सूखती उम्मीदें: मिर्जापुर में ग़रीबों और आदिवासियों की पहुंच से दूर होता जा रहा पानी-ग्राउंड रिपोर्ट
मिर्जापुर से करीब 29 किलोमीटर दूर मड़िहान तहसील में पानी की समस्या गहरी होती जा रही है। तहसील मुख्यालय के बाहर खड़ा इंडिया मार्का हैंडपंप अपनी बेबसी की गवाही देता है। न जाने कब से यह बंद पड़ा है, और किसी को नहीं पता कि इससे आखिरी बार पानी कब निकला था। तहसील परिसर में उप जिलाधिकारी और तहसीलदार के दफ्तर हैं। यहां अधिवक्ता और वादकारी आते हैं, लेकिन पानी की तलाश में सभी को प्लास्टिक के डिब्बों पर निर्भर रहना पड़ता है। परिसर में लगी शो-पीस वाटर टैंक और वाटर कूलर हालात की त्रासदी को और स्पष्ट करते हैं।
मड़िहान तहसील का मुख्य गेट
मड़िहान में अधिवक्ता सुरेश कुमार से बातचीत होती है। उनका दर्द छलक पड़ता है, “पानी अब ग़रीबों की पहुंच से दूर हो गया है। जैसे महंगी चीज़ें अमीरों के लिए आरक्षित हो गई हैं, वैसे ही पानी भी अब विलासिता की वस्तु बनता जा रहा है। पहाड़ी और जंगलों में रहने वाले लोग, ख़ासतौर पर वहां की बेटियां, अपनी ज़िंदगी पानी ढोते-ढोते बिता देती हैं। पानी का संघर्ष इतना बड़ा है कि बच्चियों की पढ़ाई और भविष्य दोनों पर इसका गहरा असर पड़ रहा है।”
सुरेश बताते हैं कि उनके गांव पटेहरा कला में ‘हर घर नल योजना’ के तहत नल तो लगाए गए, लेकिन पानी का आना अभी भी एक सपना है। “महिलाएं सुबह-सुबह पानी की तलाश में निकल जाती हैं। स्कूल जाने वाले बच्चे भी पानी भरने में समय गंवा देते हैं। नतीजा, उनकी पढ़ाई प्रभावित होती है और जीवन एक अंतहीन संघर्ष में बदल जाता है।”
तहसील परिसर में रखी टंकी
उत्तर प्रदेश के मड़िहान इलाके के पहाड़ी गांवों में पानी की कमी ने जीवन को कठिन बना दिया है। यहां के लोग हर दिन अपने गले की प्यास बुझाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। पानी की खोज में हर घर से महिलाएं, बच्चे, और बुजुर्ग निकल पड़ते हैं, लेकिन पानी अब दूर के सपने जैसा लगने लगा है। राजगढ़, पटेहरा, और सीखड़ ब्लॉकों के सैकड़ों गांवों में जलस्तर इतनी तेजी से नीचे खिसक गया है कि अधिकांश हैंडपंप और कुएं सूख चुके हैं।
महेश प्रसाद तिवारी, जो मड़िहान से करीब 30 किमी दूर रामपुर अतरी गांव के निवासी हैं, बताते हैं, “गांव में हर घर में नल तो है, लेकिन पानी नहीं आता। जहां पानी आता भी है, वहां बड़े लोगों के घरों तक सीमित रहता है। गरीबों को रोज़ मीलों दूर जाकर पानी लाना पड़ता है।”
मड़ियान के तहसील परिसर में बोतलों से पानी की सप्लाई
महेश का गुस्सा और दर्द सरकार और नेताओं की निष्क्रियता को लेकर साफ झलकता है। वह कहते हैं, “मिर्जापुर की सांसद अनुप्रिया पटेल ने कई बार चिंता ज़ाहिर की, लेकिन ज़मीन पर कुछ नहीं बदला। नदियों और जल स्रोतों से पानी बांधकर ग्रामीण इलाकों तक पहुंचाने की बात तो होती है, लेकिन कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया। पानी की यह समस्या हर साल बढ़ती जा रही है।”
बच्चों और महिलाओं पर असर
इस इलाके में पानी की समस्या सिर्फ एक संसाधन की कमी नहीं, बल्कि सामाजिक और आर्थिक विकास के लिए एक बड़ी चुनौती बन गई है। महिलाओं और बच्चों को घंटों पानी लाने में व्यतीत करना पड़ता है, जिससे उनका शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य प्रभावित हो रहा है।
पटेहरा ब्लॉक की महिलाओं का दर्द समझने के लिए बस एक दिन उनके साथ चलना काफी होगा। 35 वर्षीय सुनीता देवी हर सुबह 4 बजे उठकर पानी की तलाश में निकलती हैं। वह बताती हैं, “हमारे पास केवल एक हैंडपंप था, वह भी अब सूख गया है। पूरे दिन पानी लाने में ही बीत जाता है। बच्चों की पढ़ाई-लिखाई भी छूट रही है।”
मड़िहान के गांवों की यह कहानी सिर्फ पानी की कमी तक सीमित नहीं है। यह कहानी उस असमान विकास की है, जहां बड़े-बड़े वादों के बावजूद लोग बुनियादी सुविधाओं के लिए तरस रहे हैं। पानी, जो जीवन का सबसे जरूरी आधार है, इन गांवों के लिए अब एक लग्जरी बन चुका है।
मड़िहान तहसील परिसर में एक अधिवक्ता के शेड के बाहर रखा पानी का डिब्बा
सरकार के योजनाबद्ध विकास और धरातल पर मौजूद असलियत के बीच एक बड़ा अंतर है। जब तक पानी की समस्या का स्थायी समाधान नहीं निकाला जाता, तब तक मड़िहान के इन गांवों की प्यास यूं ही बढ़ती रहेगी।
पानी की किल्लत से जूझते इन गांवों की स्थिति यह सवाल उठाती है कि क्या पानी जैसी बुनियादी जरूरत सिर्फ अमीरों के लिए रह जाएगी? गरीबों के लिए क्या पानी का सपना कभी हकीकत बनेगा? मिर्जापुर जैसे क्षेत्रों में सरकार और प्रशासन की निष्क्रियता यह साबित करती है कि योजनाएं कागज़ों पर तो खूबसूरत दिखती हैं, लेकिन ज़मीनी स्तर पर इनका कोई असर नहीं होता।
छोटेलाल का दर्द कुछ ज्यादा है
देवरी कला के छोटेलाल मड़िहान तहसील के बाहर ठेले पर अमरूद बेचते हैं। उनके शब्दों में पानी की त्रासदी पूरी तरह झलकती है, “हमारे चार बच्चे और तीन नातिन हैं। लेकिन पानी की बूंद-बूंद को तरस रहे हैं। सिलेंडर या गैस मिले न मिले, फर्क नहीं पड़ता। लेकिन पानी मिल जाए, तो सबकुछ बदल जाएगा। पानी तो मरने के बाद भी ज़रूरी है, क्योंकि इंसान के अंतिम समय में उसके मुंह में गैस या सिलेंडर नहीं, पानी ही डाला जाता है। लेकिन यहां ज़िंदा इंसान को भी पानी मयस्सर नहीं है।”
छोटेलाल की बात मड़िहान इलाके के हर गांव की हकीकत को बयान करती है। वे कहते हैं, “इस इलाके में महिलाओं का जीवन कालापानी की सजा जैसा है। हर गांव में नल तो लगे हैं, लेकिन पानी नहीं निकलता। सरकारी हैंडपंप भी सूखे पड़े हैं। महिलाएं और बच्चे बूंद-बूंद पानी के लिए मीलों भटकते हैं। न नहाने का पानी है, न पीने का। यहां रहना मुश्किल हो गया है। लेकिन हम जाएं तो कहां?”
मड़िहान तहसील के बाहर बस का इंतजार कर रही सुनीता और उनके पति भी अपने हालात बयां करते हैं। वे कहते हैं, “गर्मियों में तो हालात और भी बदतर हो जाते हैं। न कपड़े धोने का पानी है, न नहाने का। तीन-चार दिन तक गंदे कपड़े पहनने पड़ते हैं। क्या करें, नाली में डूबकर जान दे दें?”
सुनीता ने कहा पानी ही का संकट सबसे बड़ी समस्या
मड़िहान के रिंकू प्रसाद पांडेय, लेदुकी के पंकज सिंह और जमुई गांव के बच्चन ने बताया कि जल संकट सिर्फ नलों और टैंकों की कमी तक सीमित नहीं है। समस्या भूजल के अत्यधिक दोहन और जल संरक्षण की उपेक्षा से भी जुड़ी है। “सरकारें दीवारों पर ‘जल ही जीवन है’ जैसे नारे लिखवाती हैं। लेकिन नारे लिखने से समस्या हल नहीं होती। जब तक हर घर को पीने का साफ पानी नहीं मिलेगा, तब तक जल संकट की गंभीरता को समझा नहीं जा सकता।”
अभी सर्दियों की शुरुआत हुई है और कुछ महीनों बाद गर्मी दस्तक देने लगेगी। मड़िहान क्षेत्र का भू-गर्भ जलस्तर इतनी तेज़ी से नीचे खिसक रहा है कि पूरा क्षेत्र जल संकट से जूझ रहा है। मड़िहान तहसील क्षेत्र के करीब डेढ़ सौ गांवों के लिए पेयजल संकट एक विकट समस्या बन चुकी है। पानी की कमी से न केवल ग्रामीण परेशान हैं, बल्कि सरकारी कार्यालय, अस्पताल, पुलिस थाना और विद्यालय भी इसकी चपेट में हैं।
सफेद हाथी बनी पानी की टंकी
तहसील परिसर और अस्पताल में पानी की किल्लत इतनी बढ़ गई है कि कर्मचारी और मरीज बोतलबंद पानी पर निर्भर हो गए हैं। अस्पताल के ओवरहेड टैंक, जो कभी पानी की आपूर्ति का केंद्र थे, अब शोपीस बनकर रह गए हैं। सरकारी दफ्तरों में अफसर और कर्मचारी पानी खरीदकर काम चला रहे हैं। यह न केवल उनकी आर्थिक स्थिति पर दबाव डाल रहा है, बल्कि उनके धैर्य की परीक्षा भी ले रहा है। सरकारी अस्पतालों में पेयजल की कमी से स्वास्थ्य सुविधाएं प्रभावित हो रही हैं। डॉक्टरों से लेकर मरीजों तक, सभी पानी के लिए जूझ रहे हैं। स्थिति इतनी गंभीर हो चुकी है कि नाश्ते की दुकानें भी पानी की कमी के कारण बंद होने लगी हैं।
गांवों की स्थिति और भी भयावह
मड़िहान क्षेत्र के शेरुआ, सितलगढ़, सोनौहा, कुशमहा, गोपालपुर, बेदौली, जुड़िया, और पटेहरा जैसे गांवों में पानी की समस्या चरम पर है। यह वो गांव हैं जहां बहुसंख्यक आबादी गरीबों और आदिवासियों की है। इन गांवों में हैंडपंप जवाब दे चुके हैं। हर घर, नल योजना फिसड्ड़ी साबित हो रही है। लोग टैंकर से पानी पहुंचाने की मांग कर रहे हैं, लेकिन सरकारी महकमे के अफसरों का कहना है कि जब हर घर पर नल लग गया है तो टैंकर से पानी की आपूर्ति संभव नहीं है।
पटेहरा क्षेत्र के एक गांव के बुजुर्गों की आंखों में चिंता की लकीरें साफ दिखती हैं। 70 वर्षीय हरिद्वार यादव कहते हैं, “जब तक बोरवेल थे, तब तक सब कुछ ठीक था। अब सब सूख चुका है। हम बूढ़े लोग तो जैसे-तैसे बिता लेंगे, लेकिन बच्चों का क्या होगा?”
तहसील के बाहर सूखा हैंडपंप
तहसील और थाने के कर्मचारी भी पानी की किल्लत से जूझ रहे। पानी की यह कमी केवल भौतिक समस्या नहीं है; यह लोगों के मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य पर भी गहरा असर डाल रही है। गांव की महिलाएं, जो रोज़मर्रा के काम के लिए पानी पर निर्भर हैं, अब घंटों दूर-दूर तक पानी की खोज में भटकती हैं। घरों में खाने-पीने से लेकर पशुओं के लिए पानी जुटाना मुश्किल हो रहा है।
पटेहरा के निवासी बसंत लाल ने बताया कि यदि नहरों में पानी छोड़ा जाए, तो इससे तालाब, तलैया, और जलाशय भर सकते हैं। इन जलाशयों में पानी भरने से न केवल जल स्तर पर नियंत्रण किया जा सकता है, बल्कि कई हैंडपंप भी फिर से काम करने लगेंगे। इससे लोगों को कुछ समय के लिए राहत मिल सकती है।
शासन और प्रशासन की तमाम योजनाएं केवल कागजों तक सीमित नजर आ रही हैं। जल निगम के अधिकारी कर्तव्य विमूढ़ होकर मूकदर्शक बने हुए हैं। उनकी इस उदासीनता का परिणाम यह है कि पेयजल संकट को दूर करने के लिए बनाई गई टंकियां अब सफेद हाथी साबित हो रही हैं। इन टंकियों से जलापूर्ति की योजनाएं जमीन पर कहीं लागू होती नहीं दिख रही हैं।
मड़िहान तहसील परिसर
ग्रामीणों का कहना है कि समय रहते यदि नहरों और सोनपंप का पानी छोड़ा जाता तो इस संकट को काफी हद तक टाला जा सकता था। परंतु अधिकारियों और संबंधित विभागों की लापरवाही से हालात बदतर होते जा रहे हैं। किसान नेता रामनगिना सिंह पटेल और अन्य ग्रामीणों ने इस मुद्दे पर प्रशासन का ध्यान आकर्षित करने के लिए कई बार गुहार लगाई है, लेकिन अब तक कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है।
पानी की समस्या को हल करने के लिए अब प्रशासन, कैनाल विभाग और जल निगम को मिलकर काम करना होगा। सोनपंप से पानी छोड़े जाने, नहरों की सफाई और पेयजल टंकियों को सुचारू रूप से चलाने जैसे उपाय ही इस संकट को कम कर सकते हैं। ग्रामीणों की बढ़ती नाराजगी को देखते हुए समय रहते कदम उठाना बेहद जरूरी हो गया है, अन्यथा स्थिति और विकट हो सकती है। यह समय प्रशासन और विभागीय अधिकारियों के लिए आत्ममंथन का है कि आखिर क्यों योजनाएं धरातल पर न उतर कर कागजों में ही दम तोड़ रही हैं।
प्यास के चक्रव्यूह में फंसे तमाम गांव
राजगढ़ के कलवारी और गोरथारा गांवों में लोगों की सुबह की शुरुआत पानी की तलाश से होती है। 60 वर्षीय रामदेव यादव कहते हैं, “पहले हमारे गांव का कुआं पूरे साल पानी देता था, लेकिन अब वह महीनों से सूखा पड़ा है। हैंडपंप से भी पानी नहीं निकलता।” गांव के बच्चे अब स्कूल जाने के बजाय दिनभर पानी लाने में जुटे रहते हैं।
पटेहरा ब्लॉक के मुस्किरा गांव की रीना कहती हैं कि मवेशियों को पानी पिलाने के लिए वे दिनभर भटकती रहती हैं। “हमारे पास एक भैंस और दो बकरियां हैं, लेकिन अब सोचती हूं कि इन्हें बेच दूं। जब अपने लिए ही पानी नहीं है, तो इन्हें कैसे पिलाएं?” रीना की आंखों में चिंता साफ झलकती है।
सरकार द्वारा जल संरक्षण के नाम पर तालाब और चेकडैम बनवाए गए थे, लेकिन अब वे भी सूखे पड़े हैं। गजरिया और सितलगढ़ गांवों में कई तालाब हैं, लेकिन पानी का नामोनिशान नहीं। स्थानीय किसान श्यामलाल कहते हैं, “जब बारिश अच्छी होती थी, तब तालाब भर जाते थे। लेकिन अब तो सालों से तालाब सूखे हैं। खेतों की सिंचाई तो दूर, पीने का पानी भी नहीं बचा।”
सेमरी और सरसों गांवों में स्थिति इतनी खराब है कि लोग 3-4 किलोमीटर दूर तक पैदल चलकर पानी लाने को मजबूर हैं। गांव की 12 साल की सुमन बताती है, “हम सुबह स्कूल जाने की बजाय नदी तक पानी लेने जाते हैं। कभी-कभी देर हो जाती है, तो मास्टरजी डांटते हैं।”
जल संकट ने सिर्फ इंसानों को ही नहीं, बल्कि जानवरों को भी प्रभावित किया है। मवेशियों के लिए पानी का इंतजाम करना पशुपालकों के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन गया है। सोनौहा और गढ़वा गांवों में किसान अब मवेशियों को बेचने पर मजबूर हो रहे हैं। वहीं, जंगली जानवर पानी की तलाश में आबादी वाले क्षेत्रों में घुसने लगे हैं। सुकृत वन क्षेत्र के अधिकारी मल्लूराम ने बताया कि “जंगल में पानी की कमी के कारण जानवर बांधों और नहरों के पास आ रहे हैं। अभी तक विभाग ने पानी की व्यवस्था नहीं की है।”
सरकारी आंकड़ों के अनुसार, मड़िहान और आसपास के ब्लॉकों में जलापूर्ति का दावा किया जा रहा है। लेकिन लालगंज और हलिया के पचासों गांवों में सिर्फ 40% जलापूर्ति हो रही है। सीखड़ ब्लॉक के कई गांवों में जलापूर्ति पूरी तरह ठप है। गांव के प्रधान शिवनारायण कहते हैं, “सरकार हर साल नए वादे करती है, लेकिन जमीन पर कुछ नहीं बदलता।”
प्यास के चक्रव्यूह में फंसे लोग
हलिया ब्लॉक के नौगवां ग्रामसभा के गुरुवान पहरी बस्ती में पानी की समस्या ने विकराल रूप ले लिया है। यहां के ग्रामीणों की हालत ऐसी है कि वे नाले में गड्ढा खोदकर मटमैला पानी पीने को मजबूर हैं। बस्ती का इकलौता हैंडपंप एक महीने से खराब पड़ा है। शिकायतें तो की गईं, लेकिन न ग्राम प्रधान ने सुध ली, न ग्राम सचिव ने। 50 वर्षीय मुन्नी देवी कहती हैं, “हम कब तक इंतजार करें? बच्चे प्यास से तड़पते हैं, इसलिए हम गड्ढा खोदकर पानी निकालते हैं।”
यह पहली बार नहीं है जब ग्रामीणों को ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ा है। हर साल गर्मियों में पानी की किल्लत इन्हें इस तरह के देशी जुगाड़ करने पर मजबूर कर देती है। ग्रामीण जानते हैं कि सरकारी काम में महीनों लग जाते हैं, लेकिन वे प्यास से मरने का इंतजार नहीं कर सकते। यही वजह है कि व्यवस्था सुधरने तक गड्ढे का पानी भी उनकी प्यास बुझाने का सहारा बनता है।
गुरुवान पहरी की यह कहानी पूरे हलिया ब्लॉक की समस्या का महज एक उदाहरण है। इस क्षेत्र के अन्य गांवों में भी पानी की भारी किल्लत है। कोल आदिवासियों की सबसे अधिक संख्या वाले इस ब्लॉक में कुल 79 ग्राम पंचायत और 208 गांव हैं। इन गांवों की कुल आबादी करीब 2.7 लाख है, लेकिन विकास की रोशनी अब तक इन दूरस्थ बस्तियों तक नहीं पहुंच सकी है।
भैसोड़ बलाय पहाड़ गांव में हालात और भी ज्यादा भयावह हैं। मध्य प्रदेश की सीमा पर स्थित इस आदिवासी बहुल गांव में लगभग 7 हजार की आबादी भीषण पेयजल संकट से गुजर रही है। छुइलहा बस्ती के 12 घरों के लोग बीते दो हफ्तों से पानी के लिए पहाड़ी नाले पर निर्भर हैं। टैंकर से जलापूर्ति बंद हो चुकी है, और लोगों को तीन सौ मीटर दूर छुइलहा नाले का पानी लाकर पीना पड़ रहा है। ग्रामीण रामलाल कहते हैं, “टैंकर आने का कोई समय नहीं है। जब बहुत जरूरत होती है, तो हम नाले का पानी ले आते हैं। क्या करें, हमारे पास और कोई विकल्प नहीं।”
पानी की किल्लत का असर न सिर्फ इंसानों पर, बल्कि जानवरों पर भी पड़ा है। यहां के पशुपालक अपने मवेशियों के लिए भी पानी का इंतजाम नहीं कर पा रहे हैं। गुरुवान पहरी और भैसोड़ बलाय जैसे गांवों में मवेशियों को बेचने का विचार अब आम हो चुका है। इसके अलावा, जंगल के जंगली जानवर भी पानी की तलाश में आबादी वाले क्षेत्रों की ओर बढ़ रहे हैं, जिससे नए तरह के खतरे उत्पन्न हो रहे हैं।
सरकारी योजनाओं में जलापूर्ति के दावे बड़े-बड़े हैं, लेकिन जमीन पर इनका असर नगण्य है। गुरुवान पहरी के लोग हर दिन नई उम्मीदों के साथ उठते हैं कि शायद आज पानी की समस्या का हल होगा, लेकिन निराशा ही उनके हिस्से आती है। भैसोड़ बलाय में भी पानी की कमी ने लोगों का जीवन अस्त-व्यस्त कर दिया है।
ग्रामीणों का कहना है कि टैंकर से जलापूर्ति कभी-कभार ही होती है, और वह भी पर्याप्त नहीं होती। स्थानीय प्रशासन ने स्थिति सुधारने की कुछ कोशिशें की हैं, लेकिन वे नाकाफी साबित हो रही हैं। आदिवासी इलाकों में रहने वाले लोगों के लिए यह संकट केवल पानी की कमी तक सीमित नहीं है, बल्कि यह उनकी आजीविका, स्वास्थ्य, और जीवन के हर पहलू को प्रभावित कर रहा है।
हलिया और आसपास के इलाकों की पानी की समस्या सिर्फ एक तकनीकी कमी नहीं है। यह उस लापरवाही और उपेक्षा का प्रतीक है, जो इन ग्रामीण इलाकों के साथ बरती गई है। जब तक सरकार और प्रशासन इस समस्या को प्राथमिकता नहीं देते, गुरुवान पहरी और भैसोड़ बलाय जैसे गांवों में लोग नाले का पानी पीने और अपनी प्यास बुझाने के लिए जुगाड़ करते रहेंगे। इन लोगों की एक ही गुहार है: “हमें सिर्फ वादे नहीं, पानी चाहिए।”
“जीवन प्यासा है, और वादे सूखे”
मिर्ज़ापुर जिले के आदिवासी बहुल गांव लहुरियादह में पिछले साल पेयजल संकट का मुद्दा तब उछला था जब तत्कालीन डीएम दिव्या मित्तल ने अपनी निजी कोशिशों से पाइप लाइन बिछवाई और खुद ही उसका उद्घाटन कर दिया। इससे सांसद और मंत्री अनुप्रिया पटेल नाराज हो गईं। उनकी शिकायत पर मुख्यमंत्री ने रातो-रात उन्हें मिर्जापुरि से हटाकर प्रतीक्षारत कर दिया। लहुरियादह गांव जिला मुख्यालय से लगभग 49 किमी दूर स्थित है, जहां 1200 लोगों की आबादी के लिए पानी मिलना आज भी एक चुनौती है। यहां के लोगों के चेहरों पर दिखने वाली लकीरें, सूखे कंठों की गवाही देती हैं।
मिर्जापुर के लहुरियादह में पेयजल संकट
गांव के प्रधान कौशलेंद्र कुमार गुप्ता कहते हैं, “हमारी कई पीढ़ियां इसी मिट्टी में खप गईं, लेकिन पानी की किल्लत खत्म नहीं हुई। अफसरों और नेताओं के दरवाजे खटखटाते-खटखटाते थक चुके हैं। वादे मिले, पानी नहीं।” साल 2023 में पूर्व कलेक्टर दिव्या मित्तल ने पानी पहुंचाने की कोशिश की, पाइपलाइन डाली गई, हर घर तक नल पहुंचे। लेकिन उनका तबादला होते ही यह व्यवस्था ठप हो गई। पानी की पाइपलाइन को ड्रमंडगंज घाटी में तोड़ दिया गया।
लहुरियादह में गांव के बच्चों की पढ़ाई पर पानी की समस्या का सीधा असर पड़ा है। हरिश्चंद्र, एक मज़दूर, बताते हैं, “हमारे बच्चे पढ़ने के बजाए पानी ढोते हैं। लड़कियों की पढ़ाई तो छठी-सातवीं में ही छूट जाती है।” गांव के 14 साल के छात्र संजय यादव कहते हैं, “स्कूल जाना तब ही संभव है, जब घर में पानी की व्यवस्था हो। पानी लाना हमारी प्राथमिकता बन गया है।”
लहुरियादह के निवासी बताते हैं कि चुनाव के समय नेता गांव में आते हैं, बड़े-बड़े वादे करते हैं, और चुनाव जीतने के बाद गायब हो जाते हैं। 50 वर्षीय राम मुरारी कोल कहते हैं, “पानी की हमारी समस्या कभी खत्म नहीं हुई। चुनाव के समय नेता कहते हैं कि हमारी प्यास बुझाएंगे, लेकिन चुनाव के बाद सब भूल जाते हैं।” गांव के बुजुर्ग हरीलाल कहते हैं, “जब पहली बार नलों से पानी गिरा तो हमें लगा कि अब हमारी प्यास बुझ जाएगी। लेकिन कुछ ही दिनों में सब खत्म हो गया। अब हमारे पास टैंकर का इंतज़ार करने के अलावा कोई चारा नहीं है।”
साल 2019 में ‘जल जीवन मिशन’ योजना के तहत मिर्ज़ापुर और सोनभद्र के गांवों में पानी पहुंचाने का लक्ष्य रखा गया था। मिर्ज़ापुर में इस योजना पर 2343.20 करोड़ रुपये खर्च होने थे। लहुरियादह के लिए भी पानी पहुंचाने के लिए 15 करोड़ रुपये खर्च हुए, लेकिन नतीजा शून्य रहा। लहुरियादह के लोग अब उम्मीद छोड़ चुके हैं। उनकी आखिरी गुहार यही है कि उनके बच्चों को कम से कम पीने का साफ पानी मिले। यह रिपोर्ट केवल लहुरियादह की कहानी नहीं, बल्कि उन लाखों गांवों का प्रतिबिंब है, जो विकास के दावों के बीच प्यासे रह गए।
सरकारी वादे और जमीनी हकीकत
मिर्ज़ापुर ज़िला चार तहसीलों और बारह ब्लॉकों में बंटा है, लेकिन इसकी ज़मीन का बड़ा हिस्सा पहाड़ी और पथरीला है। यहां का जीवन पूरी तरह से प्रकृति की कृपा पर निर्भर है। अगर बारिश हुई तो धान की फसल बोई जा सकती है, वरना सूखे के हालात में खेती करना मुश्किल हो जाता है। इस परिस्थिति का असर साफ दिखाई देता है। गांव दूर-दूर बसे हैं, रास्ते दुर्गम हैं, और वन विभाग के नियमों के कारण जंगलों से मिलने वाले संसाधनों से लोग वंचित रहते हैं। नतीजा यह है कि कुपोषण की समस्या यहां आम है।
जिले की समतल ज़मीन अपेक्षाकृत कम है, लेकिन जहां समतल ज़मीन है, वहां आबादी ज्यादा घनी है। इन क्षेत्रों में नहरें बनी हुई हैं, और अगर उनमें नियमित पानी आए तो साल में दो-तीन फसलें उगाना संभव है। मिर्ज़ापुर शहर खुद एक बड़े कस्बे की तरह लगता है, जबकि जिले में छोटे-बड़े कस्बों की संख्या बढ़ रही है। बाहरी और स्थानीय आबादी के कारण इन कस्बों की बसावट भी घनी होती जा रही है।
साल 2001 की जनगणना में यहां का जनसंख्या घनत्व प्रति वर्ग किलोमीटर 476 था, जो 2011 की जनगणना में बढ़कर 567 हो गया। जिले का कुल क्षेत्रफल 4405 वर्ग किलोमीटर है, और यहां की सबसे बड़ी समस्या पानी की उपलब्धता है। बरसात के दौरान कुछ नदियों में पानी रहता है, लेकिन बाकी समय वे सूख जाती हैं।
पेयजल के लिए कुएं और हैंडपंप मुख्य स्रोत हैं। पहाड़ी इलाकों में चुआड़ नामक जलस्रोत भी कभी-कभी उपयोग में आते हैं। लेकिन बदलते पर्यावरण के चलते इन स्रोतों पर बुरा असर पड़ा है। अधिकांश कुएं साल के कई महीनों तक सूखे रहते हैं, और हैंडपंप भी पानी देना बंद कर देते हैं। कुछ जगहों पर पानी इतनी गहराई तक चला जाता है कि जनवरी से ही लोग 400-500 फीट नीचे से पानी निकालने पर मजबूर होते हैं। ऐसे हालात में, गहरे हैंडपंप ही एकमात्र सहारा बचते हैं, लेकिन उनकी भी एक सीमा है। पानी की समस्या जिले के विकास में एक बड़ी बाधा बनी हुई है।
मिर्ज़ापुर और सोनभद्र के ग्रामीण इलाकों में जल संकट की समस्या को हल करने के उद्देश्य से शुरू की गई ‘हर घर नल जल’ योजना करोड़ों रुपये के निवेश के बावजूद ग्रामीणों की प्यास बुझाने में असफल होती दिख रही है। नवंबर 2020 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से इस योजना की आधारशिला रखी थी। इस महत्वाकांक्षी योजना के तहत 23 ग्रामीण पेयजल परियोजनाओं की घोषणा की गई थी, जो 2,995 गांवों में नल जल कनेक्शन उपलब्ध कराकर 42 लाख लोगों को लाभ पहुंचाने का दावा करती थीं।
आंकड़ों की हकीकत
मिर्ज़ापुर जिले में 3,49,966 घरों तक नल से पानी पहुंचाने का लक्ष्य रखा गया है। इसके लिए कुल 6 परियोजनाओं पर लगभग 2,000 करोड़ रुपये का निवेश किया गया है। लेढुकी और महादेव ग्राम समूह पाइप पेयजल योजनाओं के लिए क्रमशः 43.69 करोड़ और 29.24 करोड़ रुपये की अतिरिक्त मांग की गई, जिससे इनका कुल बजट और बढ़ गया।
राजगढ़ विकास खंड के 161 गांवों में पेयजल पाइपलाइन बिछाने का काम तेजी से चलने का दावा किया गया था। लेकिन वास्तविकता यह है कि बरसात के पहले इस कार्य को पूरा करने की उम्मीदें धराशायी हो चुकी हैं। हलिया विकास खंड में जहां 161 गांवों में पानी पहुंचाने का लक्ष्य था, वहां केवल 60 गांवों में काम पूरा हुआ है।
मिर्ज़ापुर के पहाड़ी और दुर्गम इलाकों में पानी की समस्या विकराल है। हलिया, पटेहरा, लालगंज, छानबे, मड़िहान जैसे इलाकों में पाइपलाइन का काम अधूरा है। कई गांवों में पाइपलाइन तो बिछाई गई है, लेकिन कनेक्शन नहीं दिए गए और न ही टोंटियां लगाई गई हैं। गुरुवान पहरी बस्ती में लोग रोज़ पानी के लिए घंटों पैदल चलने को मजबूर हैं। ग्रामीणों का कहना है कि “सरकार ने वादा तो किया था कि हर घर नल से पानी मिलेगा, लेकिन आज तक एक बूंद पानी भी नहीं आया।”
पानी की कमी ने इन गांवों में जीवन को कठिन बना दिया है। कुएं और हैंडपंप सूख चुके हैं, और महिलाएं-पुरुष कई किलोमीटर दूर से पानी लाने को मजबूर हैं। गर्मियों में स्थिति और गंभीर हो जाती है, जब पानी 500 फीट से भी अधिक गहराई पर चला जाता है। ग्राम प्रधान राजेंद्र यादव बताते हैं, “हमने कई बार शिकायत की, लेकिन अधिकारी सुनते ही नहीं। अब तो लोग कहते हैं कि यह योजना सिर्फ कागजों में पूरी हो चुकी है।”
सरकारी दावे कितने सच-कितने दूर
जलकल विभाग के अभियंता राजेंद्र कुमार कहते हैं, “कई गांवों में कमीशनिंग का काम चल रहा है। जल्द ही पानी की आपूर्ति शुरू होगी।” लेकिन इन दावों की पोल उस समय खुल गई, जब 19 जून 2024 को जिलाधिकारी की समीक्षा बैठक में पानी की समस्याओं और लापरवाहियों की फेहरिस्त सामने आई। ग्रामीण बताते हैं कि “हर बार नई तारीख मिलती है, लेकिन काम कब पूरा होगा, कोई नहीं जानता।”
पानी की अनुपलब्धता ने यहां की महिलाओं और बच्चों के जीवन को सबसे ज्यादा प्रभावित किया है। महिलाएं दिनभर पानी जुटाने में लग जाती हैं, जिससे उनका समय और ऊर्जा अन्य घरेलू कामों में खर्च नहीं हो पाती। बच्चे पढ़ाई छोड़कर पानी ढोने में मदद करते हैं। किसान भी निराश हैं, क्योंकि सिंचाई के लिए पानी की कमी ने खेती को असंभव बना दिया है।
सरकार ने करोड़ों रुपये खर्च कर इस योजना को धरातल पर लाने की कोशिश की, लेकिन न तो ठेकेदारों ने समय पर काम पूरा किया और न ही अधिकारियों ने उचित निगरानी की। ग्रामीण अब सवाल पूछते हैं कि क्या यह योजना भी अन्य सरकारी योजनाओं की तरह भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गई है?
‘हर घर नल जल’ योजना के आंकड़े और दावे बड़े हैं, लेकिन जमीन पर नतीजे उतने ही छोटे। मिर्ज़ापुर के गांवों में लोगों की प्यास कब बुझेगी, यह एक अनुत्तरित प्रश्न है। जरूरत है कि प्रशासन और सरकार ईमानदारी से काम करें, ताकि पानी जैसी मूलभूत सुविधा हर घर तक पहुंच सके। ग्रामीणों के शब्दों में, “अगर पानी नहीं मिलेगा, तो विकास का क्या मतलब?”
मड़िहान के प्रशासनिक अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि जल संकट का यह हाल भूजल के अत्यधिक दोहन का परिणाम है। “अभी तक भूजल दोहन पर कोई ठोस कानून नहीं है। अगर इसे नियंत्रित नहीं किया गया, तो आने वाले समय में हालात और खराब होंगे। मिर्जापुर में कई इलाकों में पीने का पानी 200 फीट से भी नीचे जा चुका है। अभी पेड़ किसी तरह जमीन से पानी खींच पा रहे हैं, लेकिन जब उनके लिए भी पानी नहीं बचेगा, तो क्या होगा?”
सूखी नहरों से जूझते किसान
राजगढ़ के किसान बाबू नंदन सिंह, मनोज भारती, कृष्ण कुमार सिंह, सुभाष सिंह, अखिलेश सिंह और कृष्ण त्यागी जैसे किसान प्रशासन और सिंचाई विभाग पर दोहरा रवैया अपनाने का आरोप लगाते हैं। बाबू नंदन कहते हैं, “दिन भर हम नहर पर नजरें गड़ाए बैठे रहते हैं कि कब हमारे क्षेत्र का फाटक खुलेगा और पानी खेतों तक पहुंचेगा। लेकिन हमारी उम्मीदें रोज टूटती हैं।”
नहरों में पानी के अभाव ने किसानों को महंगे डीजल पंपसेट पर निर्भर कर दिया है। मनोज भारती बताते हैं, “हर दिन डीजल पर इतना खर्च करना पड़ रहा है कि फसल की लागत दोगुनी हो गई है। अगर पानी समय पर नहीं आया, तो फसल बर्बाद हो जाएगी।”
कुछ दिन पहले सेमरा रजवाहा पर किसानों का एक बड़ा समूह इकट्ठा हुआ। वे नहर खोलने की मांग कर रहे थे। जैसे ही उन्होंने नहर का फाटक खोलना चाहा, सिंचाई विभाग के अधिकारी और ठेकेदार मौके पर पहुंच गए और विरोध करने लगे। किसानों ने अधिकारियों से कहा, “नहर में पानी न होने से फसलें सूख रही हैं। खेतों में दरारें पड़ गई हैं। अगर समय पर पानी नहीं मिला, तो आधी से ज्यादा फसल खराब हो जाएगी।”
कृष्ण कुमार सिंह ने कहा, “फसलें खराब होने का मतलब है कि न केवल हमारे खाने के लिए अनाज खत्म हो जाएगा, बल्कि पशुओं के चारे का भी संकट खड़ा हो जाएगा।”
राजगढ़ के खेतों में इस समय जो दृश्य दिखता है, वह किसी त्रासदी से कम नहीं। फसलें मुरझा चुकी हैं, और खेतों की मिट्टी में गहरी दरारें पड़ चुकी हैं। किसानों के चेहरों पर चिंता साफ झलकती है। सुभाष सिंह बताते हैं, “हमने अपनी पूरी बचत इस फसल में लगा दी थी। अगर यह भी बर्बाद हो गई, तो अगली फसल बोने के लिए भी पैसे नहीं बचेंगे।”
प्रगतिशील किसान अखिलेश सिंह का कहना है कि प्रशासन और सिंचाई विभाग केवल आश्वासन दे रहे हैं। “हर बार हमें अगले हफ्ते पानी छोड़ने की बात कही जाती है, लेकिन हफ्ते गुजरते जाते हैं, और नहरें सूखी ही रहती हैं। सिंचाई विभाग की लापरवाही ने किसानों की परेशानियों को और बढ़ा दिया है।
“नहरें समय पर साफ नहीं की जातीं। ठेकेदारों का ध्यान सिर्फ अपने मुनाफे पर होता है। पानी का वितरण भी अनियमित है। कुछ क्षेत्रों में नहरों का फाटक खुलता है, तो कुछ जगहों पर महीनों तक पानी नहीं पहुंचता। राजगढ़ जैसे क्षेत्रों में जल संकट की समस्या कोई नई नहीं है। मानसून पर अत्यधिक निर्भरता और जल प्रबंधन की कमजोर योजना ने इस समस्या को और गहरा किया है।”
संजय की आंखों में निराशा और आक्रोश दोनों झलकते हैं। वे कहते हैं, “हमने सरकार को वोट इसलिए नहीं दिया था कि हम भूखे मरें। हमें वादे नहीं, फसल बचाने के लिए पानी चाहिए।” राजगढ़ के किसान अब एकजुट होकर अपनी आवाज उठाने की तैयारी में हैं। वे प्रशासन को चेतावनी दे रहे हैं कि यदि उनकी समस्याओं का समाधान नहीं हुआ, तो वे बड़े स्तर पर आंदोलन करने को मजबूर होंगे। सुभाष सिंह ने कहा, “किसान का सब्र टूट रहा है। सरकार को यह समझना होगा कि हम देश का पेट भरते हैं, और अगर हमें ही पानी न मिला, तो देश क्या खाएगा?”
मड़िहान और राजगढ़ के किसानों की शिकायत है कि प्रशासन और सिंचाई विभाग की लापरवाही ने पिछले साल उनकी मेहनत को बर्बाद कर दिया था। करीब 10,000 हेक्टेयर में फैले खेतों के लिए नहरों से पानी आना जीवनरेखा की तरह है। लेकिन जब नहरें सूखी रह जाती हैं, तो किसान अपनी धान और गेहूं की फसल को बचाने के लिए महंगे डीजल पंपसेट का सहारा लेते हैं। राजगढ़ के किसान नंदन सिंह कहते हैं, “हम हर दिन नहर पर टकटकी लगाए बैठे रहते हैं, लेकिन पानी नहीं आता। हमारे खेत सूख रहे हैं, और हमें कोई सुनने वाला नहीं।”
मड़िहान ब्रांच की कुल लंबाई 58.50 किलोमीटर है। लेकिन नहर के टेल (अंतिम छोर) तक पानी पहुंचाना हमेशा एक चुनौती रहा है। धधरौल बांध से पानी 33 किलोमीटर के गेज तक ही पहुंच पाता है, और इसके आगे का हिस्सा सूखा रह जाता है। नहर विभाग के एक अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि, “बीते महीने केवल एक रात कुछ देर के लिए मड़िहान ब्रांच में पानी छोड़ा गया। इससे नहर के 41 किलोमीटर हिस्से तक पानी पहुंचा, लेकिन टेल तक नहीं।”
पटेहरा ब्लाक की स्थिति
पटेहरा के किसान रविंदर कहते हैं, “जब नहरों का पानी हमारे खेतों तक नहीं पहुंचता, तो हमें डीजल इंजन का इस्तेमाल करना पड़ता है। इससे लागत इतनी बढ़ जाती है कि फसल से कुछ फायदा ही नहीं होता। दशकों पहले जो नहरें पूरे क्षेत्र की सिंचाई करती थीं, वे आज इतनी बदहाल हैं कि किसान अपनी फसल के लिए तरस रहे हैं। सरकार और प्रशासन केवल वादे करते हैं, लेकिन जमीन पर कुछ नहीं होता।”
मजदूर किसान मंच के राज्य कार्यसमिति के सदस्य अजय राय कहते हैं, “पीने के पानी की सर्वाधिक समस्या मिर्जापुर, सोनभद्र और चंदौली में एक जैसी है। यह समस्या अब एक राष्ट्रीय संकट का हिस्सा है। सरकार और प्रशासन को अब कागजी योजनाओं से बाहर निकलकर जमीन पर काम करना होगा। जल संरक्षण के लिए ठोस कदम उठाने होंगे। भूजल स्तर को सुधारने के लिए कठोर नियम और योजनाएं बनानी होंगी।”
“भू-गर्भ जल के अंधाधुंध दोहन और पानी बचाने के प्रति लापरवाह रवैये ने इस समस्या को और गंभीर बना दिया है। अब सवाल यह है कि क्या प्रशासन समय रहते इस समस्या का स्थायी समाधान निकाल पाएगा, या यह संकट आने वाले दिनों में और गहरा जाएगा? यह उन लाखों लोगों की आवाज़ है, जो हर दिन पानी की तलाश में संघर्ष कर रहे हैं। पानी के बिना जीवन की कल्पना असंभव है। सवाल यह है कि क्या सरकार और समाज समय रहते जागेगा? या फिर हम एक ऐसी दुनिया की ओर बढ़ रहे हैं, जहां पानी भी एक विलासिता की वस्तु बनकर रह जाएगा?”
सौजन्य: जनचौक
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