AMU का अल्पसंख्यक दर्जा : SC बेंच के फैसले के मायने
नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट के सात जजों की एक बेंच ने एक अहम फैसले में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के अल्पसंख्यक संस्थान के दर्जे को सही ठहराया है।
4-3 के इस फैसले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने एस. अज़ीज़ बाशा बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया के निर्णय को गलत ठहराते हुए विस्तार से चर्चा की कि आखिर किस आधार पर किसी भी अल्पसंख्यक संस्थान की पहचान की जानी चाहिए।
निर्णय में इस बात पर जोर दिया गया कि किसी भी संस्था का अल्पसंख्यक दर्जा केवल इसलिए नहीं छिना जा सकता क्योंकि उसकी स्थापना कानून द्वारा की गई है।
अज़ीज़ बाशा के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने इसी आधार पर अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान के दर्जे को गलत बताया था, क्योंकि उसकी स्थापना एक कानून द्वारा की गई थी।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत अल्पसंख्यकों, जो भाषायी और धार्मिक आधार पर हो सकते हैं, को स्वतंत्र रूप से अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने का अधिकार है, साथ ही उनके प्रशासन को भी नियंत्रित करने का अधिकार है।
इस अनुच्छेद को मौलिक अधिकारों में शामिल करने का उद्देश्य संविधान निर्माताओं की इस मंशा को दर्शाता है कि भारत में किसी भी प्रकार से अल्पसंख्यक संस्कृति और शिक्षा को दबाया या समाप्त न किया जा सके। इसमें संस्थान के प्रकार, उसकी संबद्धता तय करने और स्टाफ नियुक्त करने का अधिकार शामिल है।
राज्य अल्पसंख्यक दर्जे के आधार पर किसी भी शैक्षणिक संस्थान के साथ भेदभाव नहीं कर सकता जब उसे सहायता प्रदान की जा रही हो। अल्पसंख्यक संस्थानों को बहुसंख्यक द्वारा स्थापित संस्थानों के समान ही व्यवहार और संरक्षण मिलना चाहिए।
हालांकि अल्पसंख्यकों को शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने और उनका संचालन करने का अधिकार है, उन्हें उन उचित नियमों का पालन करना होगा जो राज्य शिक्षा के स्तर को बनाए रखने, कल्याण सुनिश्चित करने या कुप्रशासन को रोकने के लिए लागू कर सकता है।
सेंट जेवियर्स कॉलेज बनाम गुजरात राज्य (1974) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों को अपने समुदाय के छात्रों को प्रवेश देने का अधिकार है और प्रवेश के दौरान उन्हें प्राथमिकता दी जा सकती है, बशर्ते कि प्रवेश प्रक्रिया निष्पक्ष और पारदर्शी हो।
इस निर्णय में कोर्ट ने प्रशासनिक और नियुक्ति की व्यवस्था को लेकर व्यापक चर्चा की, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि अल्पसंख्यक संस्थानों में भी दाखिले के तरीके और प्रशासनिक अनुपालन समान रूप से लागू होंगे और इसमें कोई भी भेदभाव नहीं किया जाएगा।
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय केस में बहुमत का पक्ष
बहुमत में न्यायाधीशों ने अनुच्छेद 30 को व्यापक स्तर पर देखने की बात की, जिसमें इसके प्रभाव को आजादी के बाद तक सीमित करने को पूरी तरह गलत बताया गया। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि ‘अधिनियमित करना’ और ‘स्थापना करना’ एक-दूसरे के स्थान पर उपयोग नहीं किए जा सकते।
केवल इस कारण कि एएमयू (अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय) को एक ब्रिटिश कानून द्वारा अधिनियमित किया गया था, इसका मतलब यह नहीं है कि इसकी स्थापना अल्पसंख्यक समुदाय ने नहीं की थी। इस प्रकार का औपचारिक दृष्टिकोण अनुच्छेद 30 के उद्देश्यों को निष्फल कर देगा।
कोई भी अल्पसंख्यक संस्थान अपनी स्थापना के साथ यह सुनिश्चित करता है कि उसकी प्रशासनिक व्यवस्था में अल्पसंख्यकों की भागीदारी अधिक होगी।
जस्टिस चंद्रचूड़ ने संस्था के प्रशासन पर निर्णय देते हुए स्पष्ट किया कि अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों को प्रशासन का अधिकार इस उद्देश्य से दिया गया है कि उन्हें इतनी स्वायत्तता प्राप्त हो सके, जिससे वे अपने शैक्षणिक संस्थान को उन शैक्षणिक मूल्यों के अनुसार ढाल सकें, जिन पर उनका समुदाय बल देना चाहता है।
यह आवश्यक नहीं है कि इस उद्देश्य को केवल तभी पूरा किया जा सकता है जब समुदाय के ही लोग प्रशासनिक कार्यों का नेतृत्व करें, क्योंकि एक अल्पसंख्यक संस्थान धर्मनिरपेक्ष शिक्षा पर भी जोर दे सकता है।
परंतु, यदि प्रशासन में नियुक्त लोग संस्था के अल्पसंख्यक मानकों का पालन नहीं करते हैं और वे उनके अधिकार और संस्कृति के संरक्षण में कार्य नहीं कर रहे हैं, तो वास्तविक रूप से ऐसे प्रशासन को अल्पसंख्यक संस्था के लिए सही नहीं माना जा सकता है।
इस निर्णय के विरोध में मत रखने वाले न्यायाधीशों का कहना था कि यदि किसी विश्वविद्यालय की स्थापना ही इस आधार पर हुई है कि वह अल्पसंख्यक संस्थान के रूप में उनके अधिकारों और संस्कृति के लिए बना है, तो इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह सरकारी कानून द्वारा स्थापित है या नहीं।
परंतु यदि एक संस्था में विशेष धर्म और भाषा के साथ-साथ अन्य धर्मनिरपेक्ष पहलुओं को भी बराबर की वरीयता दी जा रही है, तो उसके विशेष दर्जे की मांग को स्वीकार नहीं किया जा सकता है। अन्य न्यायाधीशों ने इस बात पर भी जोर दिया कि ‘स्थापित’ और ‘प्रशासित’ दोनों शब्दों का एक साथ एक सम्बन्ध में उपयोग करने की जरूरत है।
बहुमत का निर्णय इसके विपरीत था, जिसमें उन्होंने इन दोनों शब्दों के प्रयोग से आगे जाते हुए संस्था की स्थापना की मंशा पर जोर दिया और इस बात पर गौर किया कि संस्थान की स्थापना किसने की।
निर्णय का महत्व और संभावित प्रभाव
यह निर्णय न्यायालय द्वारा उस समय आया है जब पूरे देश में अल्पसंख्यक संस्थानों एवं मुस्लिम समुदाय पर खुले रूप से हमले किए जा रहे हैं। उनके घर तोड़े जा रहे हैं, मदरसों को बंद किया जा रहा है, मस्जिदें तोड़ी जा रही हैं, घर जलाए जा रहे हैं और दुकानें जलाई जा रही हैं।
यह निर्णय वास्तविक स्थिति को किस स्तर तक बदल पाएगा, यह एक बड़ा सवाल है। परंतु देश का अल्पसंख्यक समुदाय, जो हर तरफ से निराश हो रहा है, कहीं न कहीं न्यायालय को अपना अंतिम न्याय क्षेत्र मानकर आशा करता है। (निशांत आनंद दिल्ली विश्वविद्यालय में कानून के छात्र हैं।)
सौजन्य :जनचौक
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