गुजरात में परंपरा है ‘दलित शोषण’ … आज ख़ुद को कहां पाते हैं दलित?
वो कहते हैं हम विदेशों जैसी सड़कें बनवा देंगे, बेरोज़गारी को जड़ से ख़त्म कर देंगे, बुलेट ट्रेन चलवा देंगे… और न जाने क्या-क्या। लेकिन इन जुमलाग्रसित वादों से दूर चुनाव आते ही राजनीतिक दल जातियों के समुंदर में गोता लगा ही देते हैं। विकास के रोडमैप को तैयार करने से ज्यादा पार्टियां जातियों की गुत्थी सुलझाने के लिए बड़े-बड़े और महंगे राणनीतिकार नियुक्त करती हैं, और पता लगा लेती हैं कि राज्य के किस क्षेत्र में ब्राह्मणों-ठाकुरों की चरणवंदना करनी है, और किस क्षेत्र में मुसलमानों और दलितों की तारीफ।
इसमें भी दलितों की तारीफ चुनाव खत्म होते ही खत्म हो जाती है, और फिर वही घोड़ी चढ़ने पर हत्या और दूध के लिए गाय खरीदने तक पर उनकी चमड़ी उतार लेने का दौर शुरू हो जाता है।
ख़ैर… अब इन दलितों की झूठी तारीफ गुजरात में शुरू हो चुकी है।
इतिहास गवाही देता है कि गुजरात की राजनीति में दलितों की भागीदारी तो बहुत कम है, लेकिन डंडों और तलवारों पर सबसे पहले उनका ही नाम लिखा जाता है। इसका एक कारण ये भी है कि राज्य में दलितों की संख्या महज़ सात फीसदी है, ऐसे में राजनीतिक दलों को इनकी ज्यादा ज़रूरत नहीं होती। लेकिन पिछले एक दशक में दलितों ने ख़ुद के संघर्ष से अपना नेता भी बनाया है और अपनी उपस्थिति भी दर्ज कराई।
साल 2016 की बात कर लें तो गुजरात के ऊना में कुछ दलितों ने मरी हुई गाय का चमड़ा निकाला था, जिसके बाद सवर्णों ने इसे कुकर्म घोषित कर इसे नज़ीर बनाने की कोशिश की और उन दलित युवकों की ऐसी बेहरम पिटाई की, जिसे देख हर किसी का कलेजा कांप गया।
आरोपियों के खिलाफ जब किसी तरह की कोई कठोर कार्रवाई नहीं हुई तब दलित समाज ने मरी हुई गायों को सरकारी दफ्तरों के सामने फेंककर कहा कि तुम अपनी गाय संभालो, हमें हमारी ज़मीन दो। इस घटना के बाद गुजरात समेत पूरे देश में भाजपा के खिलाफ विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए। यहीं से दलितों का एक युवा नेता जिग्नेश मेवाणी निकलकर सामने आया, जो मौजूदा वक्त में कांग्रेस प्रदेश के कार्यकारी अध्यक्ष हैं।
वैसे तो गुजरात का इतिहास रहा है कि बहुसंख्यक पटेलों के सामने दलितों की चर्चा कभी भी ज्यादा नहीं हुई, एनडीटीवी की एक रिपोर्ट कहती है कि आजादी के बाद 1952 के सौराष्ट्र भूमि सुधार अधिनियम ने इलाके के सामाजिक स्वरूप को बदल डाला, और इसके तहत किराये पर काम करने वाले किसानों, जिसमें मुख्य तौर पर पटेलों को ज़मीन पर कब्ज़े का अधिकार दे दिया गया, और उसके बाद उन्होंने कपास और मूंगफली जैसी ‘कमाऊ’ चीज़ों की खेती कर राज्य का सबसे रईस और सबसे प्रभावशाली समुदाय बनने में कामयाबी हासिल की…
लेकिन इसके बिल्कुल उलट, सवर्णों के प्रभुत्व वाली नौकरशाही और राजनैतिक नेतृत्व ने इस बात का पूरा ध्यान रखा कि कहीं सरकारी रिकॉर्ड में आदिवासियों और दलित खेतिहरों के नाम कोई ज़मीन दर्ज न हो जाए, जबकि वो उन्हें आवंटित की जा चुकी थी, इस तरह की धोखाधड़ी को बरकरार रखने की कोशिशें लगातार जारी रहीं।
आपको बता दें कि गुजरात में करीब 12,500 गांव ऐसे हैं, जिनमें दलित बसते हैं… साल 1996 में उत्तरी गुजरात के सुरेंद्रनगर जिले में बसे इन्हीं में से 250 गांवों में एनजीओ नवसर्जन ट्रस्ट द्वारा किए गए एक सर्वे में पाया गया था कि सरकार द्वारा अनुसूचित जातियों के लिए अलग से रखी गई 6,000 एकड़ ज़मीन चार दशक बीत जाने के बावजूद दलितों के नाम स्थानांतरित नहीं की गई है।
लेकिन 60 के दशक में सौराष्ट्र में दलितों और अन्य पिछड़ी जातियों ने लगभग 2 लाख एकड़ गोचर (चरागाह) पर कब्ज़ा कर लिया था, जो सरकार ने रजवाडों से हासिल की थी… तब इसी आंदोलन के वक्त दलित पहली बार राज्य में पटेलों के सामने आकर खड़े हुए थे। इस आंदोलन के बाद ये कहा जाने लगा था कि गुजरात में दलितों का भी वर्चस्व है।
गुजरात की राजनीति में वैश्यों, ब्राह्मणों और पाटीदारों के वर्चस्व को एक और गहरी चोट लगी साल 1980 में, जब कांग्रेस ने क्षत्रियों, हरिजनों (दलितों), आदिवासियों और मुसलमानों को गठजोड़ कर खाम (KHAM) थ्योरी तैयार की। इस थ्योरी ने सवर्णों का एकाधिकार तोड़कर रख दिया। नतीजा ये रहा कि जनता पार्टी की सरकार गिर गई और कांग्रेस के दिग्गज नेता माधव सिंह सोलंकी फिर से मुख्यमंत्री बन गए।
गुजरात में लागू हुई ये खाम थ्योरी, और दलितों के उदय का ही नतीजा था जो पहली बार गुजरात के एक दलित नेता योगेंद्र मकवाना को केंद्रीय मंत्रिमंडल में जगह मिली, और केंद्रीय गृह राज्य मंत्री बनाया गया। इतना ही नहीं इस मंत्रिमंडल में एक आदिवासी अमर सिंह चौधरी को भी कैबिनेट में शामिल किया गया। मुख्यमंत्री माधव सिंह सोलंकी की ओर से आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़ों को दिए गए आरक्षण का ही नतीजा था कि अगड़ी जातियों ने 1981 और 1985 में आरक्षण विरोधी आंदोलन के ज़रिए सरकार की पिछड़ा राजनीति पर वार किया। रिपोर्ट्स बताती हैं कि इस विरोध प्रदर्शन में 300 से ज्यादा दलितों का हत्या कर दी गई थी। यही कारण रहा कि राज्य में दलितों का उदय होते-होते रह गया, और कई दशकों तक ऐसा ही चलता रहा।
जब 90 का दशक खत्म हुआ और साल 2002 आया, तब तक गुजरात की राजनीति पूरी तरह से बदल चुकी थी। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में पूरा गुजरात भाजपा का किला बन चुका था। जिस सूबे में कभी खाम जैसे जाति कार्ड खेले गए उसे भाजपा ने हिंदुत्व की प्रयोगशाला बना कर रख दिया। हिंदुत्व की इस प्रयोगशाला में फिलहाल सवर्णों का बोलबाला ही दिखाई पड़ता है। जिसके लिए पिछले दिनों छोड़े गए बिलकीस बानो के बलात्कारियों का उदाहरण काफी है।
इस उदाहरण में छिपी राजनीति को और सच कर दिखाया सत्ताधारी भाजपा ने, दरअसल भाजपा ने गुजरात की गोधरा सीट से सीके राउलजी को टिकट दिया है। सीके राउलजी वही हैं, जिन्हें बिलकिस बानो मामले में दोषियों को ब्राह्मण होने की वजह से संस्कारी बताया था।
ख़ैर… मौजूदा वक्त की राजनीति और आने वाले चुनाव में भाजपा, कांग्रेस और आम आदमी पार्टी… दलितों की ओर भी विशेष ध्यान दे रही हैं। क्योंकि साल 2017 के विधानसभा चुनावों में सीटों के बंटवारे से जहां भाजपा को इस बार डर होगा, तो कांग्रेस को आस होगी कि थोड़े और वोट बटोरकर वो सरकार बना सकती है। इसके अलावा आम आदमी पार्टी दोनों मुख्य दलों के खिलाफ प्रचार कर खुद को स्थापित करने की कोशिश में लगी है।
सौजन्य : News click
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