हाथ से मैला ढोने की प्रथा को ख़त्म करने के लिए किसी भी हद तक जाएंगे: सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हाथ से मैला ढोने की प्रथा और सीवर, सेप्टिक टैंकों की हाथ से सफाई के ख़तरनाक चलन को समाप्त करने के लिए किसी भी हद तक जाएंगे, चाहे कुछ भी हो जाए. अदालत ने जोड़ा कि यह मुद्दा मानवीय गरिमा के सवाल से जुड़ा है.
नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को हाथ से मैला ढोने की प्रथा (मैनुअल स्केवेंजिंग) और सीवर, सेप्टिक टैंकों की हाथ से सफाई की खतरनाक प्रथा को समाप्त करने के लिए ‘किसी भी हद तक’ जाने की बात कहते हुए कहा कि यह मुद्दा मानवीय गरिमा के सवाल से जुड़ा है.
द हिंदू की रिपोर्ट के मुताबिक, जस्टिस सुधांशु धूलिया और अरविंद कुमार की विशेष पीठ ने केंद्र सरकार को संबोधित करते हुए कहा, ‘यह मुद्दा हमारे लिए बहुत जरूरी है. हम इसे यूं ही नहीं छोड़ेंगे. हम आपको बता रहे हैं कि हम अक्टूबर 2023 के अपने फैसले का अनुपालन करवाने के लिए किसी भी हद तक जाएंगे, चाहे कुछ भी हो जाए.’
अदालत में केंद्र सरकार का प्रतिनिधित्व अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल ऐश्वर्या भाटी ने किया.
सर्वोच्च न्यायालय 20 अक्टूबर, 2023 के अपने फैसले का हवाला दे रहा था जिसमें उसने केंद्र और राज्यों को देश में हाथ से मैला ढोने और सफाई के खतरनाक तरीके को खत्म करने के लिए कदम उठाने के निर्देश जारी किए थे. न्यायालय ने कहा था कि ये ‘अमानवीय’ काम जारी हैं, जिसके कारण अक्सर दम घुटने से श्रमिकों की मौत हो जाती है.
अदालत ने कहा था कि यदि मैनुअल स्कैवेंजर के रूप में रोजगार के निषेध और उनके पुनर्वास अधिनियम, 2013 के लागू होने के एक दशक बाद भी समाज के एक बड़े वर्ग को जीवनयापन के लिए सीवर में उतरने और उसमें फंसकर मरने के लिए मजबूर होना पड़ता है, तो नागरिकों के बीच भाईचारे, समानता और सम्मान के दावे महज भ्रम बनकर रह गए हैं.
अदालत ने कहा था, ‘हममें से प्रत्येक व्यक्ति आबादी के इस बड़े हिस्से के प्रति ऋणी है, जो अदृश्य, अनसुने और मूक बने हुए हैं, जो व्यवस्थित रूप से अमानवीय परिस्थितियों में फंसे हुए हैं.’ साथ ही अदालत ने सीवर में होने वाली मौतों के लिए देय मुआवजे को पहले के 10 लाख रुपये से बढ़ाकर 30 लाख रुपये कर दिया था.
इसके एक वर्ष से अधिक समय बाद बुधवार को विशेष पीठ ने टिप्पणी की कि राज्यों ने निर्णय में दिए गए निर्देशों को लागू करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. हालांकि, जस्टिस धूलिया ने कहा, ‘पर जहां तक पूर्ण उन्मूलन का सवाल है, ऐसा कहीं नहीं हुआ है, यहां तक कि एक भी नगर पालिका में नहीं… हमें एक भी आदर्श नगर पालिका बताइए, जहां यह खतरनाक सफाई व्यवस्था न हो.’
मामले के एमिकस क्यूरी वरिष्ठ अधिवक्ता के. परमेश्वर ने कहा कि सीवर में मौतें रुकने का प्रमाण दिल्ली उच्च न्यायालय के तीन हालिया निर्णयों में मिलता है, जिसमें पीड़ितों के परिवारों को बढ़ा हुआ मुआवज़ा देने का आदेश दिया गया था. परमेश्वर ने कहा, ‘हमें सबूत के लिए बहुत दूर जाने की ज़रूरत नहीं है, इसका उदाहरण राष्ट्रीय राजधानी में ही मौजूद है.’
अदालत ने पूछा कि सरकार की मशीनीकृत स्वच्छता पारिस्थितिकी तंत्र के लिए राष्ट्रीय कार्रवाई या नेशनल एक्शन फॉर मैकेनाइज्ड सैनिटेशन इकोसिस्टम (नमस्ते) योजना, जिसके तहत किसी भी सफाई कर्मचारी को सीवर और सेप्टिक टैंक की सफाई के खतरनाक काम में हाथ का इस्तेमाल नहीं करना पड़ेगा, के बावजूद ये प्रथाएं कैसे जारी रहती हैं.
अदालत ने सामाजिक न्याय मंत्रालय को अगले दो सप्ताह में राज्यों के साथ बैठक करने और अक्टूबर 2023 के फैसले के क्रियान्वयन के लिए कार्ययोजना तैयार करने का निर्देश दिया. न्यायालय ने सरकार को क्रियान्वयन में आने वाली खामियों को दूर करने और ऐसा न होने पर अवमानना कार्रवाई का सामना करने की बात कही है.
मालूम हो कि देश में पहली बार 1993 में मैला ढोने की प्रथा पर प्रतिबंध लगाया गया था. इसके बाद 2013 में कानून बनाकर इस पर पूरी तरह से बैन लगाया गया. हालांकि आज भी समाज में मैला ढोने की प्रथा मौजूद है.
मैनुअल स्कैवेंजिंग एक्ट 2013 के तहत किसी भी व्यक्ति को सीवर में भेजना पूरी तरह से प्रतिबंधित है. अगर किसी विषम परिस्थिति में सफाईकर्मी को सीवर के अंदर भेजा जाता है तो इसके लिए 27 तरह के नियमों का पालन करना होता है. हालांकि इन नियमों के लगातार उल्लंघन के चलते आए दिन सीवर सफाई के दौरान श्रमिकों की जान जाती है.
सौजन्य: द वायर
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