दलित महिला : सिनेमाई चित्रण और ज़मीनी हक़ीकत
दलित महिला : सिनेमाई चित्रण और ज़मीनी हक़ीकत – सिनेमा समाज का आईना होता है। ऐसा कहा जाता है। धूल भरा ही सही, आईना तो होता ही है।
पिछले दो दिनों में एक फिल्म “कटहल – ए जैकफ्रूट स्टोरी” और एक वेब सीरीज “दहाड़” देखा। वैसे तो दोनो फिल्में अलग–अलग कहानियाँ दर्शाती हैं पर उनमें एक चीज़ कॉमन है- प्रोटाग्निस्ट दलित महिला पुलिस इंस्पेक्टर है। इन दोनों सिनेमा को देखने के बाद ये समझ आता है कि हम समाज के तौर पर कितना विकसित हुए हैं। क्या हम सिर्फ क़िताबों में विकसित हो रहे हैं? या ज़मीनी हक़ीकत भी क़िताबों से मेल खा रही है?
पिछले कुछ दिनों से महिला बिल भी चर्चा में है। इसमें भी एक पक्ष इस बात पर ज़ोर दे रहा है कि संख्या के हिसाब से हिस्सेदारी सुनिश्चित की जाए। दूसरा पक्ष इस बात पर कि आरक्षण में भी आरक्षण कैसे संभव है। विकसित समाज की क्या परिभाषा है? और वास्तव में क्या परिभाषा होनी चाहिए? इस पर एक बार पुनः विचार करना होगा। इस देश के प्रत्येक नागरिक को उचित सम्मान मिले यह सुनिश्चित करना ही होगा।
सौजन्य : Mahamana news
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