हिंदुत्व की बाढ़ में पटाखे का मतलब मौत है, दिवाली नहीं!
दिवाली के अगले दिन जब भारत की राजधानी दिल्ली ने आँखें खोलीं तो उसे वायु प्रदूषण का ख़तरनाक स्तर देखने को मिला। प्रकाश और ज्ञान के पर्व को, शोर और धुएँ के ज़हर में बदलने को कुछ लोग धार्मिक आस्था और स्वतंत्रता से जोड़कर देखने की ज़िद कर रहे हैं। ये उनकी ही ज़िद और ज़बरदस्ती का परिणाम है कि दिल्ली में हवा विश्व स्वास्थ्य संगठन की निर्धारित सीमा से लगभग 14 गुना अधिक प्रदूषित पायी गई।
वंदिता मिश्रा
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने बताया कि दिवाली के बाद दुनिया के सबसे ख़तरनाक वायु प्रदूषकों में से एक PM2.5 का स्तर लगभग 210 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर था जोकि WHO द्वारा निर्धारित सीमा, 15 माइक्रोग्राम, से बहुत अधिक था।
वायु गुणवत्ता सूचकांक (AQI) के अनुसार पूरी दिल्ली की हवा ‘बहुत ख़राब’ श्रेणी में पहुँच गई। दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति ने जो आँकड़े पेश किए वो और भी चौंकाने वाले थे। समिति ने कहा कि पटाखे छूटने के दौरान रात में एक वक़्त ऐसा भी आया जब PM2.5 का स्तर WHO द्वारा निर्धारित सीमा से 100 गुना अधिक था।
बढ़ते हुए वायु प्रदूषण को सामान्य घटना समझना बहुत भारी भूल होगी। क्योंकि ख़तरा बहुत ही ज़्यादा है इसे किसी मुख्यमंत्री के ‘गिनीज बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स’ बनाने की चाहत के दायरे से नहीं समझा जा सकता। भारत को असलियत से सामना करना है और दुनिया के सबसे बड़े संकट से लड़ाई की तैयारी करनी है। नेहरू के योजना आयोग को समाप्त करके पीएम मोदी ने 2015 में इसे नीति आयोग का नाम दे दिया। तबसे नीति आयोग प्रधानमंत्री की प्रमुख सलाहकारी संस्था के रूप में स्थापित है। नीति आयोग ने 2020 में ‘कन्फ्रंटिंग एयर पॉल्यूशन इन इंडिया’ रिपोर्ट बनाई और दावा किया कि “वायु प्रदूषण के कारण हर साल 12 लाख से अधिक मौतें समय से पहले हो जाती हैं, जिससे देश को स्वास्थ्य लागत और खोई हुई श्रम उत्पादकता की वजह से GDP का लगभग 8.5% नुकसान होता है।” इस रिपोर्ट ने वायु प्रदूषण के कारण होने वाले सार्वजनिक स्वास्थ्य और आर्थिक विकास पर दोहरे प्रभाव को चिन्हित किया। समयपूर्व होने वाली मौतों का अर्थ ही यह है कि हमारे अपने लगभग 12 लाख लोग जो कुछ साल और हमारे साथ रह सकते थे वे हमें छोड़कर और पहले ही चले गये।
वायु प्रदूषण को रोकने की जिम्मेदारी सरकार की है। इसे नागरिकों के कंधों पर नहीं टाला जा सकता है।
संसद ने 1981 में वायु (प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण) अधिनियम बनाकर सरकारों को सशक्त किया जिससे समय पर निर्णय लिए जा सकें। लेकिन सरकारों ने और केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने ज़्यादा कुछ किया नहीं, जबकि इन्हें जल प्रदूषण अधिनियम 1974 और वायु प्रदूषण अधिनियम 1981 पर्याप्त शक्तियाँ प्रदान करता है। पर एक वक़्त के बाद यह तय हो गया कि इन क़ानूनों से काम नहीं चलेगा तो 2010 में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल एक्ट के माध्यम से NGT की स्थापना की गई। इस संस्था को एक गहरा उद्देश्य दिया गया। तत्कालीन UPA सरकार द्वारा इस क़ानून को ‘जीवन का अधिकार’ (अनुच्छेद-21) से जोड़ दिया गया, और इसके अधिकारों को मूल अधिकार के रूप में अपनाया गया। यह बहुत ही क्रांतिकारी फ़ैसला था क्योंकि अभी तक स्वस्थ पर्यावरण का काम ‘राज्य के नीति निदेशक तत्वों’ के रूप में किया जाता था। सुप्रीम कोर्ट ने भी यह माना कि स्वस्थ पर्यावरण का अधिकार एक मूल अधिकार है जिसे सबसे महत्वपूर्ण ‘जीवन के अधिकार’ के रूप में लेना चाहिए।
इतना सब होने के बाद भी कुछ बदलता नहीं दिख रहा है। इसका कारण क्या है? क्या कार्यपालिका क़ानूनों का अनुपालन नहीं करा पाती? हाँ शायद यही कारण है, क्योंकि क़ानून से न्याय का रास्ता बनता है, और संसद क़ानून बनाकर अपनी ज़िम्मेदारी निभाती है। लेकिन सरकार के द्वारा प्रदूषण फैलाने वाली कंपनियों के ख़िलाफ़ कोई कार्यवाही नहीं की जाती है, सरकार के संरक्षण में पर्यावरण मानकों की अनदेखी की जाती है। पश्चिमी घाट और हसदेव अरण्य जैसे संवेदनशील क्षेत्रों को बेचने में सरकार ख़ुद ही योगदान देती है, तो यह कार्यपालिका का ही दोष है ना?
और फिर जब कोई अंतरराष्ट्रीय संस्था रिपोर्ट बनाकर कहती है कि भारत 180 देशों की तालिका में 176वें स्थान (पर्यावरण प्रदर्शन सूचकांक-2024) पर है तो सरकार के गौरव पर चोट लग जाती है।
जब एक स्विस संगठन IQAir कहता है कि विश्व के 50 सबसे प्रदूषित शहरों में से 39 भारत में स्थित हैं (मार्च 2023), तो सरकार का स्वाभिमान चकनाचूर हो जाता है। 2021 में भी ऐसे ही हालात थे, दुनिया के 30 सबसे प्रदूषित शहरों में से 22 भारत से ही थे, पर सरकार से जुड़े संगठनों और उनसे जुड़े व्यक्तियों ने वायु प्रदूषण को और गहरा करने में बढ़ चढ़ कर योगदान दिया।
मेरा सवाल ये है कि सरकार की लापरवाही की चोट जो हर पल देश के नागरिकों को लग रही है उसका क्या? सभी के घर पर प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और अन्य वीआईपी जैसे लोग तो नहीं होते और न ही वैसी सुविधाएं होती हैं। वायु प्रदूषण के मुख्य कारकों पर तो चर्चा होती ही है लेकिन आज के हिंदुत्व की बाढ़ में लोग दीपावली पर फोड़े जाने वाले पटाखों पर चर्चा करने में डरते हैं कि कहीं उन्हें धर्म विरोधी ना साबित कर दिया जाए, उन्हें गाली देने वाले जॉम्बीज की फौज को सोशल मीडिया में ना उतार दिया जाए। लेकिन कुछ भी हो इस पर चर्चा तो की ही जानी चाहिए क्योंकि दीपावली पर पटाखे छोड़ना भारतीय परंपरा का हिस्सा नहीं बल्कि यह मध्यकाल की युद्ध नीति का एक बाई-प्रोडक्ट है जिसे औपनिवेशिक काल का शोषणकारी समर्थन प्राप्त है।
10.4 करोड़ लोग ऑब्सट्रक्टिव स्लीप एपनिया से पीड़ित
वैज्ञानिक मानते हैं कि दिवाली के पटाखों का प्रभाव 10-15 दिनों तक बना रह सकता है। मतलब, इन कणों (PM2.5) का उच्च स्तर लगभग दो सप्ताह तक बना रहता है और इस बीच इससे क्या क्या परेशानियाँ होती होंगी, क्या सरकार को मालूम भी है? इन कणों के संपर्क में आते ही जो लोग बीमार पड़ जाते हैं उनकी परवाह सरकार करती भी है? ऐसे लोगों की संख्या तो करोड़ों में है? फ़र्क़ तो पड़ना चाहिए ना? एम्स दिल्ली के एक अध्ययन के अनुसार, भारत में लगभग 10.4 करोड़ लोग ऑब्सट्रक्टिव स्लीप एपनिया (OSA) से पीड़ित हैं। इसका मतलब है कि ये लोग साँस की समस्या की वजह से सो नहीं पाते। ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजीज स्टडी 2016 के अनुसार, भारत में क्रॉनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज (COPD) के लगभग 5.6 करोड़ मामले थे। वर्तमान में यह आंकड़ा कहाँ पहुँचा होगा, अंदाज़ा लगाया जा सकता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की 2020 की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में टीबी के लगभग 26 लाख मामले दर्ज किए गए थे जोकि अब बढ़कर 29 लाख प्रतिवर्ष हैं। ग्लोबल अस्थमा रिपोर्ट 2022 के अनुसार, भारत में लगभग 3.5 करोड़ लोगों को अस्थमा है। दुनियाभर में अस्थमा से होने वाली कुल मौतों में से 42% अकेले भारत में ही होती हैं। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान का एक अध्ययन बताता है कि यदि प्रदूषण की मौजूदा दर ऐसे ही बनी रही, तो 2050 तक भारत में श्वसन और हृदय रोगों में 50% से अधिक वृद्धि हो सकती है। हवा का स्तर घटिया होता जा रहा है और इसकी वजह से 75 सालों में बमुश्किल हासिल की गई उच्च जीवन प्रत्याशा अब नीचे की ओर जा सकती है। एयर क्वालिटी लाइफ़ इंडेक्स (AQLI) के अनुसार, भारत में औसतन वायु प्रदूषण के कारण जीवन प्रत्याशा में 5.3 वर्ष की कमी आती है। दिल्ली जैसे शहरों में तो यह कमी 11.9 वर्षों तक हो सकती है। क्या यह डरावना नहीं है?
क्या लोगों में अपने बच्चों और बुजर्गों से प्रेम कम हुआ है? या धर्म की आँधी में प्रेम का भी भगवाकरण हो गया है। भारतीय इतिहास के किसी भी महापुरुष को दिवाली मनाने के लिए, पटाखे छोड़ने की ज़रूरत नहीं पड़ी।
अपने अंदर का हिंदू साबित करने के लिए पटाखे जलाने की ज़रूरत नहीं पड़ी। ये तो उन ग़ैर ज़िम्मेदारों की सीख और काम है, उनका ग़ैर ज़िम्मेदाराना आवेग है जो ध्रुवीकरण करके सत्ता में हमेशा के लिए बने रहना चाहता है। आज कई कट्टरपंथी हिंदू संगठन लोगों को दिवाली में पटाखे जलाने के लिए न सिर्फ़ उत्साहित करते रहते हैं बल्कि इसके साथ कट्टरपंथ भी इंजेक्ट करने की कोशिश करते हैं। बजाय इसके कि हिंदू संवेदनशील बने, पर्यावरण की रक्षा की बात करे, समाज में वायु प्रदूषण से प्रभावित होने वाले लोगों के प्रति संवेदना रखें, उसे न्यू ईयर में जलाने वाले पटाखों और बकरीद में मारे जाने वाले बकरों की याद दिलाई जाती है। यह उचित नहीं है। कोई धर्म अपने अस्तित्व, अपने आदर्शों और विचारों की पहचान के लिए अन्य धर्मों की परंपराओं पर आश्रित नहीं रह सकता। यह ग़ुलामी है, असुरक्षा है। लेकिन सत्य भी यहीं, इसी असुरक्षा में ही छिपा है। यही असुरक्षा किसी को राजनैतिक वर्चस्व प्रदान कर रही है तो लाखों को दंगाइयों में बदल रही है। वैदिक साहित्य का एक बड़ा हिस्सा प्रकृति पूजा पर टिका है और यही हमारी विरासत है। लोगों को यह बताने की कोशिश की जा रही है कि एक दिन दिवाली मना लेने से पहाड़ नहीं टूट जाएगा। कहा जा रहा है कि हवा ख़राब हो ही नहीं सकती क्योंकि यह एक जगह नहीं ठहरती। यह भी कहा जा रहा है कि यह सब एक साजिश है जिसे हिंदू धर्म के ख़िलाफ़ इस्तेमाल किया जा रहा है। लेकिन जैसा कि नाओमी ऑरेसकेस और एरिक एम. कॉनवे की किताब मर्चेंट्स ऑफ़ डाउट में यह कहा गया है कि-
समाज में शिक्षित लोगों का एक समूह खड़ा करके किसी घोषित वैज्ञानिक तथ्य की अनदेखी की योजना चलाई जाती है जिससे कुछ लोगों को फ़ायदा हो। जिस तरफ़ यह फ़ायदा जाता है उस ओर-राजनेता और उद्योगपति होते हैं।
नकारने वालों ने तो जलवायु परिवर्तन को भी नकार दिया था। द लैंसेट में जुलाई 2024 में प्रकाशित एक अध्ययन में बताया गया है कि भारत के 10 प्रमुख शहरों में वायु प्रदूषण का योगदान प्रतिदिन होने वाली कुल मौतों में 7% से अधिक है। केवल दिल्ली में ही, PM2.5 के उच्च स्तर के कारण लगभग 12,000 वार्षिक मौतें होती हैं। इतना सब जानने के बावजूद अगर देश के सबसे बड़े राज्य का मुख्यमंत्री कहे कि “दिवाली पर पटाखों का उपयोग केवल प्रदूषण का मुद्दा नहीं है। हमें अपनी सांस्कृतिक और धार्मिक परंपराओं का सम्मान करना चाहिए। धार्मिक त्योहारों के अवसर पर अपने रीति-रिवाजों का पालन करना हमारे अधिकारों का हिस्सा है।” तब क्या कहें? पर यह तो ज़रूर कहूँगी कि मुख्यमंत्री यह नहीं समझ रहे हैं कि पर्यावरण पहले है और धर्म व संस्कृति बाद में है। हवा जीने लायक़ बची रही तो धर्म, मंदिर, मस्जिद सब चलते रहेंगे। अगर ऐसा नहीं हुआ तो इन धार्मिक स्थलों में जाने वाला कोई बचेगा क्या?
‘हरित पटाखों’ की बिक्री की ही अनुमति
इसीलिए भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अर्जुन गोपाल बनाम भारत संघ मामले में पहल करते हुए सिर्फ़ ‘हरित पटाखों’ की बिक्री की ही अनुमति दी थी। साथ ही यह भी आदेश दिया था कि प्रशासन यह सुनिश्चित करे कि पटाखों का उपयोग सिर्फ़ रात 8 बजे से 10 बजे तक ही किया जाएगा। कोर्ट ने धर्म के नशे में झूम रहे लोगों के लिए ही कहा था कि “हमारा उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि त्योहार मनाया जाए, लेकिन इस तरह से कि दूसरों के स्वास्थ्य और पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़े।” न्यायालय ने अपने इस निर्णय को बाद में 2021 में भी दोहराया। 2020 में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (NGT) ने आदेश दिया कि “वायु गुणवत्ता की गंभीर स्थिति को देखते हुए, यह ज़रूरी है कि पटाखों के उपयोग पर प्रतिबंध लगाया जाए जिससे जनस्वास्थ्य की रक्षा की जा सके”। लेकिन धीरेंद्र शास्त्री जैसे लोगों का क्या? ये तो ख़ुद को क़ानून और संविधान से ऊपर समझ बैठे हैं? उनका कहना है कि “जब बकरीद में बकरे की कुर्बानी पर प्रतिबंध नहीं है तो फिर पटाखों पर प्रतिबंध क्यों लगना चाहिए? पर्यावरण संतुलन के लिए क्या सिर्फ सनातनी लोग ही जिम्मेदार हैं?” मुझे लगता है कि न्यायालय को ऐसे उद्दंड लोगों के ख़िलाफ़ फैसला करना चाहिए जिन्हें लोगों के जीवन के अधिकार से बड़ा, सर्वोच्च न्यायालय के आदेश से बड़ा, स्वनिर्मित धार्मिक प्रोपेगंडा नजर आ रहा है।
असलियत तो यह है कि दिवाली के पटाखों से न हिंदुओं का फायदा हो रहा है और न ही हिंदुस्तान का। इससे फ़ायदा है चीनी कंपनियों का जो पटाखे बनाकर भारतीय बाजारों को भर रही हैं।
उनका भी जो रंग-बिरंगी झालरें बेचकर हिंदुस्तानी दीवारों को उसकी संस्कृति और परंपराओं से दूर ले जा रही हैं। इसमें बहुत से हिंदुस्तानी व्यापारियों और नेताओं का भी फ़ायदा है जो धर्म की आड़ में जेब और पैसे को स्थाई बनाने की कोशिश में लगे हैं। मरते, तड़पते और परेशान होते भारत की फ़िक्र करने वालों को ‘अलार्मिस्ट’ कहकर गालियाँ दी जा रही हैं। और साँस की समस्या से जूझ रहे भारत की अनदेखी की जा रही है।
मैं तो कहूँगी कि सैनिकों के साथ पहाड़ों में दिवाली मनाने से अच्छा होता कि प्रधानमंत्री दिल्ली में बैठकर घर से बाहर निकल कर दिवाली मनाते। आख़िर उन्हें भी उस हवा का स्वाद मिलता है जिससे दिल्ली समेत पूरा उत्तर भारत हाँफने में लगा है। पहाड़ों की अच्छी और शुद्ध हवा के बीच रहकर उन्हें दिवाली की धुंध महसूस नहीं हो पाएगी, वह घुटन महसूस नहीं हो पाएगी। देश के प्रधानमंत्री होने के नाते उन्हें इस हवा को सबसे ज़्यादा इस्तेमाल करना चाहिए जिससे बेहतर नीतियों का निर्माण किया जा सके।
सौजन्य: सत्य हिन्दी
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