क्या एक ब्राह्मण की लिखी किताब का संदर्भ देने पर दलित प्रोफेसर के खून के प्यासे हो गए कथित हिन्दू संगठन ?
लखनऊ यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर रविकांत के खिलाफ RSS से सम्बद्ध अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (ABVP) के कार्यकर्त्ता हाथ धोककर क्यों पड़े हैं? जरूर इन दिनों आपके मन में भी यह सवाल आया होगा। या यूँ कहे की क्या किसी अनुसूचित जाति के बुद्धिजीवी को बोलने के अधिकार प्रतिबन्ध लगाया जा रहा है, एक ऐसी भीड़ का निर्माण किया जा रहा है जिसकी बोलने-समझने की शक्ति ख़त्म हो गयी है जो किसी की भी हत्या करने को उतावला है।
बनारस में काशी विश्वनाथ मंदिर से सटी ज्ञानवापी मस्जिद इनदिनों चर्चा के केंद्र में है। दावा किया जा रहा है कि भोलेनाथ के प्राचीन मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनाई गई थी। पिछले साल 5 महिलाएं कोर्ट पहुंच गईं और मस्जिद परिसर में श्रृंगार गौरी मंदिर में पूजन की इजाजत के साथ सर्वे की मांग की। विश्वनाथ मंदिर को तोड़ने और मस्जिद बनवाने के बारे में अलग-अलग कहानियां प्रचलित हैं। ज्यादातर बातें औरंगजेब के समय मंदिर को तोड़े जाने का आदेश दिए जाने की होती हैं।
ऐसे ही विषय पर चर्चा के दौरान जब एक दलित प्रोफेसर ने उस किताब का संदर्भ दिया जिसे पट्टाभिसीतारमैया ने लिखा जिन्हे भोजराजू पट्टाभि सीतारमैया. लोग इन्हें पट्टाभि सीतारमैया के नाम से जानते हैं। अपने जीवनकाल में सीतारमैया ने कई क्षेत्रों में काम किया।
एक डाॅक्टर, एक पत्रकार, एक स्वतंत्रता सेनानी कई तरह से लोग इन्हे जानते है। लेकिन त्रिपुरी अधिवेशन में सीतारमैया का नाम बहुत चर्चा में आया। 1939 के त्रिपुरी अधिवेशन में कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव में पट्टाभि सीतारमैया महात्मा गांधी समर्थित कांग्रेस कैंडीडेट थे, लेकिन सुभाष चंद्र बोस से बुरी तरह हार गए थे।
काशी विश्वनाथ मंदिर से सटी ज्ञानवापी मस्जिद का पट्टाभि सीतारमैय्या की किताब में जिक्र
कांग्रेस के अध्यक्ष रहे पट्टाभि सीतारमैय्या की किताब का सबसे ज्यादा जिक्र होता है। 1942 से 1945 के दौरान जेल में रहने के दौरान उन्होंने एक जेल डायरी लिखी थी। 1946 में यह Feathers And Stones के नाम से छपी। इसमें उन्होंने दो पन्नों में ज्ञानवापी मस्जिद के बारे में लिखा है।
हालांकि हिंदू पक्ष काशी विश्वनाथ मंदिर के बारे में उनकी बात को फर्जी और मनगढ़ंत कहता है। पट्टाभि ने अपने एक मौलाना मित्र की पांडुलिपि का जिक्र करते हुए बड़ा दावा किया था। पट्टाभिसीतारमैया की पुस्तक ‘फीदर्स एंड स्टोन्स’ में विश्वनाथ मंदिर को तोड़े जाने संबंधी औरंगजेब के आदेश और उसकी वजह के बारे में लिखा गया है।
जिसके संदर्भ उस दिन चर्चा में लखनऊ विश्वविद्यालय (Lucknow University) के प्रोफेसर रविकांत दिया जिसके बाद से RSS से सम्बद्ध अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (ABVP) के कार्यकर्ता कथित तौर पर उनके खून के प्यासे है।
पट्टाभिसीतारमैया ने लिखा है
‘एक बार औरंगजेब बनारस के पास से गुजर रहे थे। सभी हिंदू दरबारी अपने परिवार के साथ गंगा स्नान और भोलेनाथ के दर्शन के लिए काशी आए। मंदिर में दर्शन कर जब लोगों का समूह लौटा तो पता चला कि कच्छ की रानी गायब हैं। अंदर-बाहर, पूरब, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण में तलाश की गई लेकिन उनके बारे में कोई जानकारी नहीं मिली। सघन तलाशी की गई तो वहां एक तहखाने का पता चला। मंदिर के नीचे की गुप्त जगह के बारे में लोगों को जानकारी हुई। आमतौर पर वह मंदिर देखने से दो मंजिला दिखाई देता था। तहखाने में जाने वाला रास्ता बंद मिला, तो उसे तोड़ दिया गया। वहां बिना आभूषण के रानी दिखाई दीं। पता चला कि यहां महंत अमीर और आभूषण पहने श्रद्धालुओं को मंदिर दिखाने के नाम तहखाने में लेकर आते और उनसे आभूषण लूट लेते थे। इसके बाद उनके जीवन का क्या होता था, पता नहीं। हालांकि इस मामले में सघन तलाशी अभियान फौरन चलाया गया और रानी को ढूंढ लिया गया।
औरंगजेब को जब पुजारियों की यह काली करतूत पता चली तो वह बहुत गुस्सा हुआ। उसने घोषणा की कि जहां इस प्रकार की डकैती हो, वह ईश्वर का घर नहीं हो सकता। और मंदिर को ध्वस्त कर दिया गया। लेकिन जिस रानी को बचाया गया उन्होंने मलबे पर मस्जिद बनाने की बात कही और उन्हें खुश करने के लिए एक मस्जिद बना दी गई। इस तरह काशी विश्वनाथ मंदिर के बगल में मस्जिद अस्तित्व में आया…. बनारस मस्जिद की यह कहानी लखनऊ में एक नामचीन मौलाना के पास दुर्लभ पांडुलिपि में दर्ज थी मौलाना ने इसके बारे में सीतारमैय्या के किसी दोस्त को बताया था और कहा था कि जरूरत पड़ने पर पांडुलिपि दिखा देंगे। बाद में मौलाना मर गए और सीतारमैय्या का भी निधन हो गया।
सीतारमैय्या की इसी कहानी का संदर्भ लखनऊ विश्वविद्यालय (Lucknow University) के प्रोफेसर रविकांत दिया था जिसके बाद कथित दक्षिणपंथी संगठन उनकी हत्या तक करने का प्रयास किया। प्रो.रविकांत की जानमाल की सुरक्षा को लेकर लखनऊ ही नहीं देश भर से चिंता ज़ाहिर की गयी है। इस संदर्भ में लखनऊ के तमाम बुद्धिजीवियों ने पहलकदमी लेते हुए एक अपील जारी की जिसे देश भर से समर्थन मिला।
सवाल ये है कि क्या अब ऐसी किताबों को पढ़ना, पढ़ाना या उनका ज़िक्र करने भी ‘देशद्रोह’ हो जाएगा जो हिंदुत्ववादी ताक़तों की सोच-समझ के साथ तालमेल नहीं रखतीं।
ऐसे में डा.आंबेडकर के साहित्य का क्या होगा। क्या उनकी 22 प्रतिज्ञाओं की कोई चर्चा कर पाएगा जिसमें पहली ही प्रतिज्ञा राम, कृष्ण आदि देवताओं को न मानने की है। क्या एबीवीपी या संघ परिवार डॉ.आंबेडकर को देशद्रोही बतायेंगे?
सौजन्य : Thenetizennews
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