सूर्या की फ़िल्म ‘जय भीम’ किस घटना और किस शख़्स पर बनी है?
“लोगों के सिर पर रहने की छत नहीं है. पते का उनका कोई प्रमाण नहीं है, लिहाज़ा उनके पास राशन कार्ड नहीं है. इसलिए वे वोट नहीं डाल सकते. आपको उनके लिए कुछ करना चाहिए.”
“उन्हें वोट डालने का हक़ क्यों होना चाहिए? हमें कल इनके आगे वोट के लिए भीख मांगनी होगी. हमें वयस्कों को शिक्षित करने के बेकार कार्यक्रम को बंद करने की ज़रूरत है, ताकि इन बकवासों पर रोक लग सके.”
By अनघा पाठक
ये दोनों संवाद पेशे से शिक्षक पर आदिवासी लोगों के अधिकारों के लिए सक्रिय रहने वाले एक शख़्स और एक स्थानीय नेता के बीच के हैं. मुझे लगता है कि ‘जय भीम’ फ़िल्म का सार इसी बातचीत में छिपा है.
यह फ़िल्म मौजूदा सिस्टम के पीड़ितों के दमन और सिस्टम के ख़िलाफ़ एक इंसान के छेड़े गए संघर्ष के बारे में है.
मैं इस बात से पूरी तरह सहमत हूं कि इसकी कहानी तीन वाक्यों में नहीं बताई जा सकती.
तमिल सुपरस्टार सूर्या के अभिनय वाली ये फ़िल्म दिवाली के दौरान ओटीटी प्लेटफॉर्म पर रिलीज़ हुई और चर्चा में है. दूसरी ओर इस फ़िल्म को लेकर विवाद भी है.
फ़िल्म के एक सीन पर आपत्ति जताई जा रही है. कई लोगों ने इसे हटाने की मांग की है.
इसके एक सीन में प्रकाश राज द्वारा निभाया गया किरदार हिंदी बोलने वाले एक शख़्स को थप्पड़ मारता है. तो उस शख़्स ने पूछा, ”तुमने मुझे क्यों मारा?” इसके जवाब में प्रकाश राज का किरदार कहता है, ”तमिल में बोलो.”
सोशल मीडिया पर इस विवाद पर तरह-तरह के कमेंट्स आ रहे हैं. हालांकि, इस आलेख में न तो फ़िल्म के कथानक और न ही उस पर भड़के ताज़ा विवाद के बारे में चर्चा की जा रही है.
फ़िल्म ‘जय भीम’ एक सच्ची कहानी पर आधारित है. लेकिन वो सच क्या था? और पूरे सिस्टम के ख़िलाफ़ लड़ने वाला वो शख़्स आख़िर था कौन?
वो सच्ची घटना जिस पर बनी ये फ़िल्म
फ़िल्म ‘जय भीम’ तमिलनाडु में 1993 में घटी एक घटना पर आधारित है. असल में हुआ क्या था, इसे जानने के लिए बीबीसी मराठी ने इस मामले में 2006 के मद्रास हाईकोर्ट के एक फ़ैसले का अध्ययन किया. और तब घटनाओं के सिलसिले को समझा जा सका.
ये बात मार्च 1993 की तमिलनाडु के मुदन्नी गांव की है. उस गांव में कुरवा आदिवासी समुदाय के चार परिवार रहते थे. कुरवा समुदाय पहले कभी ‘अपराधी जनजातियों’ की श्रेणी में शामिल रहा है.
राजकन्नू और सेंगई नाम के दंपत्ति उसी गांव में रहते थे. 20 मार्च की सुबह कुछ पुलिस वालों ने सेंगई के घर का दरवाज़ा खटखटाया. पुलिस ने सेंगई से पूछा, “तुम्हारा पति कहाँ है?” सेंगई ने जवाब दिया, “काम पर गए हैं.”
इसके बाद पुलिस ने कहा, “पास के गांव में डेढ़ लाख के आभूषण चोरी हो गए हैं. उसके लिए हम तुम्हारे पति को खोज रहे हैं.”
पुलिस की उम्मीद के अनुसार, सेंगई के जवाब न देने पर पुलिस ने उन्हें, उनके बच्चों, उनके पति के भाई और बहन को वैन में बिठाकर थाने लेकर गए.
पुलिस ने उन लोगों से कहा कि यदि राजकन्नू का पता बता दोगे तो हम तुम लोगों को जाने देंगे. इस अपराध में एक और व्यक्ति गोविंदराजू का नाम शामिल था. पुलिस ने उसे पड़ोस के गांव से गिरफ़्तार किया था.
पुलिसकर्मी कम्मापुरम पुलिस स्टेशन 20 मार्च, 1993 को शाम 6 बजे पहुंचे थे. सेंगई को पुलिस थाने के बाहर एक शेड में ले जाया गया. बाक़ी को पूछताछ के लिए अंदर ले जाया गया.
उसी समय एक स्थानीय पुलिस अधिकारी (थाना प्रभारी) ने सेंगई को डंडे से पीटा. उसने उन्हें अपने पति का पता देने और चोरी के गहने वापस लौटाने को कहा.
पुलिस ने सेंगई के बेटे को भी उनके हाथ पीठ पीछे बांधकर पीटा और लड़की को भी मारा. पुलिस का मानना था कि चोरी राजकन्नू ने की है और उन्हें चोरी का सामान तुरंत लौटा देना चाहिए.
सेंगई, उनके दो बच्चों और राजकन्नू के भाई और बहन को उस रात पुलिस थाने में ही रहना पड़ा.
अगले दिन संबंधित पुलिस अधिकारी अपने अन्य सहयोगियों के साथ फिर बाहर गए और शाम चार बजे वापस लौटकर आए. उस समय राजकन्नू उनके कब्ज़े में थे.
पुलिस ने उसके बाद सेंगई और उनके बच्चों को घर जाने की अनुमति दे दी. रामास्वामी (इस मामले के मुख्य पुलिस अधिकारी, जिन्हें बाद में दोषी ठहराया गया) ने सेंगई को कल मांसाहारी भोजन लाने को कहा.
अगले दिन दोपहर के क़रीब एक बजे सेंगई लंच बॉक्स लेकर अकेले थाने आईं. उस वक़्त उन्होंने देखा कि उनका पति एक खिड़की से बंधा हुआ और पूरी तरह से नंगा है. पुलिस ने उन्हें काफी पीटा था.
सेंगई ने पुलिस से पूछा कि वे ऐसा क्यों कर रहे हैं? पर पुलिस ने उन्हें भी पीटा और धमकाया कि इसकी चर्चा किसी से न करें.
‘पुलिस ने राजकन्नू को बर्बरता से पीटा’
सेंगई ने अपने पति के शरीर से खून बहता देखा. कुछ देर बाद सेंगई, उसके पति के भाई और एक अन्य आरोपी गोविंदराजू को पास के एक शेड में ले जाया गया. पुलिस वहां उनके पति को लेकर आई. उस समय राजकन्नू लगभग बेहोश और चलने से लाचार थे.
सेंगई सबको खाना खिला रही थी, पर राजकन्नू अचेत पड़ा था. लेकिन पुलिस ये कहते हुए उन्हें पैरों से मारती रही कि वो नाटक कर रहा है. वहां किसी ने राजकन्नू को पानी पिलाने की कोशिश की लेकिन उसके मुंह से पानी भी बाहर आ गया. उसकी सांसें थम सी गई थीं.
सेंगई ने उन लोगों से पूछा, ”आपने मेरे पति को इतनी बर्बरता से क्यों मारा?” लेकिन पुलिस ने उन्हें जबरन बस में बिठाकर घर भेज दिया.
सेंगई दोपहर क़रीब तीन बजे थाने से निकलकर शाम छह बजे अपने गांव पहुंचीं. जब वो वहां पहुंचीं तो गांव वाले उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे. उनमें से एक ने उन्हें बताया, “पुलिस ने बताया है कि राजकन्नू सवा चार बजे हिरासत से भाग गया.”
सेंगई हैरान थीं. वो इस ख़बर पर यकीन कैसे कर सकती थीं? तीन घंटे पहले जो इंसान अचेत पड़ा था और खड़े होने की भी ताक़त नहीं थी, वो भाग कैसे सकता है?
अगले दिन यानी 22 मार्च, 1993 को मीनसुरुट्टी पुलिस स्टेशन के इलाक़े में एक शव मिला. रिकॉर्ड में शव को लावारिस बताया गया था. शव पर मारपीट के गहरे निशान थे. आंख और सिर पर चोट के निशान थे, जबकि शव की पसलियां टूटी हुई थीं.
आख़िर राजकन्नू गए कहाँ?
पुलिस ने राजकन्नू की भाभी के साथ छेड़खानी भी की थी. बाद में अदालत में दिए गए बयान में बताया गया था कि पूछताछ के दौरान उनके कपड़े फाड़ दिए गए थे.
यहीं से सेंगई की न्याय की लड़ाई शुरू हुई. पुलिस ने अपनी हिरासत में उनके पति को पीट-पीट कर मार डाला था. लेकिन अब पुलिस कह रही थी कि वो फ़रार है. पति की तलाश में सेंगई बड़े अधिकारियों के पास गईं और कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया. वो अकेली ही जूझ रही थीं.
एक दिन उन्हें चेन्नई के एक वकील के बारे में पता चला. उन्हें बताया गया कि वो वकील मानव अधिकारों के मामले में कोई फीस नहीं लेते हैं. सेंगई ने उनसे मदद मांगी.
वो शख़्स थे जस्टिस चंद्रू. फ़िल्म ‘जय भीम’ में सूर्या का किरदार उन्हीं पर आधारित है.
जस्टिस चंद्रू उस समय वकालत करते थे, और उन्होंने सेंगई की मदद करने का फ़ैसला किया. उन्होंने मद्रास हाईकोर्ट में हेबियस कॉरपस (बंदी प्रत्यक्षीकरण) की रिट याचिका दायर की. इसका इस्तेमाल प्रशासन की गिरफ़्त में मौजूद किसी शख़्स को अदालत में पेश करने के लिए किया जाता है.
इसके बाद सरकारी अमला तुरंत हरकत में आ गया. सेंगई को लावारिस बताए गए उस शव की तस्वीरें दिखाई गईं. उन्होंने पहचाना कि वो शव राजकन्नू का है. अब ये साफ हो गया था कि राजकन्नू की मौत हो गई. मद्रास हाईकोर्ट ने सेंगई को मुआवज़ा देने और मामले की जांच सीबीआई से कराने का आदेश पारित किया.
हालांकि, उस समय ये साबित नहीं हो सका कि राजकन्नू की मौत पुलिस हिरासत में प्रताड़ित करने से ही हुई थी.
ये मामला उसके बाद सेशन कोर्ट में गया. वहां मारपीट, छेड़छाड़ और प्रताड़ना के आरोपों का सामना कर रहे पांच पुलिसकर्मियों को तमाम आरोपों से बरी कर दिया गया.
उसके बाद ये मामला पूरे राज्य में सुर्ख़ियों में आ गया. तब जांच समिति बनाई गई और सेशन कोर्ट के फ़ैसले के ख़िलाफ़ तमिलनाडु सरकार ने मद्रास हाईकोर्ट में अपील की.
उसके बाद, 2006 में मद्रास हाईकोर्ट ने राजकन्नू की मौत के लिए पांच पुलिसकर्मियों को दोषी करार दिया. ये भी साबित हुआ कि पुलिस डायरी में दर्ज रिपोर्ट बदल दी गई थी और पुलिस ने जाली दस्तावेज़ तैयार किए थे.
उस घटना के 13 साल बाद उन पुलिसकर्मियों को आजीवन कारावास की सज़ा मिली. वहीं एक डॉक्टर को तीन साल जेल की सज़ा सुनाई गई.
इस पूरी क़ानूनी प्रक्रिया के केंद्र में जस्टिस चंद्रू थे. उन्होंने केरल के कुछ गवाहों को खोजकर निकाला. उन्होंने अदालत में गवाही दी कि पुलिस झूठ बोल रही है. उन्होंने न केवल एक वकील का काम किया, बल्कि जांच एजेंसी के कामों को भी किया.
जस्टिस चंद्रू
सूर्या ने जो किरदार निभाया, वो चंद्रू हैं कौन?
चंद्रू को बाद में जज बनाया गया. वो मद्रास हाईकोर्ट के जज पद से रिटायर हुए.
वास्तव में पहले उन्हें वकालत में कोई दिलचस्पी नहीं थी. वो दुर्घटनावश इस पेशे में आ गए. अपने कॉलेज के दिनों में वो वामपंथी आंदोलन से जुड़े हुए थे. उस दौरान उन्होंने पूरे तमिलनाडु की यात्रा की और अलग-अलग लोगों के साथ रहे.
उसके बाद उन्होंने इसलिए कानून की पढ़ाई करने का फ़ैसला किया, क्योंकि इससे कॉलेज की सक्रियता में उन्हें मदद मिलेगी.
वो कहते हैं, “जब मैं कॉलेज में था, तब देश में इमरजेंसी लगी थी. और तब मैंने देखा कि कइयों को उनके मूल अधिकारों से वंचित किया जा रहा है. इसलिए मैंने पूर्णकालिक वकील बनने का फ़ैसला लिया.”
अंग्रेज़ी अख़बार ‘द हिंदू’ को दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने बताया, “ग़रीबों और दलितों के लिए कानूनी लड़ाई लड़ पाना बेहद मुश्किल है. कई लोग पूछते हैं कि तुम्हारे ये ग़रीब मुवक्किल पेचीदा कानूनी प्रक्रिया का कब तक सामना कर पाएंगे. इस पर मैं कहता कि तब तक, जब तक कि उन्हें न्याय नहीं मिल जाता.”
जस्टिस चंद्रू को 2006 में मद्रास हाईकोर्ट का एडिशनल जज बनाया गया. उसके बाद 2009 में उन्हें स्थायी जज बना दिया गया.
जज के करियर के दौरान, उन्होंने क़रीब 96 हजार मामलों की सुनवाई की. ये एक रिकॉर्ड है. आमतौर पर कोई भी जज अपने करियर के दौरान औसतन 10 या 20 हज़ार मामलों की ही सुनवाई कर पाते हैं.
उनके एक निर्णय के चलते ही मिड डे मिल बनाने वाली 25 हज़ार औरतों को आय का एक स्थायी स्रोत मिल सका.
उन्होंने अपनी कार पर लगी लाल बत्ती हटा दी थी. और अपनी सुरक्षा के लिए गार्ड रखने से भी मना कर दिया था. वो एक कदम और आगे गए और लोगों से ज़ोर देकर कहते थे कि उनकी अदालत में उन्हें ‘माई लॉर्ड’ न कहा जाए.
सौजन्य: बीबीसी हिंदी
नोट : यह समाचार मूलरूप से www.bbc.com/hindi में प्रकाशित हुआ है. मानवाधिकारों के प्रति संवेदनशीलता व जागरूकता के उद्देश्य से प्रकाशित किया गया है !