आंखन-देखी : महाकुंभ में दलित-बहुजनों की ऐसी है भागीदारी
कुंभ को सनातन गर्व के पर्व के तौर पर पेश किया गया है। सनातन (हिंदुत्व) की वर्णवादी पदानुक्रम में दलित (शूद्र) का जो स्थान है, उसी के मुताबिक कुंभ में उनकी भागीदारी भी कूड़े उठाने, झाड़ू लगाने और शौचालय साफ़ करने तक सीमित दिखती है। बता रहे हैं सुशील मानव
गत नवंबर, 2024 में जूना अखाड़ा की एक ख़बर प्रमुखता से तमाम अख़बारों में सुर्खियों में रही थी। एक अखबार ने शीर्षक लगाया था– ‘कुंभ में जूना अखाड़ा द्वारा 370 दलित महामंडलेश्वर बनाये जाएंगे।’ बीते 20 जनवरी, 2025 की दोपहर इसी ख़बर की ज़मीनी पड़ताल करने मैं कुंभ मेला के सेक्टर 20 स्थित जूना अखाड़ा पहुंचा। अखाड़े के भीतर तमाम राज्यों के प्रतिनिधि संत अपने-अपने टेंट में विराजमान थे। वहीं कड़ा बाबा राधे पुरी हठ योग से अपना दायां हाथ 14 साल से ऊपर कर रखे हैं। उन्हें देखने के लिए भक्तों की भीड़ लगी है। इसी अखाड़े में बृहस्पति गिरी महाराज एक टब में तैरता पत्थर रखे बैठे हैं। उनका दावा है कि यह पत्थर नल-नील के द्वारा निर्मित है, जिसका उपयोग रामसेतु बनाने में किया गया था। इसी अखाड़े में झूले बाबा रुपेश पुरी झूले पर साधना कर रहे हैं।
मैंने अखाड़े के कई धड़ों से दलित को महामंडलेश्वर बनाए जाने संबंधी सवाल को पूछा, लेकिन सब टाल गये। तभी मेरे सामने से ‘दैनिक भास्कर’ के तीन (दो पुरुष एक महिला) पत्रकारों की टीम निकली। मैं भी उनके पीछे-पीछे हो लिया। वे लोग अखाड़े के एक बिल्कुल किनारे के टेंट में घुसे। मैं भी उनके पीछे टेंट में घुस गया। वहां महंत सोमेश्वर पुरी और महंत थानापति बैठे थे। यहां इस बात को उल्लेख करना ज़रूरी है कि महंत सोमेश्वर पुरी कुंभ से वायरल हुए आईआईटीयन बाबा अभय सिंह के गुरु हैं। वही काशी से अभय सिंह को जूना अखाड़ा में ले आए थे। ख़ैर बात वापिस मुद्दे की। दैनिक भास्कर की टीम बाबा के आसन पर विराजमान बाबा के चरणों को छूकर वहीं नीचे बैठ गई। बाबा ने भास्कर की टीम से नाराज़गी जतायी कि न्यूज वालों ने आईआईटीयन अभय सिंह के अनाप-शनाप वीडियो चला रखे हैं। ‘दैनिक भास्कर’ के टीम लीडर ने दबी आवाज में कहा कि “बाबा जी, भास्कर ने ऐसा कुछ नहीं चलाया है।” फिर उन्होंने आगे कहा कि इन्होंने (अभय सिंह) अखाड़े की छवि को जो नुकसान पहुंचाया है, उसके डैमेज-कंट्रोल के लिए आप महंत थानापति जी एक इंटरव्यू दें, जिसे भास्कर अपने तीन भाषाओं के अख़बारों के संस्करण में और डिजिटल प्लेटफॉर्म पर प्रमुखता से छापेगा। जिस समय यह बातचीत हो रही थी, ठीक उसी समय एक सेप्टिक टैंक ठीक गेट के सामने खड़े होकर पाइप द्वारा जाम पड़े शौचालयों का मल अपशिष्ट निकालने लगा। जिसके शोर और बदबू से बात कर पाना दूभर हो गया। लेकिन ‘दैनिक भास्कर’ के टीम लीडर ने बात आगे बढ़ाते हुए कहा बाबा यह भी बहुत ज़रूरी काम है। बाबा ने कहा हां, दो साल से ज़रूरी हो गया है। बाबा ने आगे बताया कि “यह मेरा सातवां कुंभ (12 साल में लगने वाला) है। पहले खाली मैदान होता था। अखाड़े के लोग वहीं शाैच करते थे। सुबह मेहतर सब साफ़ कर देता था और दोपहर में उसी जगह पांत लगाकर सब खाना खाते थे।” बाबा ने आगे कहा कि “यह कुंभ बहुत साफ़-सुथरा है। कहीं गंदगी नहीं है। कूड़ा-कचरा उठाने वाले, झाड़ू लगाने वाले सफ़ाईकर्मी दिन-रात काम पर तैनात हैं।”
तब तक महंत सोमेश्वर पुरी ज़रूरी काम कहकर उठ खड़े हुए। मैं भी उनके पीछे लग गया। मैंने उनसे 370 दलित महामंडलेशवर वाला सवाल पूछा, जिसका जवाब देने से उन्होंने साफ़ मना कर दिया। इस सवाल पर अखाड़े में कोई भी बात करने को तैयार नहीं हुआ। जूना अखाड़ा से मैं अनुत्तरित ही बाहर निकल आया।
मेला परिसर में सुस्ताते सफाईकर्मी मजदूर (तस्वीर : सुशील मानव)
इस सवाल को छोड़कर मैं उस सवाल पर लौटा कि कुंभ-2025 में दलित समाज की भागीदारी कहां, कैसी और कितनी है। पूरा मेला क्षेत्र मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री की तस्वीरों वाले विशालकाय फ्लेक्सबोर्ड और होर्डिंग से पटा पड़ा है। इन विशालकाय होर्डिंग में लिखे नारों और कुंभ थीम को पकड़कर हमने अपने सवाल की ज़मीनी पड़ताल शुरू की। कुंभ की थीम और स्लोगन हैं– ‘सनातन गर्व, महाकुंभ पर्व’, पुण्य फलें, महाकुंभ चलें, जन्म-जन्मांतर के पुण्य खिलें, आओ हम महाकुंभ चलें।
कुल मिलाकर कुंभ को सनातन गर्व के पर्व के तौर पर पेश किया गया है। सनातन (हिंदुत्व) की वर्णवादी पदानुक्रम में दलित (शूद्र) का जो स्थान है, उसी के मुताबिक कुंभ में उनकी भागीदारी भी कूड़े उठाने, झाड़ू लगाने और शौचालय साफ़ करने तक सीमित दिखती है। सनातन गर्व का उद्घोष कर रहे एक विशाल होर्डिंग के नीचे अपना काम निपटाने के बाद चार सफ़ाईकर्मी सांस लेते बैठे मिल गए। बांदा के कमासिन गांव से आए सफ़ाईकर्मी रमेश अपनी बुआ, साले और चाचा और बच्चों आदि के साथ मेले में सफ़ाई का काम कर रहे हैं। रमेश बताते हैं कि उन्हें फिलहाल एक दिन की दिहाड़ी 410 रुपये मिल रही है। ठंड से निपटने के लिए लकड़ी आदि तो नहीं मिल रही है। राशनकार्ड बनाया गया है, जिस पर 45 रुपए प्रति यूनिट की दर से राशन मिल रहा है। उनसे 5 रुपए राशनकार्ड बनाने का चार्ज लिया गया है। रमेश बताते हैं कि सैनिटरी कॉलोनी में बने स्कूल में उनके बच्चे पढ़ रहे हैं। वे बताते हैं कि सैनिटरी कॉलोनी में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को उद्घाटन करने आना था, लेकिन काम अभी पूरा नहीं हुआ है। चुन्नीलाल बताते हैं कि मेला आधा खत्म हो गया है, लेकिन अभी भी सफ़ाईकर्मियों की कॉलोनी का काम पूरा नहीं हुआ है।
इस बार कुंभ में 14-15 हज़ार सफ़ाईकर्मी तैनात किये गए हैं, ऐसा सरकारी आंकड़ा बता रहा है, जिन्हें 850 टीमों में बांटा गया है। इनके ज़िम्मे 25000 कूड़ेदानों का निस्तारण करना है। अनुमान है कि रोज़ाना 390 मीट्रिक टन कचरे के हिसाब से 45 दिनों में 17550 मीट्रिक टन कचरा 2025 कुंभ में इकट्ठा होगा। इसके अलावा शौचालयों की सफ़ाई भी सफ़ाईकर्मियों के ज़िम्मे है। बांदा, महोबा, जौनपुर, प्रतापगढ़, भदोही, मिर्ज़ापुर जैसे उत्तर प्रदेश के 28 जिलों समेत बिहार, मध्य प्रदेश, ओड़िशा, झारखंड, छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड के महिला-पुरुष सफ़ाईकर्मियों को काम पर लगाया गया है। सरकार द्वारा पूरे मेला क्षेत्र में 1.5 लाख टायलेट्स और यूरिनल्स स्थापित करने के दावे किये गए हैं, जिनकी साफ-सफाई का ज़िम्मा गंगा सेवादूतों को सौंपा गया है। कहने की आवश्यकता नहीं कि ये गंगा सेवादूत भंगी, मेहतर और वाल्मीकि जाति के लोग हैं। सैनिटेशन कॉलोनी के बग़ल में सफ़ाईकर्मियों के बच्चों के लिए प्राथमिक विद्यालय बनाया गया है। दिलीप कुमार मिश्र, जोकि इस स्कूल के हेडमास्टर हैं, बताते हैं कि 261 बच्चों का नाम लिखाया गया है। आगामी 26 फरवरी तक यह स्कूल चलेगा।
दरअसल, पिछले कई सालों से सफ़ाईकर्मियों के बीच से और उनके अधिकारों के लिए कार्य करने वाले संगठनों और नागरिक समाज के लोगों की ओर से लगातार यह सवाल उठाया जाता रहा है कि जो सफ़ाईकर्मी दूर-दराज़ के जिलों या दूसरे राज्यों से माघ में कुंभ और अर्द्धकुंभ के मेले में काम करने सपरिवार आते हैं, इससे उनके बच्चों की पढ़ाई का नुकसान होता है।
बावजूद इसके कि सरकार ने मेला क्षेत्र में सफ़ाईकर्मियों के बच्चों के लिए डेढ़ महीने के लिए एक हेडमास्टर और पांच कर्मियों वाला एक अस्थायी स्कूल खोला है, अधिकांश सफ़ाईकर्मी जहां काम कर रहे हैं, उनके बच्चे भी वहीं उन्हीं के आसपास खेलते मिल रहे हैं। दरअसल मेला क्षेत्र काफ़ी बड़े क्षेत्र में फैला हुआ है। ऐसे में जो सफ़ाईकर्मी कॉलोनी से कोसों दूर काम पर लगे हुए हैं, उनके लिए अपने बच्चे को एक अस्थायी स्कूल में जहां सिर्फ़ ढांचा ही नहीं, संबंध और भरोसा भी अस्थायी हैं, जहां एक बच्चा दूसरे बच्चे को नहीं जानता, शिक्षक बच्चों को नहीं जानता, वहां अपने बच्चों को छोड़ना उनके लिए नामुमकिन है। स्कूल का समय सुबह 9 से दोपहर 3 बजे तक है। सवाल यह है कि अगर बच्चे 3 बजे स्कूल से छूटते हैं और उनके माता-पिता मेले में कहीं दूर काम कर रहे हैं तो वे छोटे बच्चे कहां जाएंगे। इस कारण से भी अधिकांश सफ़ाईकर्मी अपने बच्चों को अपने साथ कार्यस्थल पर लेकर जा रहे हैं।
साफ़-सफ़ाई के अलावा सेवा कार्य के तहत मेले में चकर्ड प्लेट (धातु मिश्रित प्लेट) की सड़कों का निर्माण, मरम्मत व सफाई के काम में भी दलित समुदाय के लोग लगे हुए हैं। फावड़े से बालू उठाकर चकर्ड प्लेट के गैप को भर रहे संतोष भारतीय दलित समुदाय से आते हैं। वे सुल्तानपुर जिले के मिल्कीपुर गांव से परिवार और दोस्तों के साथ मेले में आए हैं। वे बताते हैं कि उन्हें 500 रुपए की दिहाड़ी पर लाया गया है। ये लोग ठेकेदार के अधीन काम कर रहे हैं। मेला क्षेत्र के सेक्टर 7 में पुल नंबर 19 के पहले गेट में अभी भी मार्ग बनाने का काम पूरा नहीं हुआ है। कई मज़दूर ट्रक पर लदी चकर्ड प्लेट उतारकर मार्ग पर बिछा रहे हैं। मौनी अमावस्या को मुख्य मेला है। इसलिए उनके ऊपर काम का दबाव है।
बाबाओं के लिए मड़हा बनाते कोल समुदाय के लोग (तस्वीर : सुशील मानव)
इससे इतर कोल समुदाय के लोगों को बाबाओं के लिए मड़हा बनाने के लिए बुलाया गया है। नागवाशुकी और बख़्शी बांध के बीच ढलान पर खाली जगह को इसी काम के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। दर्ज़नों कामगार सरपत और बांस का मड़हा बना रहे हैं, जिन्हें गाड़ियों में रखकर मेला क्षेत्र में पहुंचाया जा रहा है। ये मड़हे तमाम अखाड़ों में बाबाओं का आश्रम बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। ये लोग प्रयागराज जिले के कोरांव तहसील से बुलाये गये हैं, जो मुख्यतः कोल जाति के हैं। इन्हें 500 रुपए की दिहाड़ी पर रखा गया है। राजेंद्र कोल बताते हैं कि वे 30 दिसंबर को यहां आए हैं। मौनी अमावस्या के मेले तक काम पर ज़ोर रहेगा तब तक वे लोग यहां रहेंगे, काम खत्म होते ही वापिस लौट जाएंगे। ये सभी लोग भी ठेकेदार के अधीन काम कर रहे हैं।
इसके अलावा नहावन मार्गों पर भीख मांगने वालों में भी मुसहर समुदाय के लोग ज़्यादतर दिखते हैं। विशेषकर बूढ़े और 8-10 साल से कम उम्र के बच्चे और दुपहता स्त्रियां। ये लोग जौनपुर, भदोही और बनारस से आए हैं। वहीं पूरे मेला क्षेत्र में जगह-जगह नट समुदाय की छोटी बच्चियां रस्सियों पर करतब दिखाती दिख रही हैं। ये बच्चियां लगातार कई-कई घंटों तक दो बांसों के बीच झूलती रस्सियों पर डगमगाती हुई संतुलन साधती रहती हैं। और इनके माता या पिता नीचे खड़े होकर गाना बजाते हैं और आने-जाने वालों से तमाशा देखने और पैसे देने की गुहार लगाते रहते हैं।
हृदय लाल नट कहते हैं कि “साहेब हम कुंभ पेट पालने आये हैं।” डोरी पर उनकी 8 साल बेटी कुसुम एक डंडे के सहारे संतुलन साध रही है। जबकि 2-3 साल की छोटी बिटिया नीचे बालू में बैठकर सिर पर एक चुनरी साधने की कोशिश कर रही है। वे बताते हैं कि दिन भर में 500 से 700 रुपए कमा लेते हैं। उनका घर हादसे में जल गया है। जब मेला नहीं होता तो वे गांव-देहात में तमाशा दिखाते हैं।
इसी तरह अखाड़ों वाले सेक्टर 20 में दिव्या (7 साल) रस्सी पर संतुलन साधे हुए है। नीचे उनकी मां रजनी खड़ी हैं। रजनी ज़्यादा बात नहीं करती। कहती हैं कि बात करने से बिटिया का ध्यान भंग होगा और वह नीचे गिर जाएगी।
सेवाकार्य से इतर क्या दलित समुदाय के लोगों की व्यापार या उद्योग में कोई भागीदारी है? यह पता करने के लिए हमने बेतरतीब तरह से नहावन मार्गों और कल्पवासियों के टेंटों के आस-पास फुटपाथ पर और फेरी लगाकर अंकुरित चना, गन्ने का रस, मूंगफली, बिसातीख़ाना, खिलौने, चाय आदि बेचने वालों से उनकी जाति के बारे में पूछा। आश्चर्यजनक रूप से अपवाद स्वरूप भी कोई दलित दुकानदार या विक्रेता नहीं मिला। प्रतापगढ़ की सुमन सोनकर मेले में फुटपाथ पर बोरा बिछाकर अंकुरित चना बेचती नजर आईं। वह खटीक समुदाय से आती हैं। इसी तरह गन्ने का रस बेच रहे एक संदीप सफाईकर्मी समुदाय से आते हैं। नई झूंसी की सुनीता मल्लाह समुदाय से आती हैं। वह 25 रुपये में पुआल की आंटी बेच रही हैं। लोग पुआल बिछाकर उसके ऊपर अपना बिस्तर बिछाते हैं। सुनीता के पास खेत-बाड़ी नहीं है। वह अपने मायके के किसानों से पुआल ख़रीदकर आंटी बेचने के लिए मेला क्षेत्र में आई हैं।
सेक्टर 16 में पुल के पास एक केवट समुदाय की स्थानीय महिला मिट्टी के चूल्हे, गोबर के उपले और लकड़ियां बेच रही है। वह दारागंज की ही रहनिवासी है, जो मेलाक्षेत्र में ही आता है। वह फोटो खींचने के लिए 100 रूपए मांगती है। और बिना पैसे के फोटो खींचने से मना कर देती है। वह कहती है कि पूछताछ करने के कारण उनकी कमाई कम हो जाती है। प्रयागराज जिले के ही थाना थरवई के राम लाल यादव ऊंट लेकर आए हैं। वह लोगों को ऊंट की सवारी करवाते हैं। सौ मीटर (आना-जाना मिलाकर 200 मीटर) की सवारी करवाने के लिए 50 रुपये प्रति सवारी लेते हैं।
यूं तो मेले में कई चायवाले चाय बेच रहे हैं। लेकिन साधु का भेष धरकर चाय बेचने वाला एक युवक ध्यान खींचता है। उसके यहां चाय पीने वालों का हुजूम-सा लगा हुआ है। इनका नाम है दीपक ठाकुर। ये बिहार के बेगूसराय जिले से आए हैं। वे बताते हैं कि दस बच्चे उनके अधीन काम करते हैं। दीपक अपने गांव के दो बार ग्राम प्रधान रह चुके हैं। इंदौर मध्य प्रदेश के बंजारे समुदाय के लोग रुद्राक्ष की माला बेचने, गोदना गोदने और टैटू बनाने का काम कर रहे हैं। इसी समुदाय की एक लड़की मोना के वीडियो इन दिनों सोशल मीडिया पर वायरल हैं। हाथरस और जालौन के लोग पहले कुंभ मेले में जगह-जगह हींग आलता बेचते दिखते थे, उनकी भागीदारी इस मेले में नहीं दिखती है। मुस्लिम (पसमांदा) समाज के लोग भी मेले में कहीं नहीं दिखते हैं, क्योंकि मेले में मुसलमानों सहित सभी गैर-हिंदुओं के प्रवेश पर अखाड़ों के साधुओं द्वारा घोषित रूप से प्रतिबंध लगा दिया गया है और इसमें अघोषित रूप से राज्य सरकार की सहमति शामिल है। (संपादन : राजन/नवल/अनिल)
सौजन्य: फॉरवर्ड प्रेस
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