लोकपाल: 12 साल में मिली 6 मुकदमों को चलाने की मंजूरी
देश के सबसे बड़े भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की गर्भ से उपजी लोकपाल नामक संस्था केंद्र सरकार की उदासीनता और लालफीताशाही के कारण पंगु हो चुकी है। क्या आप यह जानकर हैरान होंगे कि बारह साल में लोकपाल ने केवल छह मामलों में अभियोजन यानी मुकदमा चलाने की मंजूरी दी है। दो साल में एक का औसत! ऐसी खबरें अब भारत की मीडिया में सुर्खियों क्यों नहीं पातीं।
मामला इससे भी ज्यादा चौंकाऊ हो सकता है, अगर सचमुच अब तक हुए खर्च और उसके बदले मिले नतीजे का मिलान कर लिया जाए। क्या इस सुस्तचाल के लिए कभी किसी को जिम्मेदार ठहराया जाएगा। लोकपाल कार्यालय से किसी तरह हासिल किए ताजा आंकड़े बताते हैं कि देश के इस पहले भ्रष्टाचार निरोधी निकाय लोकपाल अधिनियम को पारित हुए 12 साल से ज्यादा हो गए हैं। अधिनियम बनने के बाद पांच साल तक इस पद पर कोई नियुक्ति नहीं हुई। नियुक्ति होने के बाद से अब तक सिर्फ 24 मामलों में जांच के आदेश दिए हैं। और उनमें भी अभियोजन के आदेश सिर्फ छह मामलों में जारी हुए।
अधिनियम के मुताबिक लोकपाल किसी भी सार्वजनिक पदाधिकारी के खिलाफ शिकायतों की जांच करने का अधिकार रखता है। अक्टूबर 2024 और दिसंबर 2024 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ भी तीन शिकायतें लोकपाल को मिली थीं। सूत्र बताते हैं कि तीन शिकायतें सही प्रारूप में न होने को आधार बनाकर खारिज कर दी गईं।
पिछले पांच सालों में लोकपाल ने बड़ी संख्या, या कह सकते हैं, 90%, शिकायतों को खारिज कर दिया। तर्क वही कि ‘’सही प्रारूप’’ में नहीं थीं। पांच सालों में कम से कम 2,320 शिकायतें लोकपाल के पास पंजीकृत की गईं। यानी जिन्हें “दोषरहित” पाया गया। इनमें से 226 शिकायतें 1 अप्रैल से दिसंबर 2024 के बीच दर्ज की गईं।
कुल शिकायतों में से 3% प्रधानमंत्री, संसद सदस्य या केंद्रीय मंत्रियों के खिलाफ थीं। 21% शिकायतें केंद्र सरकार के समूह ए, बी, सी या डी अधिकारियों के खिलाफ थीं। 35% शिकायतें संस्था अध्यक्ष या उनके मातहतों के खिलाफ थीं। 90 फीसद शिकायतें बिना किसी जांच-पड़ताल के पहली ही देहरी पर निपटा दी गईं।
41% शिकायतें “अन्य” श्रेणी के लोगों के खिलाफ थीं, जिसमें राज्य सरकारों के अधिकारी शामिल हैं। लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम, 2013 की धारा 53 के अनुसार, किसी शिकायत पर तभी विचार किया जा सकता है जब वह कथित अपराध की तारीख से सात साल की अवधि के भीतर दायर की गई हो। बताया गया कि कुछ शिकायतें इस ‘अर्हता’ को पूरी नहीं कर सकीं। अब इस सवाल का जवाब कौन देगा कि पांच साल तक नियुक्ति ही नहीं हुई तो शिकायत कहां की जाती। जिन शिकायतों को काल-बाधित कहकर खारिज किया गया, उनमें इन पांच साल की ‘रिक्तता’ का कोई जिक्र है या नहीं, यह शायद नई जांच का विषय होगा।
पांच साल तक खाली रहा लोकपाल का पद
वैसे तो लोकपाल अधिनियम 2013 में पारित हो गया था लेकिन देश के पहले लोकपाल न्यायमूर्ति पिनाकी चंद्र घोष को 19 मार्च, 2019 को आठ अन्य सदस्यों के साथ नियुक्त किया गया। न्यायमूर्ति घोष 70 साल की आयु प्राप्त करने के बाद मई 2022 में पद से मुक्त हो गए। इसके न्यायमूर्ति एएम. खानविलकर (सेवानिवृत्त) को मार्च 2024 में दूसरा लोकपाल नियुक्त किया गया।
एक और मुश्किल मामलों के जांच के स्तर पर है। लोकपाल निकाय में जांच निदेशक और अभियोजन निदेशक के पद बनाए गए हैं, लेकिन वे भी खाली हैं। लोकपाल कार्यालय की तरफ से इन पदों को भरने के लिए कई मौकों पर केंद्र सरकार को भेजे गए प्रस्तावों पर ‘निर्णय का इंतजार’ है। सूत्र बताते हैं कि इस बीच, प्रारंभिक जांच और जांच का काम केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) और केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) को सौंपा जा रहा है। यानी यह एक तरह से जांच के लिए ऐसे लोगों पर निर्भर होना है, जो पहले से ही काम के बोझ से लदे हैं।
सीवीसी अधिनियम, 2003 की धारा 11 ए के अनुसार, लोकपाल द्वारा भेजे गए मामलों की प्रारंभिक जांच करने के लिए केंद्र सरकार द्वारा सीवीसी में संयुक्त सचिव के पद से कम न होने वाले जांच निदेशक की नियुक्ति की जानी चाहिए। फिलहाल, जांच निदेशक की अनुपस्थिति में, लोकपाल द्वारा भेजे गए मामलों की जांच में संबंधित मंत्रालयों या संगठनों के केंद्रीय सतर्कता अधिकारियों (सीवीओ) की मदद ली जा रही है।
विडंबना की कड़ी यहीं नहीं टूटती। हद यह है कि इतने बड़े भ्रष्टाचार विरोधी संस्था में कार्यकुशलता का अभाव है और अस्थाई या कामचलाऊ कार्यबल काम कर रहा है। हालांकि, अब इसमें स्थायित्व लाने की कोशिश हो रही है, लेकिन यह तंत्र पूरी तरह कब सक्रिय होगा, कहना मुश्किल है।
अंग्रेजी के चर्चित अखबार की मानें तो लोकपाल अपनी परिचालन दक्षता में सुधार के लिए अधिनियम की धारा 60 के अंतर्गत विनियमन तैयार करने की प्रक्रिया में है। लेकिन जिस तरह शिकायतें खारिज की जा रही हैं, जिस तरह का एक ढीला-ढाला तंत्र भ्रष्टाचार की शिकायतों की सुनवाई कर रहा है, उसे देखकर, क्या यह सवाल पूछना वाजिब नहीं होगा कि देश के सबसे बड़े भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का क्या यही हस्र होना था ?
पृष्ठभूमि
2011 में इंडिया अगेंस्ट करप्शन नामक गैरसरकारी सामाजिक संगठन की ओर से समाजसेवी अन्ना हजारे के नेतृत्व में दिल्ली समेत पूरे देश में बड़ा आंदोलन हुआ था। इसमें न्यायमूर्ति संतोष हेगड़े, वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण, मैग्सेसे पुरस्कार विजेता अरविंद केजरीवाल, किरण बेदी आदि ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था। साथ ही, भारत के विभिन्न सामाजिक संगठनों और जनता के साथ व्यापक विचार विमर्श के बाद लोकपाल विधेयक तैयार हुआ था। इसे पारित कराने के लिए अन्ना हजारे के नेतृत्व में शुरू अनशन के दबाव में तत्कालीन मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली सरकार को संसद में विधेयक पेश करना पड़ा था। जिसे बाद में, अधिनियम के तौर पर पारित किया गया।
सौजन्य: जनचौक
नोट: यह समाचार मूल रूप से janchowk.com पर प्रकाशित हुआ है और इसका उपयोग विशुद्ध रूप से गैर-लाभकारी/गैर-वाणिज्यिक उद्देश्यों, विशेष रूप से मानवाधिकारों के लिए किया जाता है।