हाईकोर्ट का आदेश : सीएए-एनआरसी के खिलाफ प्रदर्शनकारियों को हिरासत में रखने का आदेश रद्द
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सीएए-एनआरसी के खिलाफ प्रदर्शन करने वाले छह लोगों को हिरासत में रखने का आदेश रद्द कर दिया है। मामले की सुनवाई कर रहीं जस्टिस सुनीता अग्रवाल और जस्टिस साधना रानी (ठाकुर) की पीठ ने बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाओं का निस्तारण करते हुए यह फैसला सुनाया। याचिकाकर्ताओं पर हिंसक प्रदर्शन में शामिल होने का आरोप लगाकर राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (एनएसए) के तहत 16 दिसंबर 2019 से हिरासत में रखा गया था।
याचिकाओं में जिला मजिस्ट्रेट मऊ द्वारा छह व्यक्तियों को हिरासत में रखने के आदेश को रद्द करने के लिए निर्देश देने को कहा गया था। याचिकाओं में राज्य सरकार के उस आदेश को रद्द करने की भी मांग की गई थी, जिसमें उनकी हिरासत की अवधि तीन महीने और बढ़ा दी गई थी। मऊ में 16 दिसंबर 2019 को एनआरसी-सीएए कानूनों के खिलाफ हिंसक विरोध प्रदर्शन हुए थे। याचिकाकर्ताओं सहित कई लोगों के खिलाफ प्रदर्शनों में शामिल होने के मामले में एफआईआर दर्ज की गई थी।
हाईकोर्ट ने हिरासत को अवैध माना
पुलिस अधीक्षक मऊ ने वर्तमान याचिकाकर्ताओं के खिलाफ एनएसए के तहत कार्रवाई करने की सिफारिश जिला मजिस्ट्रेट मऊ को भेज दी गई थी। जिला मजिस्ट्रेट मऊ ने राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (एनएसए) की धारा 3 (2) के तहत तीन सितंबर 2020 को निरोध आदेश पारित कर दिया था। यह भी तर्क दिया गया कि याचिकाकर्ता इलाहाबाद हाईकोर्ट में जमानत अर्जी दायर करके गैंगस्टर एक्ट के तहत उनके खिलाफ (जिला प्रशासन) दर्ज आपराधिक मामलों में जमानत पाने का प्रयास कर रहे हैं। इसलिए उन्हें हिरासत में ले लिया गया।
हाईकोर्ट ने हिरासत को अवैध मानते हुए कहा कि राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम की धारा 10 पर विचार करने के बाद मौजूदा मामले में राज्य सरकार द्वारा सलाहकार बोर्ड के समक्ष हिरासत में लेने के अधिकार का पालन नहीं किया गया था। एनएसए की धारा 10 के अनिवार्य प्रावधान का पालन न करने से निरोध के आदेश अवैध हो जाते हैं।
इसके अलावा कोर्ट ने राज्य सरकार के इस तर्क को भी खारिज कर दिया कि याचिकाकर्ताओं की हिरासत की तारीख से सात सप्ताह की निर्धारित अवधि के भीतर सलाहकार बोर्ड द्वारा रिपोर्ट प्रस्तुत की गई थी और इस प्रकार अधिनियम की धारा 11(1) का अनुपालन तत्काल मामले में किया गया है। कोर्ट ने यह भी माना कि याचिकाकर्ताओं को हिरासत में लेने के निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए जिला मजिस्ट्रेट द्वारा दर्ज की गई व्यक्तिपरक संतुष्टि किसी भी प्रासंगिक सामग्री पर आधारित नहीं थी, जो निर्णय पर पहुंचने के लिए एक वस्तुपरक मानदंड बनाती।
सौजन्य : अमर उजाला
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