नालसा जजमेंट के सात साल : कितनी बदली ट्रांस समुदाय की स्थिति
15 अप्रैल 2014 को भारत एक अभूतपूर्व निर्णय का साक्षी बना। जहां नेशनल लीगल सर्विसेज अथॉरिटी द्वारा दायर की गई याचिका की सुनवाई करते समय सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस के. एस. राधाकृष्णन और जस्टिस ए. के. सीकरी द्वारा अध्यक्षित दो जजों की बेंच ने दशकों से गुमनामी के अंधकार में अपने स्वाभिमान के लिए संघर्षरत ट्रांस समुदाय को थर्ड जेंडर के रूप में ना सिर्फ पहचान दी बल्कि ट्रांस समुदाय के लिए भारत के प्रत्येक नागरिक को मिलने वाले मूलभूत अधिकारों को सुनिश्चित करने की बात कहीं। इस फैसले में संविधान के अनुच्छेद 21 द्वारा सभी नागरिकों को प्राप्त व्यक्तिगत निजता के अधिकार को सुनिश्चित करते हुए महिला और पुरुष के दायरे से बाहर खुद को चिन्हित करने वाले नागरिकों के उनके शरीर और व्यक्तित्व पर उनकी निजी स्वतंत्रता के अधिकार की बात कही गई। वहीं, अनुच्छेद 19(1)(ए) और अनुच्छेद 19(2) द्वारा प्राप्त अभिव्यक्ति के अधिकार में, अपनी लैंगिकता की अभिव्यक्ति और पहनावे और संबोधन के अधिकार को सुनिश्चित किया। साथ ही इस फैसले में ट्रांस समुदाय के लिए अनुच्छेद 14,15 और 16 को ध्यान में रखते हुए समानता और सुरक्षा के पहलुओं पर भी ध्यान केंद्रित किया गया। लेकिन आज नालसा जजमेंट के सातवें साल में हम इस जजमेंट का लाभ कहां तक ले सकें यह मुद्दा विचार करने योग्य है।
याचिकाकर्ता जैनब (ट्रांस एक्टिविस्ट) कहती हैं कि जजमेंट के अधिक प्रभावी ना हो पाने के दो प्रमुख कारण हैं। पहला इसमें राज्य की इच्छाशक्ति निर्भर करती है। जो कि हर राज्य में समान नहीं है। जहां महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ में वेलफेयर बोर्ड की स्थापना हुई, वहीं कई बड़े राज्यों में लोग अभी भी संघर्षरत हैं। दूसरा महत्वपूर्ण कारण रहा सत्ता का परिवर्तन, यह फ़ैसला अप्रैल में आया और मई में केंद्र सरकार बदल गई। नई सरकार को एक्सपर्ट कमिटी के सुझावों पर विचार और कानून बनाने में 3 साल का समय लगा, जिसमें पहले पेश किया गया कानून तो बेहद ट्रांस विरोधी था लेकिन बाद में लाया गया बिल जो की अब कानून है, पहले के मुकाबले संतोषजनक हैं।
नालसा जजमेंट ट्रांस समुदाय के लिए कोई विशेष अधिकार की बात नहीं करता। एक आम नागरिक को मिलनेवाले अधिकारों को ही सुनिश्चित करने की बात करता है। किसी जन समुदाय को अगर मूलभूत अधिकारों के लिए भी न्यायालय पर निर्भर रहना पड़े तो यह एक लोकतांत्रिक देश के लोगों के लिए विचार करने योग्य मुद्दा है।
वहीं, तेलंगाना से ट्रांस एक्टिविस्ट प्रो० बिट्टू इस पर अपनी राय देते हुए बताते हैं, ‘नालसा जजमेंट समग्र ट्रांस समुदाय और उनके संवैधानिक अधिकारों के बीच एक सेतु रूप है। यह नालसा का जजमेंट समुदाय के लिए हथियार की तरह काम करेगा, अगर आज हमें ट्रांसजेंडर एक्ट से भी शिकायत है, तो भी हम नालसा के मापदंडों के हवाले से आसानी से अपनी बात रख सकते हैं।’ वास्तव में नालसा जजमेंट का पूरा लाभ समुदाय को तभी मिलना संभव है, जब इसको सरकार की दृष्टि में लाया जाए, विशेषकर राज्यसरकार। एक्सपर्ट कमिटी द्वारा प्रस्तावित विशेष अधिकार, आरक्षण आदि के लिए सरकार द्वारा नीतियों का बनाया जाना ज़रूरी है। साथ ही ज़रूरी है ट्रांस समुदाय तथा आम जनमानस का एकसाथ आना और ट्रांस अधिकारों के संरक्षण के लिए सत्ता पर दबाव बनाने और ट्रांस समुदाय के मुद्दों के प्रति अधिकारी वर्ग को सजग करने की।
इसी के साथ हमें इस बात पर ध्यान केंद्रित करना होगा कि नालसा जजमेंट ट्रांस समुदाय के लिए कोई विशेष अधिकार की बात नहीं करता। एक आम नागरिक को मिलनेवाले अधिकारों को ही सुनिश्चित करने की बात करता है। किसी जन समुदाय को अगर मूलभूत अधिकारों के लिए भी न्यायालय पर निर्भर रहना पड़े तो यह एक लोकतांत्रिक देश के लोगों के लिए विचार करने योग्य मुद्दा है। पहले के ट्रांसजेंडर बिल तथा वर्तमान ट्रांसजेंडर एक्ट से भी समुदाय के लोग संतुष्ट नहीं हैं। इसकी वजह में दो प्रमुख कारण हैं। पहला राजनितिक इच्छा शक्ति, क्योंकि ट्रांस समुदाय ना तो वोट बैंक हैं ना ही राजनीति और सत्ता को प्रभावित करने में सक्षम हैं। दूसरा प्रमुख कारण ट्रांस समुदाय का राजनीतिक पदों पर ना होना। राजनैतिक प्रतिनिधित्व के अभाव में, नीति निर्माण के कार्य में कभी भी क्वीर समुदाय को ध्यान में नहीं रखा जाता। इसका प्रभाव हम देख सकते हैं असम एनआरसी लिस्ट में जहां असम की पहली ट्रांस जज स्वाति बिधान की याचिका से पता चला कि राज्य के 2000 से अधिक ट्रांस समुदाय के लोगों का नाम एनआरसी की लिस्ट में नहीं है।
जहां नालसा जजमेंट ट्रांस समुदाय के ख़िलाफ़ होने वाले भेदभाव को रोकने की बात करता है, वहीं आम विद्यालय के पाठ्यक्रम में कहीं भी क्वीर समुदाय पर कोई प्रकाश नहीं है। प्रगतिशील नीतियों के नाम पर भी अगर देखे तो, जैसा कि उत्तर प्रदेश के नोएडा स्थित सेक्टर 50 के मेट्रो स्टेशन में कुछ ट्रांस व्यक्तियों को नियुक्त कर उससे ‘रेनबो स्टेशन’ का नाम दिया गया और इस की काफ़ी प्रशंसा भी हुई लेकिन विश्लेषणात्मक दृष्टि से देखे तो यह एक समावेशी नीति नहीं है। शहर के एक मेट्रो स्टेशन को क्यों, बल्कि नीति ऐसी होनी चाहिए जहां हर कार्यस्थल ट्रांस व्यक्ति के लिए सुरक्षित हो बल्कि हर योग्य नौकरी के पद के लिए वे समान रूप से आवेदन कर सकें।
मौजूदा ट्रांसजेंडर ऐक्ट लैंगिकता के सर्टिफिकेशन की बात करता है जबकि समाज का एक बहुत बड़ा सच यह है कि एक बहुत बड़ा तबका आज भी अपनी लैंगिकता को सबके सामने लाने करने से डरता है। बिना ट्रांसफोबिया को दूर किए, भेदभाव मुक्त समाज बनाने का प्रयास किए, ऐसे कानून लाना कितना प्रभावी होगा यह तो समय ही बताएगा। आज भी उत्तर भारतीय हिंदी पट्टी में का ट्रांस समुदाय अशिक्षा के अंधकार में डूबा है और एक शिक्षाच्युत समाज प्रगति संपन्न नहीं हो सकता। सरकार का पहला ध्यान ट्रांस समुदाय की शिक्षा और स्वास्थ्य की ओर होना चाहिए जिसके लिए सिर्फ मौलिक अधिकार ही नहीं बल्कि विशेष अधिकारों को भी सुनिश्चित करना होगा।
वरिष्ठ नारीवादी एक्टिविस्ट अरुंधति धुरू कहती हैं, “जन आंदोलनों में अक्सर एक नारा खूब बोला जाता है ‘ हमारी लड़ाई, एक है, समाज में कोई भी लड़ाई अकेले नहीं जीती जा सकती, हमें इस बात को समझना होगा की हर मनुष्य के अधिकार आवश्यक है और इसको सुनिश्चित करना हम सबका दायित्व हैं, ट्रांस समुदाय के मुद्दों को जब तक हम सब अपना (जनता का) मुद्दा नहीं बनाएंगे, तब तक ट्रांस समुदाय की उन्नति संभव नहीं। हम सबको साथ मिलकर ही एक समता मूलक समावेशी समाज की अवधारणा को यथार्थ में लाना होगा।”
साभार :फेमिनिज़म इन इंडिया