मालूम पड़ जाता है कि आप बनिये हैं और वह भी कि मारवाड़ी बनिये हैं, तो फिर आपके गुण-अवगुण, आपका चरित्र निर्धारित हो जाता है। भले ही आप अपने आपको वैसा न मानें। भले ही आप स्वयं कोशिश करें कि आप वैसे न दिखें जैसे और बनिये दिखते हैं। यह केवल बनियों के बारे में ही सच नहीं है, शायद सभी जातियों के बारे में सच है।
हिंदू आमतौर पर जाति से व्यक्ति के चरित्र का और उसकी योग्यता का निर्धारण कर लेता है और उसके बारे में अपनी राय भी बना लेता है। दलित चाहे कितना ही प्रतिभावान क्यों न हो, सवर्ण कभी इस बात को स्वीकार नहीं करेगा कि वह प्रतिभावान हो सकता है और उसने जो हासिल किया है, वह अपने बलबूते पर किया है। उसकी नफ़रत और घृणा दलितों की अनुपस्थिति में खुलकर व्यक्त होती है।
सवर्णो में जातिगत पूर्वाग्रह इतना ज्यादा है कि वे सामने दिखने वाली सच्चाई को भी आसानी से अस्वीकार कर देते हैं। मुझे याद है एम ए के अंतिम वर्ष में विदाई समारोह के दौरान जब सभी विद्यार्थियों को टाइटल दिये जा रहे थे तब मुझे मुक्तिबोध की लंबी कविता ‘अंधेरे में’ की निम्नलिखित पंक्तियां दी गयी।
कविता में कहने की आदत नहीं, पर कह दूं
वर्तमान समाज चल नहीं सकता
पूंजी से जुड़ा हुआ ह्रदय बदल नहीं सकता।
जाहिर है कि जिन सहपाठियों ने मुझे यह प्रमाणपत्र दिया शायद यह सोचते हुए कि ‘तुम अपने आपको चाहे जो समझते हो, लेकिन तुम्हारा ह्रदय पूंजी से जुड़ा हुआ है, क्योंकि तुम जाति से बनिये हो और इसलिए रहोगे तो बनिये के बनिये ही यानी पूंजीपति। एक मामूली प्रिंटिंग प्रेस चलाने वाले संयुक्त परिवार से मेरा संबंध था, जिसमें मेरे दादा-दादी, माता-पिता और तीन चाचाओं (जिनमें से सबसे बड़े चाचा रेलवे में क्लर्क थे) का परिवार शामिल था। उस प्रेस से होने वाली कुल आमदानी से 22 लोगों का परिवार चलता था।
हम गरीब नहीं थे, लेकिन हमारी हैसियत कुल मिलाकर निम्न-मध्यवर्ग और मध्यवर्ग की सीमा रेखा पर थी। हमारे माता-पिता पढ़ाई पर जोर इसलिए देते थे क्योंकि उस प्रिंटिंग प्रेस में और परिवारों का बोझ ढोने की क्षमता नहीं थी। हमसे यही उम्मीद थी कि पढ़-लिखकर नौकरी करेंगे और बोझ कुछ कम होगा। मेरे साथ पढ़ने वाले मित्रों जैसी ही माली हालत हमारी भी थी। और यह बात मित्रों से छुपी हुई नहीं थी।
उसके बावजूद उस समय उन सहपाठियों को मेरा वर्ण और मेरी जाति ही याद आयी और ऐसे में मुक्तिबोध की उपर्युक्त पंक्तियों से बेहतर क्या हो सकता था, यह याद दिलाने के लिए कि तुम्हारी असलियत यह है। मैंने अतिशिक्षित और अपने को प्रगतिशील और आधुनिक मानने वाले सहकर्मियों के मुंह से यह तर्क बार-बार सुना है कि जब सब लोग हमें जाति के चश्मे से ही देखते हैं, तो अपने को अपनी जाति से अलग दिखाने की क्या तुक। अगर हमारी सोच यह है तो इसके बाद हमारे व्यवहार, हमारे संबंध, हमारे फैसलों में जातिगत पक्षपात और भेदभाव प्रतिबिंबित हो तो क्या आश्चर्य।
चालीस साल से अधिक लंबे शिक्षक जीवन में ऐसे बहुत कम लोग मिले जो जातिवादी पूर्वाग्रहों और दुराग्रहों से पूरी तरह मुक्त हो या उसके लिए कोशिश करते हों। यह जरूर है कि अध्यापक अपने इन आग्रहों को ज्यादा चालाकी से छुपाने में माहिर होता है। शिक्षक और शिक्षित समुदाय की इन प्रवृत्तियों को देखकर रघुवीर सहाय की ‘स्वाधीन व्यक्ति’ कविता का निम्नलिखित अंश अनायास याद आ जाता है:
हो सकता है कि लोग लोग मार तमाम लोग
जिनसे मुझे नफ़रत है मिल जाएं, अहंकारी
शासन को बदलने के बदले अपने को
बदलने लगें और मेरी कविता की नकलें
अकविता जाएं। बनिया बनिया रहे
बाम्हन बाम्हन और कायथ कायथ रहे
पर जब कविता लिखे तो आधुनिक
हो जाए। खीसें बा दें जब कहो गा दे।
ज़िंदगी में कुछ सुखद संयोग भी हुए जिसके कारण जाति का दबाव अपेक्षाकृत कम रहा। जोधपुर के जिस मोहल्ले में घर था, वहां तीन-चार घर ही बनियों के थे। ज्यादातर घर मुसलमानों के थे। जिस स्कूल में पढ़ा वह भी गैर-बनियों और गैर-द्विजों का स्कूल था और साथ पढ़ने वाले ज्यादातर विद्यार्थी भी अलग-अलग समुदायों से थे। कॉलेज और विश्वविद्यालय में भी यही स्थिति रही। अमरोहा का कॉलेज जरूर बनियों का था लेकिन जो निकटस्थ मित्र थे, वह बनिये नहीं थे और शहर में जिन कॉमरेडों के साथ उठना-बैठना था, उनमें मुसलमान, ब्राह्मण, दलित, ओबीसी आदि ही ज्यादा थे। यही स्थिति इग्नू में रही।
मैंने कभी यह सोचकर किसी को मित्र नहीं बनाया कि वह मेरी जाति का है, मेरे शहर का है या मेरे राज्य का है। जो स्वाभाविक रूप से दोस्त बना, उसी के साथ दोस्ती निभी भी और उसमें स्वभाव और विचारधारा की भूमिका सबसे ज्यादा थी। अपनी अब तक की ज़िंदगी में मैंने किसी आरएसएस वाले को अपना दोस्त नहीं बनाया। घनघोर रूढ़िवादी और अंधविश्वासी लोगों से भी कभी पटरी नहीं बैठी। और मेरे कंधे पर जिस किसी ने यह सोचकर हाथ रखा कि यह हमारी जाति का है, उनके हाथ को कंधे से हटाने में देर नहीं की।
सौजन्य : Janchowk
नोट : समाचार मूलरूप से janchowk.com में प्रकाशित हुआ है ! मानवाधिकारों के प्रति सवेदनशीलता व जागरूकता के उद्देश्य से प्रकाशित !