हर दिन सिर्फ 27 रुपए कमा रहा किसान, तंग आकर मौत को लगा रहे गले: सुप्रीम कोर्ट की अंतरिम रिपोर्ट
यदि सिर्फ खेती-किसानी से होने वाली आय को गिना जाए तो एक किसान हर रोज महज 27 रुपए ही अर्जित कर पा रहा है। इतनी कम आय में खेतों पर काम करना और ठीक-ठाक तरीके से अपने जीवन को चलाए रखना न सिर्फ मुश्किल है बल्कि नामुमकिन है।
“सुप्रीम कोर्ट की उच्च स्तरीय गठित समिति ने अपनी अंतरिम रिपोर्ट में किसानों के कर्ज माफी और न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को कानूनी मान्यता देने की सिफारिश की है। कहा कि देश में किसानों की तुलना में अधिक खेतिहर मजदूर हैं, और किसान मजदूरी से अधिक कमा रहे हैं। रिपोर्ट में कृषि संकट की वजह स्थिर उपज, बढ़ती लागत, कर्ज और अपर्याप्त मार्केटिंग सिस्टम बताई हैं।”
यदि सिर्फ खेती-किसानी से होने वाली आय को गिना जाए तो एक किसान हर रोज महज 27 रुपए ही अर्जित कर पा रहा है। इतनी कम आय में खेतों पर काम करना और ठीक-ठाक तरीके से अपने जीवन को चलाए रखना न सिर्फ मुश्किल है बल्कि नामुमकिन है। यह चिंता 21 नवंबर, 2024 को सुप्रीम कोर्ट में दाखिल उच्च स्तरीय समिति की अंतरिम रिपोर्ट में जाहिर की गई है। समिति की यह अंतरिम रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट के 2 नवंबर, 2024 के आदेश का अनुपालन करते हुए दाखिल की गई। इस उच्च समिति की अध्यक्षता पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के रिटायर्ड जज नवाब सिंह ने की।
समिति का गठन करते समय, सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि किसानों के विरोध का राजनीतिकरण नहीं किया जाना चाहिए। समिति में सेवानिवृत्त आइपीएस अधिकारी बीएस संधू, मोहाली निवासी देविंदर शर्मा, प्रोफेसर रंजीत सिंह घुमन और पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के कृषि अर्थशास्त्री डा. सुखपाल सिंह शामिल हैं।
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, समिति ने साल भर से शंभू बॉर्डर पर अपनी मांगों को लेकर बैठे हरियाणा और पंजाब के किसानों से बातचीत व कृषि क्षेत्र की स्थिति का जायजा लेने के बाद यह रिपोर्ट तैयार की है। अंतरिम रिपोर्ट में 2018-19 में किए गए राष्ट्रीय सर्वेक्षण पर आधारित “सिचुएशन असेसमेंट ऑफ एग्रीकल्चरल हाउसहोल्ड्स एंड लैंड एंड लाइवस्टॉक होल्डिंग्स ऑफ हाउसहोल्ड्स इन रूरल इंडिया” का हवाला देते हुए बताया गया है “कृषि परिवारों की औसत मासिक आय केवल 10,218 रुपए है और वे औसत कृषि आय पिरामिड के निचले हिस्से में है।” रिपोर्ट बताती है कि ठहरे उत्पादन और घटती आय ने किसानों के सिर पर कर्ज का बड़ा बोझ लाद दिया है। यह बोझ उन्हें मौत की तरफ धकेल रहा है।
नेशनल बैंक फॉर एग्रीकल्चर एंड रूरल डेवलपमेंट (नाबार्ड-2023) की रिपोर्ट के हवाले से कहा कि “हाल के दशकों में किसानों और कृषि मजदूरों पर कर्ज कई गुना बढ़ गया है। 2022-23 में, पंजाब में किसानों का संस्थागत कर्ज 73,673 करोड़ रुपए था, जबकि हरियाणा में यह और भी अधिक 76,630 करोड़ रुपए था। इसके अलावा राष्ट्रीय सैंपल सर्वे संगठन (एनएसएसओ-2019) के मुताबिक किसानों पर गैर-संस्थागत कर्ज का भी एक बड़ा बोझ है, जो पंजाब में कुल बकाया कर्ज का 21.3 फीसदी और हरियाणा में 32 फीसदी है।” अंतरिम रिपोर्ट बढ़ते कर्ज की इस चिंता को एक बड़ी त्रासदी के तौर पर देखता है। समिति ने कहा कि करीब 30 वर्षों में 4 लाख से अधिक किसान और खेतिहर मजदूर आत्महत्या कर चुके हैं।
समिति ने रिपोर्ट में कहा “नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) ने 1995 से आत्महत्या का डेटा एकत्र करना शुरू किया है तबसे अब तक 4 लाख से अधिक किसान और कृषि मजदूर आत्महत्या कर चुके हैं। वहीं, पंजाब में, तीन सार्वजनिक क्षेत्र विश्वविद्यालयों द्वारा किए गए घर-घर सर्वेक्षण में 2000 से 2015 के बीच कुल 16,606 आत्महत्याएं दर्ज की गईं।”
ऐसा क्यों हुआ?, की बाबत “रिपोर्ट में बताया गया है कि 1990 के दशक के मध्य में हरित क्रांति से हुए शुरुआती लाभों के बाद कृषि उत्पादन और उपज में ठहराव आने से इस संकट की शुरुआत हुई। वहीं, हाल के वर्षों में किसानों और कृषि मजदूरों पर कर्ज का बोझ कई गुना बढ़ गया है।” वहीं, कृषि आय में गिरावट उत्पादन लागत में वृद्धि और रोजगार के घटते अवसरों ने किसानों की समस्याओं को और गहरा कर दिया है। खासतौर से छोटे और सीमांत किसान और कृषि मजदूर इस आर्थिक संकट से सबसे अधिक प्रभावित हुए हैं।
रिपोर्ट के मुताबिक “राष्ट्रीय स्तर पर कृषि क्षेत्र में काम करने वाले 46 फीसदी श्रमिकों का योगदान आय में केवल 15 फीसदी है। इसके अलावा, छिपी हुई बेरोजगारी और परिवार के बिना वेतन वाले श्रमिकों की उच्च दर भी इस संकट का हिस्सा है।”
पंजाब और हरियाणा की हालत सबसे ज्यादा खराब
रिपोर्ट के मुताबिक, वर्ष 2014-15 से 2022-23 के बीच पंजाब का कृषि क्षेत्र 21 प्रमुख कृषि राज्यों में से 20वें स्थान पर रहा, जिसकी वार्षिक वृद्धि दर केवल 2 फीसदी थी। हरियाणा 3.38 फीसदी वार्षिक वृद्धि दर के साथ 16वें स्थान पर रहा। दोनों राज्य राष्ट्रीय औसत से नीचे प्रदर्शन कर रहे हैं। इसके अलावा रिपोर्ट में कृषि क्षेत्र पर जलवायु परिवर्तन और पर्यावरणीय समस्याओं की बात भी की गई है। रिपोर्ट के मुताबिक इसने कृषि क्षेत्र को और कमजोर कर दिया है। जल स्तर में गिरावट, सूखा, अत्यधिक बारिश, गर्म हवाओं और फसल अवशेष प्रबंधन जैसी चुनौतियों ने खाद्य सुरक्षा को खतरे में डाल दिया है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि “यह संकट ऐसे समय में आया है जब यह स्पष्ट हो चुका है कि कृषि विकास और स्थिरता में गरीबी दूर करने और बड़ी आबादी को आजीविका प्रदान करने की क्षमता है। कृषि क्षेत्र में सुधार और इसे लाभकारी बनाने के लिए ठोस कदम उठाने की सख्त आवश्यकता है।” समिति ने अपनी अंतरिम रिपोर्ट की प्रमुख सिफारिशों में कहा है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को कानूनी मान्यता देने के साथ कर्ज राहत और रोजगार सृजन के उपाय किए जाएं। साथ ही जैविक खेती और फसल विविधीकरण को बढ़ावा दिया जाए। कृषि विपणन प्रणाली में सुधार किए जाएं।
त्रुटिपूर्ण कृषि लागत की गणना पर घोषित समर्थन मूल्य गैर-कानूनी और किसानों का खुला शोषण
केंद्र सरकार की ओर से 16 अक्टूबर 2024 को रबी विपणन सीजन 2025-26 के लिए सभी अनिवार्य रबी फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की घोषणा की गई। इसके अनुसार गेहूं 2425 रुपए, जौ 1980 रुपए, चना 5650 रुपए, मसूर 6700 रुपए, सरसों 5950 रुपए और कुसुम का 5940 रुपए प्रति क्विंटल समर्थन मूल्य निर्धारित किया गया है। पिछले वर्ष के मुकाबले गेहूं में 150 रुपए, सरसों में 300 रुपए, चना में 210 रुपए, जौ में 130 रुपए, मसूर में 275 रुपए व कुसुम में 140 रुपए के समर्थन मूल्य की बढ़ोतरी की गई है।
सरकारी नीति के अनुसार वर्ष 1967 से लगातार केंद्रीय कृषि लागत व मूल्य आयोग द्वारा की गई कृषि लागत की गणना के आधार पर केन्द्र सरकार प्रमुख फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करती है, जिसे आम भाषा मे एमएसपी मूल्य कहा जाता है। सरकार इन्हीं न्यूनतम समर्थन मूल्य की दर पर किसानों से फसलों की खरीद करती है। हालांकि खुले बाजार में इन फसलों का मूल्य सरकार के एमएसपी से कम या ज्यादा हो सकता है। यानी निजी व्यापारियों और बिचौलियों पर सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की कोई कानूनी बाध्यता नहीं है। एमएसपी को गारंटी कानून बनाए जाने की मांग के लिए किसान देशभर मे लगातार धरना-प्रदर्शन कर रहे हैं और किसान की मांग सुनते के लिए माननीय सर्वोच न्यायालय ने एक कमेटी का गठन भी किया है।
पिछले 56 वर्षों से सरकार विभिन्न फसलों के समर्थन मूल्य की घोषणा कर रही है जिसका लाभ कुछ फसलों की सरकारी खरीद पर लगभग 10 प्रतिशत किसानों को मिल रहा है। बाकी 90 प्रतिशत किसान समर्थन मूल्य से कम पर फसल बिचौलियों को बेचने को मजबूर हैं। यह समर्थन मूल्य की घोषणा करने वाली सरकार की विश्वसनीयता पर भी सवाल है।
समर्थन मूल्य सी-2 कुल लागत पर घोषित नहीं होने से सरकार को उपज बेचने वाले लगभग एक करोड़ किसानों को एक लाख करोड़ रुपए वार्षिक से ज्यादा और समर्थन मूल्य गारंटी कानून नहीं बनने से समर्थन मूल्य से कम पर फसल उपज बेचने वाले देश के 12 करोड़ किसानों को लगभग 4 लाख करोड़ रुपए वार्षिक नुकसान होता है। सरकार और बिचौलियों द्वारा किए जा रहे इस भारी आर्थिक शोषण के कारण ही देश का किसान कर्जमंद और ग्रामीण युवा खेती छोड़कर शहरों और विदेशों में पलायन को मजबूर हुए हैं।
भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान नई दिल्ली के पूर्व प्रधान वैज्ञानिक वीरेन्द्र सिंह लाठर की एक रिपोर्ट के अनुसार, केंद्र सरकार द्वारा रबी विपणन सीजन 2025-26 के लिए एमएसपी की घोषणा केन्द्रीय कृषि लागत व मूल्य आयोग की रिपोर्ट “रबी फसलों की मूल्य नीति (विपणन मौसम 2025-26)” में की गई ए2+ एफएल कृषि लागत की गणना के आधार पर की गई है। देखा जाए तो गेहूं की लागत 1182, जौ की 1239, चने की 3527, मसूर की 3537, तोरिया-सरसों की 3011 और कुसुम की 3960 रुपए प्रति क्विंटल दर्शाई गई है। लेकिन इसी रिपोर्ट में दी गई विभिन्न सारणी केन्द्रीय कृषि लागत व मूल्य आयोग द्वारा जानबूझकर की गई त्रुटिपूर्ण ए2+ एफएल कृषि लागत गणना की पोल खोल रही है।
खास है कि गेहूं की ए2+ एफएल कृषि लागत वर्ष 2022-23 मे 43760 रुपए प्रति हेक्टेयर थी और अखिल भारतीय रबी फसलों के कृषि आदान मूल्य सूचकांक (आधार 2011-12) में वर्ष 2023-24 में और वर्ष 2024-25 में क्रमश 8.9 और 5.3 प्रतिशत वार्षिक बढ़ोतरी दर्ज हुई यानि वर्ष 2022-23 से वर्ष 2024-25 के दौरान कुल लागत 14.2 प्रतिशत बढ़ी।
इसके अनुसार गेहूं की ए2+ एफएल कृषि लागत वर्ष 2022-23 में 43760 प्रति हेक्टेयर से वर्ष 2024-25 में बढ़कर 49,974 रुपए प्रति हेक्टेयर हो जाएगी। फिर सारणी 3.7 के अनुसार गेहूं की अखिल भारतीय औसत पैदावार 35.3 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है। इसके अनुसार वर्ष 2024-25 के लिए गेहूं की ए2+ एफएल कृषि लागत 1416 प्रति किवंटल बनती है, जो कृषि लागत व मूल्य आयोग द्वारा गणना की गई गेहूं की ए2+ एफएल कृषि लागत 1182 रुपए से 234 रुपए प्रति क्विंटल ज्यादा बनती है। ऐसी ही त्रुटिपूर्ण कृषि लागत गणना दूसरी फसलों की ए2+ एफएल कृषि लागत की गणना में भी की गई है जो केन्द्रीय कृषि लागत व मूल्य आयोग जैसी सरकारी संस्था की निष्पक्षता पर संदेह खड़ा करता है, जिसकी देश और किसान हित में उच्च स्तरीय जांच होनी चाहिए।
शीर्ष अदालत के विचार के लिए 11 मुद्दे
एमएसपी को कानूनी मान्यता की संभावना तलाशने सहित समाधान सुझाए समिति ने न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को कानूनी मान्यता और प्रत्यक्ष आय सहायता देने की संभावना तलाशने सहित विभिन्न समाधान भी सुझाए। जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस उज्जल भुइयां की पीठ ने शुक्रवार को अंतरिम रिपोर्ट को रिकार्ड पर लिया और समिति के प्रयासों और जांच किए जाने वाले मुद्दों को तैयार करने के लिए उसकी प्रशंसा की।
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, समिति ने शीर्ष अदालत के विचार के लिए 11 मुद्दे तैयार किए हैं। इनमें कृषि को पुनर्जीवित करने के उपाय, बढ़ते कर्ज बुनियादी कारणों की जांच करना, किसानों और ग्रामीणों के बीच बढ़ती अशांति के कारणों की जांच करना शामिल है। इससे किसानों और सरकार के बीच विश्वास बहाल करने में मदद मिलेगी। बढ़ते कर्ज संकट पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है ताकि कर्ज में डूबे किसानों और कृषि श्रमिकों को राहत मिल सके।
समिति ने अंतरिम रिपोर्ट में कहा, देश में किसान विशेष रूप से पंजाब और हरियाणा के किसान दो दशक से अधिक समय से लगातार बढ़ते संकट का सामना कर रहे हैं। हरित क्रांति के शुरुआती लाभ के बाद, पिछली सदी के नौवें दशक के मध्य से उपज और उत्पादन वृद्धि में ठहराव से संकट की शुरुआत हुई। हाल के दशकों में किसानों और कृषि श्रमिकों पर कर्ज कई गुना बढ़ गया है। कृषि उत्पादकता में गिरावट, बढ़ती उत्पादन लागत, अपर्याप्त मार्केटिंग सिस्टम और सिकुड़ते कृषि रोजगार से कृषि आय वृद्धि में गिरावट आई है। कृषि श्रमिकों के साथ-साथ छोटे और सीमांत किसान इस आर्थिक मंदी से सबसे अधिक प्रभावित हुए हैं।
जलवायु आपदा और इसके घातक परिणाम
जलवायु आपदा भी खाद्य सुरक्षा को कर रहे प्रभावित समिति ने यह भी कहा कि जलवायु आपदा और इसके घातक परिणामों, जिसमें घटता जलस्तर, बार-बार सूखा पड़ना, कुछ क्षेत्रों में अत्यधिक वर्षा का पैटर्न, भीषण गर्मी शामिल हैं, कृषि क्षेत्र और खाद्य सुरक्षा को बड़े पैमाने पर प्रभावित कर रहे हैं। फसल-अवशेषों का प्रबंधन भी कृषि में गंभीर चुनौती बन गया है। समिति ने कहा कि देशभर में किसान की आत्महत्या कर रहे हैं। भारत में 1995 से लेकर अब तक चार लाख से अधिक किसानों और कृषि श्रमिकों ने आत्महत्या की है।
सौजन्य : सबरंगइंडिया
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