दलित साहित्य की भाषा मिट्टी की भाषा है – लक्ष्मण गायकवाड़
साहित्य अकादेमी द्वारा दो दिवसीय अखिल भारतीय दलित लेखक सम्मेलन का आयोजन किया गया. सम्मेलन के पहले दिन तेलुगु के प्रख्यात विद्वान और लेखक के. इनोक ने कहा कि हमें दलित नहीं बल्कि अपने को भारतीय कहना चाहिए और हम देश के संविधान के अनुसार सम्मान, न्याय और रोजगार पाने के हकदार हैं.
उन्होंने कहा कि भारतीय इतिहास में हमें बराबरी का दर्जा पाने के लिए एक लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी है. लेकिन भारत के विकास में हमारे योगदान को नकारा नहीं जा सकता. अतः अब हमें दलितों और गैर दलितों के संपर्क में आकर अपने अनुभवों को विस्तृत करना चाहिए, उसी से कालजयी दलित साहित्य का निर्माण होगा.
प्रख्यात हिंदी आलोचक बजरंग बिहारी तिवारी ने कहा कि दलित साहित्य की मात्र कोई एक परंपरा नहीं है बल्कि यह वैविध्यपूर्ण है. ऐसा इसलिए है क्योंकि अलग-अलग भाषाओं से आने के कारण उसकी जड़ें अलग-अलग स्थानों से मिलकर एक अखिल भारतीय दलित साहित्य का स्वरूप बनाती हैं. उन्होंने दलित साहित्य की दूसरी विशेषता एकत्व की तरफ इशारा करते हुए कहा कि इस एकत्व के सहारे ही हमारा समाज बराबरी वाला बनेगा.
बजरंग बिहारी तिवारी ने दलित साहित्य के सामने तीन चुनौतियों का जिक्र करते हुए कहा कि पहले हमें हिंसा, चाहे वह भाषा के स्तर पर हो, हाव-भाव के रूप में हो या फिर शारीरिक, से बचना और प्रतिकार करना है. उनका दूसरा बिंदु प्रेम था, जोकि समता और न्याय के बाद उत्पन्न होता है. तीसरी चुनौती के रूप में नई पीढ़ी को आंदोलन से जोड़ने के तरीकों पर बात करते हुए कहा कि हमें नई पीढ़ी को भविष्योन्मुखी बनाना है, न कि अतीतोन्मुखी. उन्होंने कहा कि दलित साहित्य को ऐसी भाषा को बनाना है जो समावेशी हो. उन्होंने ओमप्रकाश वाल्मिकी की कहानी ‘सलाम’ का उल्लेख करते हुए यह बात कही.
बजरंग बिहारी तिवारी ने इस यात्रा के लिए एक व्यापक आंदोलन की बात कही और कहा कि यह संघटन के बिना संभव नहीं है.
साहित्य अकादमी के सचिव के. श्रीनिवासराव ने कहा कि भारत में संतों की एक लंबी और प्रतिष्ठित परंपरा रही है, जिन्होंने हर तरीके की असामनता का लगातार विरोध किया. उन्होंने आधुनिक दलित साहित्य पर बाबासाहेब आम्बेडकर के प्रभाव का उल्लेख करते हुए कहा कि उन्होंने इस आंदोलन को नई दृष्टि प्रदान की है.
कार्यक्रम का प्रथम सत्र प्रसिद्ध लेखक लक्ष्मण गायकवाड़ की अध्यक्षता में संपन्न हुआ. इस सत्र में जयदीप सारंगी ने अंग्रेजी और मोहन परमार ने गुजराती भाषाओं में दलित साहित्य की वर्तमान स्थिति और उसकी चुनौतियों पर बात की. जयदीप सांरगी ने कहा कि भारत की अन्य देशी भाषाओं के पास दलित साहित्य की परंपरा थी जबकि भारतीय अंग्रेजी के साथ ऐसा कुछ भी न था. उसे अपनी जमीन खुद तैयार करनी थी इसलिए अब जाकर उसने अपनी एक स्थिति तैयार की है. उन्होंने दलित साहित्य के दस्तावेज़ीकरण की जरूरत पर जोर देते हुए कहा कि इसमें साक्षात्कार एक महत्त्वपूर्ण घटक के रूप में है, जिन्हें संगृहीत और विश्लेषण करना आवश्यक है.
मोहन परमार ने गुजराती दलित साहित्य की चुनौतियों पर बात करते हुए कहा कि 47 साल का गुजराती साहित्य 1981 के आरक्षण आंदोलन से एक नई चुनौती पाकर आगे बढ़ा है. उन्होंने गुजराती दलित साहित्य की वर्तमान स्थिति को संतोषजनक मानते हुए कहा कि उसके सृजन में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी उत्साहवर्धक है.
प्रख्यात मराठी लेखक लक्ष्मण गायकवाड़ ने कहा कि दलित साहित्य ही मानवता का साहित्य है और यह हमेशा मानवता को महत्त्व देता है. दलित साहित्य ने हमेशा समाज को जोड़ने का काम किया है. आगे भी करता रहेगा. दलित साहित्य की भाषा मिट्टी की भाषा है, यहां के मूल निवासियों की भाषा है.
सम्मेलन का एक सत्र कहानी-पाठ का था. इस मौके पर जो. पी. शिवकामी, पीतांबर तराई ने ओड़िआ, राकेश वानखेड़े ने मराठी और शिवबोधि ने राजस्थानी कहानी का पाठ किया. कार्यक्रम का संचालन साहित्य अकादमी के संपादक (हिंदी) अनुपम तिवारी ने किया.
सौजन्य : News18
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