जब मैंने ठान लिया कि जहां अपमान मिले, वहां जाना ही नहीं है : बी.आर. विप्लवी
“किसी के यहां बच्चे की पैदाइश होती थी तो वहां नर्सिंग का काम हमारे घर की औरतें करती थीं। बच्चा पैदा कराना तथा जच्चा और बच्चों की बारह दिनों तक सेवा करना। इसमें जच्चा-बच्चा के मल-मूत्र को हांडियों में इकट्ठा करके फेंकने का काम भी शामिल था। यह मेरे आंखों के सामने की बात है।” पढ़ें, भारतीय रेल के सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी और प्रसिद्ध दलित गजलकार बी.आर. विप्लवी से बातचीत का पहला भाग
साहित्यिक विधाओं में गजलाें का सृजन भी शामिल है। हालांकि इसे एक खास धर्म अथवा भाषा-भाषियों तक सीमित मान लिया जाता है। लेकिन आंबेडकरवादी मूल्यों के आधार पर गजलों के माध्यम से ब्राह्मणवादी परंपराओं को चुनौती देना बी.आर. विप्लवी की खासियत रही है। बीते 15 नवंबर, 2024 को वे दिल्ली में थे। इस मौके पर उन्होंने अपने जीवन और दलित साहित्य (खासकर गजलों के सृजन से संबंधित) के बारे में नवल किशोर कुमार से बातचीत की। प्रस्तुत है इस बातचीत के संपादित अंश का पहला भाग
आपके जीवन की शुरुआत कैसे हुई?
मेरा गांव उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले में सैदपुर तहसील का जेवल गांव है। वह बिल्कुल ठेठ देहात है। वहीं मेरी पैदाइश हुई। इसे मेरा दुर्भाग्य कहें, भाग्य को तो मैं नहीं मानता, लेकिन संयोग, जिसको कहा जाए, मैं एक महीने का था तभी मेरे पिताजी को सांप ने काट लिया और उनका देहांत हो गया। मैं जानता नहीं कि पिता किस चिड़िया का नाम है। और मजे की बात यह है कि मेरे पिताजी उस जमाने में बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएट थे। और मेरे दादा (बाबा) बताया करते थे कि किस तरह से वे छोटे-छोटे काम करके, ठेके पर मजदूरी करके, मेरे पिताजी को राशन, पैसा पहुंचाने बनारस जाते थे। इतने श्रम से जिस बाप ने उम्मीदों के साथ बेटे को पढ़ाया पाला। और जब उनकी लाश पड़ी हुई थी तो उनके पास दो-दो नियुक्ति पत्र लेकर डाकिया आया और वह मुंह पर रूमाल रखकर रो रहा था। मेरे पिता कहते थे कि हम भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी बनेंगे। यह छोटी मोटी नौकरी नहीं… एक नौकरी दरोगा की आई थी, एक रेलवे में स्टेशन मास्टर की आई थी। इस तरह से तो उन्होंने कहा कि नहीं, ये सब नहीं। एक महीने की उम्र वाला बच्चा क्या जानेगा कि बाप क्या है। तब मां की उम्र क्या रही होगी? 25 साल से कम ही रही होगी। उस समय जल्दी शादियां होती थीं। मेरे एक बड़े भाई थे, जो मुझसे तीन-चार साल बड़े हैं।
अपने पिताजी और दादाजी का भी नाम बताइए?
पिताजी का नाम था रामनारायण और बाबा का नाम था फेकू। उन दिनों जब वे मुकदमा लड़ते थे तो दस्तावेजों में उनका नाम फेकू चमार लिखा जाता था। जैसे कि फेकू चमार बनाम फौजदार सिंह। उन्हें फेकू के नाम से ही जाना जाता था। खैर, इसी संदर्भ में मैं बता दूं कि मेरे बाबा अपने हक-ओ-हक़ूक़ के लिए जिंदगी भर संघर्ष करते रहे। जो जमींदार लोग थे, वे हमारी जमीनों पर कब्जा किए हुए थे। बाबा ने हमारी जमीनों को मुकदमा लड़-लड़ कर छुड़ाया। इसी संदर्भ में मुझे याद आया कि मुकदमों के दस्तावेजों में उनका यह नाम था।
जब पिता की मृत्यु हो गई और मां विधवा हो गई तो थोड़ी-सी खेती थी। बस उसी से हमारे बाबा ने हम लोगों का पालन-पोषण किया। पिताजी के बारे में मेरी मां कहती थीं कि कुछ भी हो जाए, तुम लोगों को पढ़ना है। तुम्हारे पिताजी की यही इच्छा थी और वे खुद भी पढ़े-लिखे थे, इसलिए तुम्हें पढ़ना है। इसके लिए कुछ भी करना पड़े, अपना श्रम बेचना पड़े, मन बेचना पड़े, धन बेचना पड़े। उस अनपढ़ महिला को इतना ज्ञान था कि पढ़ाई का महत्व होता है। उसने हम दोनों भाइयों को पढ़ाया। दोनों भाई पढ़े। मेरे बड़े भाई केंद्रीय उत्पाद व कस्टम विभाग में असिस्टेंट कमिश्नर के पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। और मैं तो आपके सामने हूं।
उनका नाम क्या है?
उनका नाम चंद्रमा राम है। वे अभी इलाहाबाद के झूंसी में रहते हैं।
कृपया अपनी प्रारंभिक शिक्षा के बारे में बताएं।
मेरे गांव के बगल में एक गांव है शेखपुर। मेरी प्राथमिक शिक्षा वहीं हुई। और फिर उसके बगल में एक रामपुर माझा गांव है। हमारे गांव से करीब ढाई किलोमीटर दूर होगा। वहां मेरी मिडिल स्कूल शिक्षा हुई। मिडिल का मतलब छठी, सातवीं और आठवीं तक वहां पर पढ़ा। फिर उसके बाद नवीं और दसवीं उसी रामपुर माझा में ही हुई। फिर इंटरमीडिएट करने के लिए मुझे अपने गांव से करीब पंद्रह किलोमीटर दूर एक कस्बे में जाना होता था। मैं प्रतिदिन ट्रेन से आया-जाया करता था।
क्या उस समय ट्रेनों की सुविधाएं नियमित हुआ करती थीं?
जी! ट्रेन से सुविधाजनक यह रहा कि उस समय इमरजेंसी का जमाना था और ट्रेनें बिल्कुल तय समय पर चलती थीं। कोई क्लास छूटता नहीं था। टाइम से पहुंचते थे। लेकिन उसमें समय बहुत बर्बाद होता था। रात में जब लालटेन जलाकर पढ़ने बैठते थे तब कब नींद आ जाती थी, पता ही नहीं चलता था। साइंस का विद्यार्थी था मैं तो मेहनत ज्यादा करनी पड़ती थी। इंटरमीडिएट का साइंस वैसे ही लोगों को चुनौतीपूर्ण लगता था। खासकर मैथमेटिक्स, फिजिक्स, केमेस्ट्री। फिर भी इन सभी विषयों में हमदोनों भाइयों ने अच्छा किया। उन दिनों 75 प्रतिशत से ऊपर अंक पानेवाले के मार्कशीट में लिखा जाता था– ‘सम्मान सहित उत्तीर्ण’। उस जमाने में यह बड़ा मुश्किल काम था। प्रथम श्रेणी में कोई पास नहीं होता था। मेरिट स्कॉलरशिप के रूप में 50 रुपए हमदोनों भाइयों को उस जमाने में मिलती थी। और 12 रुपए एससी और एसटी वाली स्कॉलरशिप थी। यह बड़ी बात थी। आठवीं कक्षा के बाद एक एकीकृत छात्रवृत्ति परीक्षा हुई थी। उसमें मैंने पूरे जिले में पहला स्थान पाया था। उसमें भी हमें 50 रुपए की स्कॉलरशिप मिलती थी। तो इस तरह हमारी आर्थिक हालत पढ़ाई-लिखाई के समय बिल्कुल बढ़िया थी। कोई दिक्कत नहीं थी। हम दोनों भाइयों ने अपने बाबा और मां पर भार नहीं डाला। जो भी हमें स्कॉलरशिप से प्राप्त होता, उसी से हम दोनों भाई आपस में मिलजुल कर मैनेज करते थे।
आप गाजीपुर से हैं और आपकी पैदाइश 1959 की है। उस समय ग्रामीण इलाकों की सामाजिक परिस्थियां कैसी थीं?
बिल्कुल बंटा हुआ समाज था। जैसे मैंने बताया कि मेरे बाबा का नाम फेकू चमार था। तो आप इस नाम से संबोधन करेंगे तभी कोई आपको जान पाएगा। दलित शब्द उस समय उत्तर प्रदेश में उतना प्रचलित नहीं था। साहित्य में भी 1975 के बाद ही इस शब्द का बोलबाला हुआ। तो उस समय दलितों की जो उपजातियां थीं, उनकी बस्तियों के नाम भी उनके आधार पर ही होते थे। अब जैसे किसी अहीर के घर जाना है तो अहिरान टोले में जाना है। कुम्हार के घर जाना है तो कुम्हरान में जाना है। दर्जियों के घर जाना है तो दर्जियान। चमारों के यहां जाना है तो चमरौटी। तो इस तरह से सब बंटा हुआ समाज था। सबके अपने-अपने दायरे थे। एक-दूसरे से मिलना जुलना भी होता था। मतलब यह कि जो बहुजन समाज है, उनके बीच समन्वय की स्थिति थी। जैसे मान लीजिए अहीर और चमार हैं तो आपस में दादा, काका, चाचा, भाई जैसे रिश्ते चलते थे। लेकिन वे जो बाबू साहब (ठाकुर) और पंडित जी हैं, उनके साथ कोई रिलेशन नहीं था। यह जो बाबू साहब संबोधन है, केवल डर के मारे या परंपराओं में चला आ रहा है। यही संबोधन था। स्थितियां इतनी भयावह थीं उस समय में कि आप उनके कुएं से पानी नहीं ले सकते थे। और गांव में सबकी हैसियत नहीं होती थी कि कुंआ खुदवा सके। तो सोच लीजिए कि कैसे तालाबों का पानी पीते… फिल्टर की बात आज जो चल रही है कोई सोच भी नहीं सकता था। वह इजाद भी नहीं हुआ होगा। मेरी समझ से अमेरिका में हुआ होगा तो हुआ होगा। तो इस तरह से चलती थीं चीजें। और सबके काम बंटे हुए थे। उस काम के दायरे से लोग बाहर नहीं जा पाते थे। और चमार का काम है कि यदि कोई जानवर मर गया तो उसको उठाकर लाओ, उसका चमड़ा निकालकर लाओ फिर जो चमड़ा बेचने वाला है, उसको दो। और किसी के यहां बच्चे की पैदाइश होती थी तो वहां नर्सिंग का काम हमारे घर की औरतें करती थीं। बच्चा पैदा कराना तथा जच्चा और बच्चों की बारह दिनों तक सेवा करना। इसमें जच्चा-बच्चा के मल-मूत्र को हांडियों में इकट्ठा करके फेंकने का काम भी शामिल था। ऐसे काम भी करने पड़ते थे। यह मेरे आंखों के सामने की बात है। हमारे गांव-घर का मामला था कि वहां गंवहाई चलती थी। गंवहाई का मतलब यह कि हर चमार के घर के नाम से कुछ सवर्ण-पिछड़ी जातियों के घराने बंटे हुआ करते थे, जिनकी सेवा उनके जिम्मे होती थी। हम लोगों के जिम्मे जो गंवहाई मिली थी, उनमें गड़रिया और बढ़ई जाति के लोगों का परिवार शामिल था। उनके यहां कोई काम होता था तो हम उसे करते ज़रूर थे। लेकिन, उसमें भाईचारे और सहयोग की बात होती थी। भेदभाव का कोई मामला नहीं था। बाकी किसी अन्य सवर्ण के पास हम लोगों को जाना नहीं होता था। कोई दिक्कत होती थी तब हमारी गंवहाई वाले लोग हमारी मदद करते थे और समय पड़ने पर हम उनकी मदद करते थे। इस तरह से यह लेन-देन एवं सहकारिता की भावना से अधिक चलता था। लेकिन जिन्हें सवर्ण कहा जाता है, उनके यहां तो आपका प्रवेश संभव नहीं था। उनके यहां आप जाएंगे तो बरामदे में क्या, आप उनके दरवाजे में घुसने के पहले ही आवाज लगाएंगे। उन्हें पता चल जाएगा कि आगंतुक कोई दलित है। तो इस तरह की स्थितियां थीं। जो दलित और बैकवर्ड थे, उनकी आर्थिक हालत तो बहुत ही खराब थी। भाईचारे और आपसी सहयोग का एक कारण यह भी था। दलित और बैकवर्ड में बहुत फर्क आर्थिक रूप से नहीं था। जैसे तेली जाति के लोग, जो अत्यंत पिछड़े हैं, हमने देखा कि वे हमारे घर में आकर खाना मांगते थे। हमारी आजी (दादी) से कहते थे– “अरे बूढ़ी आज तो हमारे यहां कुछ मिला नहीं, थोड़ा साग बनाई हो तो दे दो।” हमें लगता था कि बाहर तो ये लोग हल्ला करते हैं भेदभाव का और घर में भूख लगी है तो खाएगा ही। तो यह सब चलता था, लेकिन सवर्ण के साथ तो कोई सोच भी नहीं सकता था।
बाबू साहब (ठाकुरों) के यहां हम लोगों का आना-जाना इसलिए होता था क्योंकि हमारा उपयोग करके उन्हें अपना काम निकालना होता था। हमारे बाबा के साथी एक बाबू साहब थे। जब उनके यहां से शादी-विवाह के मौके पर खाने का निमंत्रण मिलता था। एक बार मेरे बाबा ने कहा कि चलो वहां शादी का भोज है, हमें खाना है। हमने कहा कि हम नहीं जाएंगे। मेरा मानना था कि जहां अपमान मिलता है, वहां जाना ही नहीं है। मैं कभी जाता ही नहीं था। बाबा ने कहा कि– नहीं नहीं, वे अपने हैं। उनका व्यवहार बहुत अच्छा है। हम लोग खाना खाने के लिए गए तो वहां लोग पंगत में बैठकर खाना खा रहे थे। और जहां मवेशियों को चारा खिलाने के लिए नाद होता है, वह जगह खाली था। उसे हमारे यहां चरन भी कहते हैं। चूंकि हमलोग पढ़ते-लिखते थे और हमारी उम्र 12-13 साल की हो गई थी, इसलिए चेतना भी थी। जमीन पर नहीं बैठकर हम चरन पर जाकर बैठ गए।
जब बहुत देर हुई तब मैंने बाबा से कहा कि कब खाना मिलेगा? वे बोले कि जब सब लोग खा लेंगे तब। जब सब लोग खा लिए तब हमलोगों का नंबर आया। तबतक रात के बारह बज चुके थे। भूख के मारे बुरा हाल हो रहा था। तब जाकर खाना मिला। हमने खाना खाया और अपना-अपना पत्तल उठाकर बाहर खुद फेंके। उस दरवाजे पर जहां हमने खाना खाया था, उसकी सफाई की। फिर हाथ-मुंह धोए। तब वहां से रुखसत हुए। इसके बाद मैंने बाबा से कह दिया कि किसी के बुलाने पर भी अब नहीं जाएंगे। कान पकड़ लिया। तो ये सब भेदभाव की स्थितियां बिल्कुल चरम सीमा पर थीं।
चूंकि नौकरी में दलित लोग पहले बहुत कम हुआ करते थे। और सच कहिए तो नौकरी की बात 1950 के बाद ही लोग सुनना शुरू किए। हमारे जो चाचाजी थे, पहली बार चूंकि हमारे घर में पढ़ाई-लिखाई तीन पीढ़ी से हो रही है। बल्कि कहें कि चार पीढ़ी से। हमारे जो बाबा थे, फेकू जिनका नाम बताया। उनके भी जो चाचा थे उनका नाम था मूसन। मूसन जी कलकत्ते में रहते थे। आप देखिए कि अंग्रेजों ने जो मिलें लगाईं थीं, उसके जरिए हमारे ऊपर कितना बड़ा उपकार किया। आज भी कलकत्ता जाता हूं तो श्रद्धा से उन मिलों को मैं नमस्कार करता हूं। सोचता हूं कि मेरी जिंदगी को बनाने में इनका कितना बड़ा योगदान था। मेरे दादा के चाचा मूसन जी जूट मिल में काम करते थे। हमारे बाबाजी जब वहां गए तो उनके चाचा उन्हें पढ़ाते थे। एक बार यह हुआ कि एक जगह जुआ खेला जा रहा था। हमारे बाबा वहां चले गए। तब मूसन जी ने उनका कान पकड़कर बहुत मारा। ऐसा मेरे बाबा बताते थे। मूसन जी ने उनसे कहा था कि तुमको हम कहते हैं कि दस्तखत करने भर भी पढ़ लो तो तुम जुआ देख रहे हो। हमारे बाबा को पूरा रामचरित मानस याद था। वे अपने चाचा को सुनाते रहते थे, खास तौर पर जब वो बीमार होते थे। वे हमलोगों को भी तो रामचरित मानस बैठाकर सुनाते थे। अब उस समय रामचंद्र जी का ही तो बोलबाला था। उस जमाने में दलित चेतना और दलित साहित्य का कोई मामला था ही नहीं।
बी.आर. विप्लवी
मैं यह कह रहा हूं कि हमारे जो मूसन बाबा थे, जो मेरे बाबा के चाचा थे, वे थोड़ा-बहुत पढ़े हुए थे। थोड़ा बहुत। वे पढ़ाई के पहले प्रार्थना गाते थे– ‘रामा गति देहु सुमति…’। यानी हमें सुमति दो। वे बताते थे कि जुबान को कैसे तोड़ा जाता है। जैसे– ‘राजा टेकारी सिंह के बाग में, एक आम गिरा टपकमल-टपकमल-टपकमल’, ‘लपक बकुलिया लपक, अब न लपकबी त लपकबी कब?’। इस तरह से ज़बान तोड़ने का अभ्यास, ताकि कठिन शब्दों का उच्चारण करने की आदत पड़े। ऐसे ही वह पढ़ाते थे कि– “बांस कहै, हम लपङब-लपङब-लपङब-लपङब के ऊपर उपमङब-उपमङब-उपमङब।” बार-बार और जल्दी-जल्दी कहने में गड़बड़ी तय थी। ऐसे अभ्यास हमारे बाबा कराते थे। ऐसे उनके चाचाजी पढ़ाते थे इस तरह हमारे बाबाजी को भी मालूम था। हमारे बाबाजी तो चेकिंग करने चले जाते थे हमारे स्कूल में और छिपकर देखते थे कि हमारे नाती-पोते पढ़ रहे हैं या ऐसे ही मौज कर रहे हैं। फिर मास्टर से जाकर बात करते थे।
उन्होंने हमारे पंडितजी को एक रुपया पास कराई नहीं दिया तो पंडितजी ने हमें पहली ही कक्षा में फेल कर दिया। तो हमारे बाबा ने कहा कि क्यों फेल किए तो पंडित जी बोले कि आपने पास कराई नहीं दिया। बाबा बोले कि ठीक है, फेल कर दो और मजबूत हो जाएगा। जड़ मजबूत हो जाएगी। यह सब चलता था। बचपन की ऐसे ही कहानी थी।
स्कूल में कोई भेदभाव नहीं था?
स्कूल में तो भेदभाव था, लेकिन जो आजादी की लहर थी और गांधीजी के नारे थे और जो बाबा साहब का प्रयास था, उसकी वजह से एक चेतना दलित-बहुजन लोगों में फैल रही थी। और जो पढ़े-लिखे सवर्ण थे, खास तौर पर वे जो शिक्षक थे, उन्हें इसका अहसास था कि हमको टीचिंग का काम दिया गया है, यह हमारा कर्तव्य है। हमारे गांव में तो पंडितजी आते थे और जो बच्चा नहीं पढ़ने जाता था, उसको चार बच्चों से उठवाकर ले जाते थे। और पढ़ाते थे। और हमदोनों भाइयों का मामला यह था कि हम पढ़ने में बहुत ही अच्छे थे। मैं अब अपने मुंह से क्या कहूं। लेकिन सच्चाई यही है कि सवर्णों का कोई भी बच्चा हमारी टक्कर में नहीं था। पांच सौ नंबर में से चार सौ से अधिक हम पाते थे। और सवर्णों के जो सबसे अच्छे बच्चे होते थे, वे तीन सौ ही अंक पाते थे। इसीलिए शिक्षक लोग हमें बहुत मानते थे। कहिए कि बेटे की तरह मानते थे। हाई स्कूल में हमारे प्रिंसिपल साहब बदरीनाथ सिंह हुआ करते थे। उनका बेटा गोवर्धन सिंह था। वह हमारे साथ पढ़ता था। एक बार उन्होंने अपने बेटे से कहा कि देखो ये दलित लड़का है और ये इस तरह से पढ़ रहा है और तुम प्रिंसिपल के लड़के हो। तुम्हारा सौभाग्य है कि तुम प्रिंसिपल के लड़के हो। नहीं तो तुम किसी लायक नहीं हो। इसको देखो। तुम मुंह छिपाते फिरते हो। पढ़ते नहीं हो। लेकिन ये (हम) नहीं करते। बदरीनाथ सिंह इतना मानते थे हमको। उन्होंने कहा कि दो स्कॉलरशिप इसे क्यों नहीं मिलेगी। दलित है तो दलित वाली मिलेगी और जो मेरिट में आया है तो मेरिट वाली मिलेगी। इस पर हाई स्कूल का बाबू बोला कि कैसे मिल सकती है? तब प्रिंसिपल साहब बोले कि मैं कह रहा हूं तो मिल सकती है। इस तरह वे बहुत मदद करते थे। बहुत मानते थे। जब चार बजे सब बच्चे स्कूल की छुट्टी होने पर घर भागते थे तो वे कहते थे तुम भी भागोगे? सब बच्चों की तरह हो क्या? तुम रुको। और लाइब्रेरी से प्रिंसिपल साहब किताबें और पत्रिकाएं पढ़ने को देते थे। उस जमाने में ‘रविवार’ मैगजीन निकलती थी। कलकत्ते से ‘आनंद बाजार पत्रिका’ आती थी। और ‘दिनमान’ प्रकाशित होता था। प्रिंसिपल साहब कहते थे कि इन्हें ले जाओ और पढ़ो। हालांकि वह सब सिर के ऊपर से निकल जाता था। नवीं कक्षा के बच्चे को इतना गंभीर साहित्य कैसे समझ में आता। तो हमने एक बार रामकरन पंडितजी से कहा कि हमको तो समझ आती नहीं है। उन्होंने कहा कि जब बार-बार पढ़ोगे तो समझ में आएगी बेटा। तुम्हारे अंदर ही संभावनाएं हैं, इसलिए हम लोग तुम्हें पढ़ने को देते हैं। वाकई में पढ़ते-पढ़ते समझ में आने लगा। इसका परिणाम यह हुआ कि मैंने ‘रविवार’ को एक चिट्ठी लिखी और वह प्रकाशित कर दी गई।
कौन-सा साल रहा होगा?
साल 1981 होगा। मैं ‘रविवार’ का नियमित पाठक बन गया था। कॉलेज में गया तब वहां भी पढ़ता रहा। शिवानीजी का एक लेख आया था ‘रविवार’ पत्रिका में– ‘भाग ब्राह्मण कहीं का’। उनका दर्द यह था कि अरे ये क्या जमाना आ गया, दलितों और पिछड़ों ने पूरा कब्जा कर लिया है और अब तो ये स्थिति आ गई है कि ये लोग ब्राह्मण को कहेंगे, जैसे ये कहते थे– भाग चमरा भाग, भाग डोमवा भाग। अहिरा यहां कहां बैठ रहा है। वैसे लोग कहेंगे कि भाग ब्राह्मण कहीं का। यह शिवानीजी का दर्द था। शिवानीजी बड़ी लेखिका थीं। उन्हीं की बेटी हैं मृणाल पांडेय। शिवानी जी तब लखनऊ में रहती थीं। उनके लेख पर मैंने एक तीखी प्रतिक्रिया की। हमने कहा कि उनको इस तरह का दुख हो रहा है, उनके सीने पर सांप लोट रहा है कि क्यों दलित-बहुजन इस तरह से आगे बढ़ रहे हैं। तो उन्हें यही पसंद है कि लगातार यही कहा जाए कि ‘भाग चमरा भाग, भाग डोमवा भाग और भाग अहिरा भाग’। और इसी से वह खुश रहेंगी। ये सब मैंने किया। मनुस्मृति को कोट कर मैंने चिट्ठी में लिखा तो ‘रविवार’ ने उसे छापा। इससे मेरा उत्साह बहुत बढ़ा। उन दिनों मेरे शिक्षक रामकरन पांडेजी और बदरीनाथ सिंह, इन लोगों ने मेरा खूब प्रोत्साहन किया। कहीं भाषण देने की प्रतियोगिता होती थी तो मुझे कहते कि विक्रमा जाएगा। मेरा नाम विक्रमा राम विप्लवी है।
विप्लवी सरनेम कैसे पड़ा?
यह सरनेम हमारे प्रिंसिपल साहब ने दिया जब मैं नवीं क्लास में था। हुआ यह था कि मैंने स्कूल की मैगजीन के लिए कविता लिखकर दिया था। मैगजीन का नाम था– ‘ऋतंभरा’। हमारे प्रिंसिपल साहब बदरीनाथ सिंह बड़े साहित्यिक थे। वे देखकर एकदम उछल गए और बोले कि देखो तुम क्रांतिकारी हो, विप्लवी हो तुम। तो हमने कहा कि यह नाम हमारे प्रिंसिपल साहब ने दे दिया है। यही लिख लेना चाहिए। फिर इसे अपना सरनेम बना लिया और प्रिंसिपल साहब ने मुझे मैगजीन का छात्र संपादक बना दिया। तब मैं नवीं क्लास में था। ‘ऋतंभरा’ के पहले पेज में ही छपा– छात्र संपादक विक्रमा राम विप्लवी। उसके बाद विप्लवी हो गए।
यह कहानी तब की है जब मैं दसवीं पास करके वहां से निकला, तब भी प्रिंसिपल साहब बच्चों को भेजते थे कि जाओ उससे मांगकर लाओ कविता। मतलब यह कि वहां से पास होने के बाद भी वे हमें लगातार छापते रहे। बिल्कुल अपने औलाद की तरह व्यवहार करते थे। मैं भी उनके साथ अपने पिता की तरह व्यवहार करता था। जब मैं इंजीनियरिंग कॉलेज में था तो उनकी पत्नी की तबियत खराब हुई तो मेरे यहां आए। उन्होंने कहा कि बेटा ऐसी-ऐसी बात है। मैंने कहा कि सर आइए हॉस्टल में ही रुक जाइए। मैंने अपने पार्टनर से कहा तुम दूसरे रूम में चले जाओ। हमारे सर जी आ रहे हैं और उनकी मैडम भी आ रही हैं। इसी रूम में रहेंगे। हम ऐडजस्ट कर लेंगे। ऐसे करके उनका इलाज वगैरह हुआ।
यह किस सन् की बात है?
सन् 1978 की। मैंने मदन मोहन मालवीय इंजीनियरिंग कॉलेज, गोरखपुर में एडमिशन लिया था। इससे पहले तो 1977 में मैंने इंटरमीडिएट पास किया। बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में दाखिला कराया था। मेरी तमन्ना थी कि मेरे पिता जहां से ग्रेजुएशन किए थे, मैं वहीं से पढ़ूंगा। वहां एडमिशन हुआ। वहां फिजिक्स, मैथ और जियोलॉजी – ये सब मेरे सब्जेक्ट थे। वहां पर पढ़ाई चालू कर दी। एक साल मैंने पढ़ा फिर देखा कि इंजीनियरिंग कॉलेज का फार्म निकला हुआ था तो मेरे बड़े भाई ने कहा कि भर दो और हमने भर दिया। भर दिया तो एडमिशन हो गया। एडमिशन मेरिट पर होता था उस जमाने में। और मेरे मार्क्स अच्छे थे ही, इसलिए फटाफट एडमिशन हो गया। इलेक्ट्रॉनिक्स एंड कम्युनिकेशन में मैंने वहां से 1982 में बैचलर ऑफ इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल की। वहां भी देखिए कि यूनिवर्सिटी में मेरा नौवां स्थान था। नौवां स्थान इसलिए कि जो ट्यूटोरियल्स में नंबर दिए जाते थे, उसमें बहुत भेदभाव होता था। हाईस्कूल तक तो भेदभाव पता नहीं चला। इंटरमीडिएट में भेदभाव पता चला। वहां मैथ का एक शिक्षक ब्राह्मण था। वह तो बिल्कुल देखना भी नहीं चाहता था। जब मैं फर्स्ट क्लास से पास हो गया तो उसने कहा कि ‘अरे तुम फर्स्ट क्लास पास हो गए। आश्चर्य होता है कोई नहीं आया स्कूल में, तुम्हीं अकेले…’। हाईस्कूल तक तो भेदभाव महसूस ही नहीं हुआ। सभी शिक्षक लोग पलकों पर बिठाए रहते थे। मुझे पता ही नहीं चला कि मैं दलित हूं या सवर्ण हूं। और बीस गांव में हल्ला रहता था कि फेकू के नाती जो हैं, वे टॉप करते हैं। दुकान पर चर्चा होती थी तो मेरे बाबा मन ही मन खुश होते थे और घर आते थे तो दादी के कान में धीरे-धीरे बताते थे कि आज भाउ की दुकान में चर्चा हो रही थी, लेकिन बच्चों को मत बताना। नहीं तो बिगड़ जाएंगे सब। हम लोगों को हमेशा डांटे रखते थे। कहते थे– ‘इस साल अच्छा नंबर नहीं आया तो पढ़ाई छुड़ा दूंगा तुम्हारा’। ये उनकी धमकी होती थी। वे बहुत प्रोत्साहित भी करते थे और बहुत अनुशासन में रखते थे। इतना कि एक जगह भी इधर-उधर हो जाए तो खाल खींच लेंगे। तो पिता का स्थान प्रैक्टिकली हमारे दादा ने लिया।
आपकी शादी कब हुई?
मेरी शादी 1973 में हो गई थी। मैं तब आठवीं कक्षा में था। उस समय आठवीं का बोर्ड इग्जाम होता था। उस समय 13 साल के रहा होऊंगा, तभी मेरी शादी हो गई। कम उम्र में शादी होती थी, लेकिन वह शादी न होकर एक तरह से सगाई होती थी। जैसे आजकल सगाई होती है। उस समय न आना-जाना होता था और न विदाई होती थी। आपको पता नहीं होता था कि आपकी पत्नी कैसी है। लड़की को पता नहीं होता था कि उसका पति कैसा है। केवल घर के लोगों का आना-जाना होता था। इसके बाद गौना होता है जो 1979 में तब हुआ जब मैं इंजीनियरिंग कॉलेज में दूसरे साल का छात्र था। करीब छह साल के बाद। मेरी पत्नी भी तब पढ़ाई कर रही थीं। वह इंटरमीडिएट कर रही थीं तब गौना हुआ था।
कृपया अपनी पत्नी के बारे में बताए?
उनका नाम है– दुर्गावती विप्लवी। पहले उनका नाम केवल दुर्गावती था। मेरे साथ आने के बाद दुर्गावती विप्लवी हो गया।
इंजीनियरिंग कॉलेज से पास होने के बाद आपने क्या किया?
इंजीनियरिंग कॉलेज से पास होने के बाद मैंने सरकारी नौकरी के लिए अप्लाई करना शुरू कर दिया था, क्योंकि घर की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी। देखिए एक चीज और है जब हम इंजीनियरिंग कॉलेज में एडमिशन के लिए ना-नूकुर कर रहे थे कि इस पढ़ाई में भारी खर्चा आएगा तो हम कैसे उठाएंगे। तब हमारे बड़े भाई ने कहा कि तुम पढ़ो, हम देखते हैं कि हमारी नौकरी कहीं लग जाए। चूंकि उनका भी मेरिट में (76 प्रतिशत) था तो उनको डायरेक्ट पोस्ट ऑफिस में बाबू की नौकरी मिल गई। उन्होंने कहा अभी मैं यह कर लेता हूं। जबकि मेरे भाई साहब इतने मेधावी थे कि उनका आईआईटी-बीएचयू, में एडमिशन हो गया था। लेकिन पैसे की कमी के कारण वे नहीं पढ़ पाए। उन्होंने कहा कि मैं अब नहीं पढ़ पाऊंगा, पैसा ही नहीं है हम लोगों के पास। फिर बोले कि चलो मैं नहीं पढ़ पाया, अब तुम पढ़ो। फिर उसके छह महीने के बाद वे पोस्ट ऑफिस से स्टेट बैंक ऑफ इंडिया में कैशियर हो गए। उसके छह महीने बाद कस्टम्स एंड सेंट्रल एक्साइज में इंस्पेक्टर हो गए। बाद में असिस्टेंट कमिश्नर के पद से रिटायर हुए। मेरे बड़े भाई ने पूरा सपोर्ट किया। देखिए कि हम लोगों को जो 50-50 रुपए महीना वजीफा मिलता था, उस पैसे को व्योंत-कतर करके बैंक में जमा करते रहते थे। बचत करके कि उसको इधर-उधर नहीं खर्च करना है। वो पैसा था तो उन्होंने कहा कि इस पैसे से एडमिशन हो जाएगा। दो-तीन महीने खर्चा भी चल जाएगा। मैं फिर देखता हूं तुम जाओ पढ़ाई करो। तो हमने उसी पैसे से एडमिशन कराया। एडमिशन लिया कि हास्टल में रहेंगे ताकि पढ़ाई ठीक से हो।
इस तरह से इंजीनियरिंग पास करने के बाद अप्लाई किया तो मेरी पहली नौकरी ओएनजीसी में लगी। फिर टेलीफोन विभाग में और स्टील ऑथोरिटी ऑफ इंडिया में हुआ। जहां कहीं भी अप्लाई करता था, वहीं नौकरी हो जाती थी। लेकिन होम सिकनेस के कारण मैंने कहा कि नौकरी उत्तर प्रदेश में ही करेंगे। अब कहां देहरादून जाएंगे और कहां जाएंगे भिलाई। इंडियन टेलीफोन इंडस्ट्रीज, रायबरेली में क्रॉस बार प्रोजेक्ट आया था नया-नया। भाई साहब से कहा कि उसमें हो रहा है उसी को ज्वाइन कर लेते हैं। 2 जनवरी, 1983 को असिस्टेंट इंजीनियर के रूप में ज्वाइन किया। और फिर यूपीएससी की परीक्षा में भाग लिया। उसमें मुझे आईआरएसएसई (इंडियन रेलवे सर्विस ऑफ सिग्नल इंजीनियर) का रैंक मिला। लेकिन उसमें पुलिस वेरिफिकेशन आदि होने में बहुत समय लगा। पूरा एक साल लग गया। मैं 1985 में ज्वाइन कर पाया। रेलवे में मेरी पहली पोस्टिंग बिहार में हुई। बरौनी में मैं असिस्टेंट इंजीनियर सिग्नल एंड टेलिकम्युनिकेशन के रूप में ज्वाइन किया। मैं डिस्ट्रिक्ट सिग्नल एंड टेलिकम्युनिकेशन इंजीनियर बना। 1992 तक मैं बरौनी में रहा। मतलब 1987-88 से लेकर 1992 तक। उस समय बिहार में लॉ एंड आर्डर की बड़ी समस्या थी। एक अशोक सम्राट हुआ करते थे। उन्हें नामी-गिरामी कहें, गुंडा कहें, आतंकवादी कहें या जमींदार कहें, जो भी कहें। वे प्रशासन में बहुत दखलंदाजी करते थे। यहां तक कि जब हमारे यहां से टेंडर निकाला जाता तो उसमें भी उनके गुंडे बदमाश आ करके बदमाशी करते थे। मैं तो कहता था कि भाई जो सही ढंग से होगा, वही होगा। एक बार उनके आदमी हमें डराने के लिए हमारे बंगले पर आकर बम, पटाखे, गोलियां चलाईं। मैं तो पीछे के दरवाजे से निकल कर चला गया। हमारे इंस्पेक्टर ने कहा कि हट जाइए सर यहां से। फेमिली के लोग थे, बच्चे दो हो गए थे, हमारी मिसेज थीं वहां पर। वे लोग थोड़ा आतंकित हो गए कि कहां किस नौकरी में आ गए। बहरहाल हमने कहा कि टेंडर अब यहां छोटा ऑफिस से नहीं होगा। वहीं गोरखपुर से होगा। तो हमारे चीफ ने कहा कि ठीक है तो हमने वहां टेंडर ही बंद करा दिया। हमने कहा कि ये हेराफेरी का काम हमसे होगा नहीं और ये जान से मारने पर उतारू हैं, इसलिए ये सब काम बंद करो। इस तरह नौकरी चलती रही। फिर 1992 में मेरा ट्रांसफर लखनऊ में हुआ। वहां भी मैं फिर वही डिवीजनल सिग्नल एंड टेलिकम्युनिकेशन इंजीनियर हुआ।
इन सब के बीच साहित्य रचने का सिलसिला कैसे जारी रहा?
इसके बीच में साहित्य यूं रहा जैसे हाईस्कूल पास होने के बाद लिखते रहे। बीच-बीच में जब भी कोई भाव आता था तो समय निकालकर मैं लिखता था। अब देखिए बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में जब मैं पढ़ रहा था तो उस समय डेढ़ महीने की गर्मी की छुट्टी हुई। उस समय मेरे दिमाग में रामचरित मानस की थीम आई थी। थीम यह कि बालि को रामचंद्र जी ने पेड़ों की ओट से होकर के मारा था। मैं सोचता रहा कि रामचंद्र जी जब भगवान ही हैं, सर्वशक्तिमान हैं तो उनको छिप करके क्यों मारना पड़ा। तो कथा यह कही जाती थी कि जो बालि है जो भी उसके सामने आता था, वह उसका आधा बल खींच लेता था। हमने कहा कि भगवान का बल कैसे खींच लेगा। मतलब भगवान से भी बलि होगा वह। तो भगवान डर जाते होंगे। इसलिए चोरी से मारा था। हमने कहा कि यह तो छल की लड़ाई है। तो ऐसे करके मैंने एक खंडकाव्य की रचना की– ‘प्रवंचना’। हालांकि वह 2011 में छपा। इसकी समीक्षा कंवल भारती जी ने की है जिसे फारवर्ड प्रेस द्वारा प्रकाशित किया गया है। रामधारी सिंह दिनकर मेरे प्रिय कवि थे। उनकी तो कई किताबें मुझे जुबानी याद थीं। खासकर ‘रश्मिरथी’। छंदों का प्रभाव मैंने ‘रश्मिरथी’ से ग्रहण किया था। हालांकि मेरा अपना भी उसमें रंग है। इस तरह से छुट्टियों में जिस समय का उपयोग अन्य लोग दूसरे कामों के लिए करते थे, मैं उसका उपयोग लिखने के लिए करता था। पढ़ाई करते समय इंजीनियरिंग कॉलेज में भी। फिर उन दिनों 1975 में दुष्यंत कुमार की गजलों का बड़ा शोर हुआ। लाइब्रेरी में जाकर पढ़ता था। कई बार देखा कि समीक्षाएं आ रही हैं। रेडियो पर गजलों को सुनता था तो लगता था कि यह कोई विधा है जो बहुत अच्छी है। तो मैंने उस स्टाइल की कविताएं लिखना शुरू कर दिया।
आपने किसी को उस्ताद बनाया?
किसी को उस्ताद बनाना है कि नहीं बनाना है, इसका इल्म ही नहीं था। मैंने किसी से गाइडेंस नहीं लिया। 1994 में बहुत शौक हुआ तो ‘तश्नगी का रास्ता’ किताब का नाम रखा और अपने पैसे से छपवा लिया। उस समय नौकरी में आ गया था। सन् 1998 में मैं ट्रांसफर के बाद बरेली चला गया। वहां एक जगह कवि सम्मेलन, मुशायरा था। उसे रेलवे के एक अफसर ने अपने घर पर करवाया था। एक तरीके की गोष्ठी थी तो मुझे भी बुला लिया। लोग जानते थे कि मैं थोड़ा-बहुत लिखता हूं। मैं गया। मैंने वहां पर एक गीत और कुछ कविताएं पढ़ीं। वहां प्रोफेसर वसीम बरेलवी भी आए हुए थे। और एक के.के. सिंह मयंक होते थे, जो रेलवे के बड़े अच्छे गजलकार थे, वे भी थे। किशन सरोज एक बहुत अच्छे गीतकार थे, वे भी मौजूद थे। मैं था और एक देवेंद्र आर्य, मेरी उम्र के थे, मौजूद थे। गोष्ठी के मेजबान आर.के. लाल साहब थे। जब गोष्ठी खत्म हुई और चाय पानी हुआ तो उस चाय पानी के दौरान वसीम साहब ने मेरे कंधे पर हाथ रखा और बोले– बहुत अच्छा लिखते हैं आप। मैंने सोचा वसीम साहब का नाम तो बहुत ऊंचा है और अगर उन्होंने कहा है तो उनसे संपर्क करना चाहिए। तो फिर मैंने कई बार संपर्क करने की कोशिश की। लेकिन सर बहुत व्यस्त रहते थे टाइम मिलता नहीं था। एक बार उन्होंने खुद बुलाया फोन करके। वे बोले कि आप कई बार फोन करते हैं, मैं शर्मिंदगी महसूस करता हूं। अब आप आ जाइए। ‘तश्नगी का रास्ता’ लेकर गया था। उनको दिखाया। कुछ बातें हुईं। फिर बोले कि ठीक है, मैं रख लेता हूं, इसे पढ़ूंगा। फिर एक महीने बाद उनका फोन आया और कहा कि भाई मैंने पढ़ लिया है, आइए आप। मैं गया उनके घर। उन्होंने कहा कि पूरी किताब पढ़कर जो है आंखों में चमक तो आ ही जाती है। उन्होंने कहा कि इसमें जो बहर है और जो मीटर है उसमें और इंप्रूवमेंट की गुंजाइश बनती है। लेकिन इसके जो कथ्य हैं, इसमें जो विचार हैं, वे बहुत जबरदस्त हैं। और आप में संभावनाएं है। मैंने कहा कि सर यह कैसे होगा। वे बोले कि इसमें कुछ नहीं करना है। कुछ शेर उदाहरण के रूप में मुझे समझाया कि देखिए इसमें यदि ऐसा होता तो वैसा होता। ऐसे करके उन्होंने एक रास्ता मुझे दिया। उन्होंने कहा कि पास या फेल में नहीं पड़ें। नैचुरल वे में रिदम् को पकड़िए। किसी कविता में, किसी शे’र में, जो रिदम् है, उसे पकड़िए। बहुत-सी अतुकांत कविताएं लोग लिखते हैं, उसमें भी रिदम् हो जाए, जिसे नज्म कहते हैं, कितना प्रभावकारी हो जाती हैं। इस तरह से जो है फॉर्मली हम उनको ये नहीं कहेंगे कि इंस्पायर हो गया या उन्होंने मान लिया कि हम उनके शागिर्द हैं। उनकी मोहब्बत आज तक हासिल है। घरेलू संबंध हैं। कोई भी बात होगी तो विप्लवी जी के बिना नहीं होगी या कोई भी काम विप्लवी जी के घर पर होगा तो वसीम बरेलवी के बगैर नहीं होगा। बच्चों की शादी हो, इंगेजमेंट हो तो उनको आना ही आना है और वसीम साहब अगर उस रास्ते गुजर रहे हैं तो विप्लवी साहब के साथ एक-दो शाम तो गुजारनी ही है। आज भी ये मोहब्बत हासिल है।
उर्दू शब्दों पर आपकी जो पकड़ बनी, उसका राज क्या है?
असल में मैंने उर्दू के शब्दों को जीया है। जीया इसलिए है कि कोर्ट-कचहरी की भाषा उर्दू-फारसी ही थी। हमारे बाबा सवर्णों से अपनी संपत्तियों को छुड़ाते-छुड़ाते कोर्ट-कचहरी के बिल्कुल कीड़ा हो गए थे। उन्होंने इतना अनुभव इकट्ठा कर लिया था कि अगल-बगल के गांवों के लोग उनसे सलाह लेने आते थे। वे सबकी मदद करते थे। अपने लोगों को मुक्ति दिलाने के लिए वे हमेशा तैयार रहते थे। वे मुझसे कभी-कभी दरखास्त लिखने के लिए कहते थे। फिर यह कि ये फलां-फलां हाकिम हैं, उनसे हम उजरत नहीं करेंगे तो कैसे सुनवाई होगी। वे उर्दू और फारसी के ऐसे शब्द बोलते रहते थे। इस तरह ये शब्द सहज रूप से मेरी जिंदगी में आते गए। मेरे गांव के बगल में एक गांव है शेखपुर। वहां उर्दूदां लोगों से बाबा की दोस्ती थी। वे वहां भी ले जाते थे कि चलो भाई मोहम्मद खां साहब प्रधान हैं, वे कुछ बुला रहे हैं। उस समय तरह-तरह के मामले होते थे। जैसे किसी ने बांस काट लिया तो मुकदमा हो गया। किसी ने खेत पर कब्जा कर लिया। झगड़ों के कारणों की कोई कमी नहीं थी। इन सबके उल्लेख में उर्दू-फारसी के शब्द आ ही जाते थे। जैसे कचहरी जाते थे तो कहा जाता था कि आज पेशकार नहीं था। आज पेशी हुई नहीं। आज हाकिम उठ गया, तो मुकदमा मुल्तवी हो गया या मुकदमा बरखास्त हो गया। इस तरह के शब्दों को मैं पकड़ता रहता था। मुझे अच्छा लगता था। सुनने में बड़ा प्रिय लगता था और नया शब्द होता था। जितने कागजात होते थे, बाबा मुझसे पढ़वाते थे। यदि कुछ उर्दू में होता तो उसे लेकर मोहम्मद प्रधान के यहां जाते थे। मकसद यह होता था कि उर्दू-फारसी में हाकिम द्वारा लिखे फैसले में क्या लिखा है, उसे जानकर व उसमें से प्वाइंट निकालकर अर्जी लगाना। प्रधान जी जो पढ़ते और समझाते थे, वह भी मैं सुनता था। मैं थोड़ा संवेदनशील था। एकदम से कान खड़े करके सुनता था और ग्रहण करता था। तो इस तरह करते-करते अपने अभ्यास से मैंने शब्दों को पकड़ा है। और जब नौकरी में गया तो हमारे डीआरएम साहब के पिताजी उर्दू में चिट्ठी लिखते थे। वे ब्राह्मण थे, लेकिन देखिए कि जितने ब्राह्मण थे, भाषा के मामले में कितना आगे थे। फारसी से प्रभावित होते-होते उर्दू तो 1200 ईस्वी के बाद आई। ब्राह्मण लोगों ने फारसी की पढ़ाई शुरू कर दी और दरबारों और कचहरियों में काबिज हो गए। वे बहुत महत्वपूर्ण स्थान रखते थे। कहने का मतलब यह कि हम जिसे ब्राह्मणवादी सिस्टम कहते हैं, वह अपने लोगों को इतना लचीला रखता है कि वे कहीं भी फिट हो जाते हैं। नहीं तो आप ही सोचिए कि भारत में मुसलमान शासकों का शासन 600 साल से अधिक रहा, इस दौरान बहुत बड़े-बड़े परिवर्तन होने चाहिए थे, लेकिन ब्राह्मणों ने यथास्थिति को बनाए रखा, क्योंकि ये सभी पदों पर काबिज हो जाते हैं। अंग्रेज आए अंग्रेजों के साथ फिट हो गए। और वे आपको कहेंगे कि संस्कृत पढ़ो और खुद सत्ता की भाषा बोलेंगे। सत्ता की भाषा पढ़ेंगे, सत्ता के नाज-नखरे उठाएंगे। वे यह सब करेंगे।
मैं डीआरएम साहब की बात कर रहा था। वे बहुत मानते थे। मुझे कवि जी बोलते थे। हमने कहा भी कि साहब आप सार्वजनिक रूप से कवि न कहें, लेकिन वे बोले कि यही अच्छा लगता है। एक बार उन्होंने कहा कि “भई! अब्दुल मद्दाह साहब की उर्दू-हिंदी लुगत (डिक्शनरी) मंगाइए रामपुर से। एक अपने लिए और एक मेरे लिए। उनके कहने पर मैंने मंगवाया तथा लाभान्वित भी हुआ। तो जीवन में उर्दू सीखने के जितने भी अवसर मिले उनका भी मैंने पूरा फ़ायदा उठाया। वह उर्दू-हिंदी डिक्शनरी ऐसी है, जिसमें आप देख सकते हैं कि उर्दू का कौन-सा शब्द तुर्की से या अरबी से या फ़ारसी से लिया गया है। इस तरह मैंने ख़ुद को समृद्ध करना शुरू कर दिया था ताकि उर्दू भाषा पर भी थोड़ी पकड़ हो सके। तो इस तरह मैंने खुद को समृद्ध करना शुरू कर दिया ताकि उर्दू भाषा में भी थोड़ी पकड़ हो। क्या है कि जो गजलें होती हैं, इतनी नाजुक होती हैं कि उसमें ठेठ शब्द सुहाते नहीं है। गजल को थोड़ी नरमी से, बड़ी ही नजाकत से पकड़ना पड़ता है, इसलिए उर्दू बड़ा मुफीद बैठता है। अब उर्दू भी तो हिंदुस्तानी भाषा ही है। कोई बाहर की तो है नहीं। पूरी हिंदुस्तानियत है इसमें। इस तरह से हमने उर्दू को धीरे-धीरे करके पकड़ा। और फिर गजलों में उर्दू के साथ हिंदी का भी उपयोग किया। और आप देखिए कि तमाम लोगों ने हिंदी के परंपराओं को भी शामिल किया। फिर चाहे रामचरित मानस हो, महाभारत हो, उनके प्रसंगों को लिया। लेकिन यह बात भी सही है कि सभी ने अपने तरह से उसको डिफाइन किया है।
जैसे आपकी एक रचना है– “पति-परमेश्वर दोनों झूठे/ मन बहलाव हैं, सुविधाएं हैं/ रामराज आने वाला है/ सहमी-सहमी सीताएं हैं।” आपने पहले बताया कि आप रामधारी सिंह दिनकर से मुतस्सिर रहे। वे छंद-बद्ध काव्य रचते थे। आप गजलकार हो गए। आपको यह अलग-सा नहीं लगा?
नहीं। दिनकर जी ऐसे कवि थे, जिन्हें फैज साहब भी पसंद करते थे। फैज साहब से उनकी मुलाकातें भी हुई थीं। असल में यह जो छंदबद्धता है, यही तो वह कड़ी है, जो हिंदी और उर्दू को एक समान सोच और एक समान ढर्रे में ढालती है। दिनकर जी के जो छंद हैं और उर्दू के जो छंद हैं, सभी में बहर है। बहर लय को कहते हैं। वास्तव में कविता तो वही है जिसमें लयात्मकता हो। हालांकि उसके और भी एलिमेंट हैं। मैं यह नहीं कहता हूं कि केवल लय से ही कविता बन जाती है। विचार भी जरूरी होता है। दिनकर जी के छंदों में जो लय है, जो सोच है, उसे मैंने वहां से ग्रहण कर लिया और उनकी छंदबद्धता को भी ग्रहण कर लिया और फिर उसे छंद के दूसरे अनुशासन में ले आया। गजल केवल छंद का अनुशासन है। तो आप देखिए कि जो हिंदी काव्य में छंद है, वह गजल में भी छंद है। वैसे छंदों के कई भेद होते हैं। जैसे गजल और हिंदी के दोहे, दोनों समानांतर हैं। दोहों में भी बात कहने की एक ताकत होती है। बस दो पंक्तियों में पूरी बात कहने की। यही बात गजलों में भी होती है। दो पंक्तियों में पूरी कहानी सांकेतिकता के साथ मौजूद होती है। हर शब्द का अपना एक खास मतलब होता है। किसी शब्द के मायने आप के लिए कुछ और हो सकते हैं तथा हमारे लिए कुछ और हो सकते हैं। जबकि शब्द बिल्कुल एक ही है। किसी शब्द का कोई पर्यायवाची नहीं होता। हां, उसके करीब हो सकता है। हर शब्द का एक प्रभावमंडल होता है। आपने जिस शब्द को जिन परिस्थितियों में महसूस किया होगा, जीया होगा, वही परिस्थितियां उस शब्द के सामने आने पर खड़ी हो जाएंगीं। जैसे कि आपने पूछा था कि ‘कतर-ब्यौंत’ का मतलब क्या होता है। देखिए जैसे ही ‘कतर-ब्यौंत’ शब्द मेरे सामने आता है तो मेरी मां सामने आकर खड़ी हो जाती है। जैसे बचपन में हुआ करता था कि आज खाने को कुछ नहीं है, जो आटा है, वह कल पक जाएगा। या फिर आज तो सबेरे खाना बना ही है। शाम को आलू को उबालकर खा लेते हैं। या फिर गुड़ का रस बना लेंते हैं, इससे काम चल जाएगा। काम चलाना अर्थशास्त्र का एक सिद्धांत है कि भाई कितने में हमारा काम चल सकता है। संसाधनों का अधिक से अधिक उपयोग ही कतर-ब्यौंत करना हुआ। मां कहती थी कि अरे, भईया इसमें कतर-ब्यौंत करके चलाओ। इस तरह आप देखें कि ‘कतर-ब्यौंत’ मेरे सामने पूरे परिवेश को लेकर आ गया। कहने का मतलब यह है कि शब्दों का अपना एक संसार है। और शब्द उतना ही बोध कराते हैं जितना आपने जिन-जिन परिस्थितियों से उनको जीया है।
गजलों के सृजन में दिनकर साहित्य से किस प्रकार सहायता मिली?
दिनकर जी के यहां कुछ छंद ऐसे हैं, जो गजलों से मिलते हैं। दिनकर जी की जो सांकेतिक भाषा है, वह एकदम गजलों की तरह मार करती है। जैसे ‘रश्मिरथी’ में एक प्रसंग है कि कृष्ण कर्ण को समझाने जाते हैं। दिनकर लिखते हैं–
यह नूतन अभिनंदन क्या है?
केशव यह परिवर्तन क्या है?
कर्ण कह रहा है ये नया परिवर्तन क्या हो गया? जब मैं अपने अनाम पिता का और मां द्वारा फेंकी गई संतान, जिसको मां भी अपना बेटा मानने को तैयार नहीं थी, तब तुम लोग कहां थे। आज मेरा मान-मनौव्वल करने आए हो। यह परिवर्तन क्या है। यह छंद गजल की तरह है, जो संकेतों में बात कर रहा है। ऐसे बहुत छंद हैं दिनकर जी के यहां।
आपको नहीं लगा कि दलित विमर्श के तहत जिस तरह का साहित्य रचा जा रहा है, उसी तरह का साहित्य रचना चाहिए?
दोनों ही बातें होती हैं। देखिए जो लिखा जा रहा है, उससे तो साहित्यकार प्रभावित होता ही है। मैंने सातवीं कक्षा में ही बाबासाहब पर केंद्रित किताब – बाबासाहब का जीवन संघर्ष – पढ़ा था। इसे चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु जी ने लिखा था। वह बहुजन साहित्य प्रकाशन, सआदतगंज, लखनऊ से प्रकाशित हुई थी। वह मेरे हाथ लगी थी। सातवीं कक्षा में कई बार पढ़ गया था। पढ़कर कई बार रोया था। इस तरह का आदमी भी है क्या कोई। वहां से मैंने खोज करना शुरू किया कि पढ़ने को और क्या-क्या है। किताब के पीछे एक सूची थी। उसमें एक किताब का नाम था– ‘ईश्वर और उसके गुंडे’। मैंने सोचा कि ‘ईश्वर और उसके गुंडे’ भी डॉ. आंबेडकर की किताब है क्या। सूची में ललई सिंह यादव की किताबें भी थीं। एक किताब थी– ‘रावण और उसकी लंका’। और ‘सच्ची रामायण’, जिस पर पेरियार साहब का नाम था। बड़ी उत्सुकता हुई। हमने सोचा कि ये किताबें कुछ अलग हैं। मुझे एक बार सआदतगंज जाने का मौका मिला बारहवीं क्लास के बाद में। सोचा कि अपनी पहली किताब ‘प्रवंचना’ वहीं से छपवाते हैं। इसके पीछे प्रेरणा बाबासाहब पर केंद्रित उस किताब और उसके पीछे प्रकाशित किताबों की सूची थी। फिर मैंने उसी तरह की रचना की। इसलिए प्रभाव तो रहता ही है आदमी पर। प्रभाव के कारण ही मैंने बालि का चरित्र उठाया जो कि रामायण का चरित्र है, रामचरित मानस का चरित्र है। लेकिन मैंने एक अलग वैचारिकता को सामने रखा, नए तरीके से डिफाइन किया और प्रतिरोध दर्ज किया।
उसमें एक प्रसंग है कि बालि अपने भाई सुग्रीव से लड़ने जा रहा है। उसकी पत्नी तारा उससे संवाद करती है कि अपने ही भाई से लड़ने क्यों जा रहे हो। तब बालि कहता है कि मैं लड़ने नहीं जा रहा हूं। उसको थोड़ा भय दिखाकर फिर समझाऊंगा। उससे मिलकर कहूंगा कि अपना ही राज्य नष्ट क्यों कर रहे हो? राजा बनना चाहते हो बन जाओ। इस तरह से मैंने इस पूरे प्रसंग को नए तरीके से प्रस्तुत किया। हांलाकि लोग कहेंगे कि रामचरित मानस में तो ऐसा लिखा नहीं है। ठीक है, नहीं लिखा है तो हम लिख रहे हैं न। रामचरित मानस कोई ऐसी वाणी तो नहीं है जो यूनिवर्सल है। हम जो तर्क दे रहे हैं, उस तर्क को काटो न। उसमें हमने तार्किक ढंग से ये बातें लिखी हैं।
जब बहुजन साहित्य प्रकाशन में गया तो वहां किताबें बहुत सस्ती थीं। आठ आने की, एक रुपए की, तीन रुपए की। छोटी-छोटी पुस्तिकाएं वहां थीं। सही मायने में बहुजन साहित्य का केंद्र ही था वह। उस समय चंद्रिकाप्रसाद जिज्ञासु के पुत्र थे। उस समय छापने की हाथ वाली मशीन होती थी। एक छोटा-सा कमरा था। मुझे बैठाए और बोले कि बाबू कहां से आए हैं? मैंने अपना परिचय दिया।
मैंने उन्हें अपनी किताब दी। इस पर उन्होंने कहा कि आपकी किताब छप जाएगी, छह सौ रुपए लगेंगे। उस समय मेरे पास छह सौ रुपए नहीं थे तो मैंने नहीं छपवाया। वापस लौट गया। लेकिन वहां से कई किताबें लेकर आया और पढ़ा। मैं प्रेरित होता रहा कि लोग ऐसा-ऐसा लिख रहे हैं। जो बाबासाहब के साथ घटित हुआ कि नाई बाल नहीं काट रहा है, कोई उन्हें गाड़ी पर नहीं बैठा रहा है। इस तरह से बाबासाहब नाम का कोई आदमी भी हुआ है, लोग किताबों में बता रहे थे। लोग कह भी रहे हैं कि उन्होंने ही संविधान बनाया है। तो संविधान क्या चीज है, ऐसे धीरे-धीरे जानने लगा। धीरे-धीरे स्टेप बाई स्टेप ही तो बढ़ता है कोई आदमी। गांव का आदमी एकदम से कहां जागरूक हो जाएगा। लेकिन मन में सीखने की लगन थी तो सीखता रहा। फिर बाद में अपना रंग चढ़ा। पहले तो लोगों से ही सीखा। यह 1979 की बात है कि मैंने ‘रामचरित मानस के विकृत प्रसंग’ शीर्षक से एक लेख लिखा। कानपुर से ‘भीम’ नामक एक पत्रिका छपती थी। उसके संपादक का नाम आर. कमल था। वह 14-15 पन्नों की पत्रिका होती थी और बड़ी खराब प्रिंटिंग होती थी। खराब इसलिए कह रहा हूं कि उसे पढ़ने में भी बड़ी मुश्किल होती थी। वैसे सस्ते में क्या छपेगा। पैसा अपने लोगों के पास था नहीं। कुछ लोग चंदा दे देते थे, उसीसे छापते थे। उन्होंने मेरा लेख छाप दिया। ‘रामचरित मानस के विकृत प्रसंग’ के जरिए मैंने नारी के खिलाफ, दलितों के खिलाफ, बहुजनों के खिलाफ वाले प्रसंगों को उठाया। दलितों और बहुजनों के लिए रामचरित मानस में म्लेच्छ और अनेक अपमानजनक शब्दों का उपयोग किया गया है। मैंने लिखा और छप गया तो बड़ा उत्साह बढ़ा। उसके बाद फिर वो कलकत्ता वाली मैगजीन ‘रविवार’ में वह पत्र लिखा। इस तरह से मैंने अपना रास्ता बनाया। जब ‘प्रवंचना’ खंडकाव्य लिखना शुरू किया तो उससे आप अनुमान लगा सकते हैं कि उसमें किस तरह से अपनी सोच और अपने तर्कों को रखने की चुनौती थी। उनकी (ब्राह्मणवादियों की) दलीलों को अपनी दलील से खारिज करने का माद्दा हमने पैदा करना शुरू कर दिया था। मेरे गांव में एक कवि जी थे। मैंने पहले उनको दिखाया। उन्होंने कहा कि ‘बहुत बढ़िया है छपवा लीजिए’। हालांकि वे कोई दूसरी जाति के थे। मैं उनकी जाति नहीं जनता। बाकी मैंने किसी को नहीं दिखाया। बाद में जब नौकरी में आया तब उसे प्रकाशित कराया।
सरकारी नौकरी में रहते हुए जब आप लिख रहे थे तब सहकर्मियों की कैसी प्रतिक्रिया थी?
हां, वहां पर कुछ लोग प्रतिक्रिया देते भी थे। जो लोग साहित्य में रूचि नहीं रखते थे, वे यही सोचते थे कि मैंने कुछ लिखा होगा। वैसे मैं ऑफिस में इन चीजों का प्रचार होने नहीं देता था। काम और साहित्य के बीच एक सीमा तय कर दी थी। साहित्य की चीजें ऑफिस तक नहीं जाती थीं। लेकिन कोई कितनी भी कोशिश करे, कुछ ना कुछ तो बात कहीं न कहीं से जाएगी ही। चूंकि रेलवे की मैगजीन थी, तो उसमें भी छपता था। प्रतिक्रिया मिलीजुली होती थी लोगों की। कुछ कहते कि बहुत अच्छा लिखते हैं। बहुत लोग कहते थे कि लिखने में ही टाइम खराब करते हैं। जबकि मैं काम में कोई कमी नहीं छोड़ता था। इसलिए भी कि लोग कहेंगे कि देखो ये तो दूसरे काम में लगे रहते हैं। इसलिए मैं डेढ़ गुणा अधिक काम करता था। शरीर को भले कष्ट हो। मैंने अपनी रचनाएं यात्रा के दौरान लिखी। मतलब उस समय जब ट्रेन में ड्यूटी पर जा रहा होता था। मान लीजिए बरौनी से गोरखपुर हेडक्वार्टर जाना है। अब रात में रिजर्वेशन कराया। ट्रेन में ऊपर बर्थ में बत्ती जलाकर लिख लिया। पहले की मेरी सभी गजलें ट्रेन में ही लिखी गई हैं। वैसे भी जब आप सफर कर रहे होते हैं तो कुछ न कुछ विचार आते रहते हैं। आंखें अनेक दृश्य देखती हैं। लोगों को काम करते हुए, कटाई करते हुए, बीनाई करते हुए, फल तोड़ते हुए, हल जोतते हुए, सब्जी बेचते हुए, टोकरी ले जाते हुए तो तरह-तरह के विचार आते हैं। यात्रा में विस्मृत चीजें भी सब याद आने लगती हैं। मैंने किताब एक बार ओमप्रकाश वाल्मीकि जी को भी भेजा।
मैं आपसे पूछने ही वाला था कि जब आपकी रचनाएं दलित साहित्यकारों के पास पहुंचीं तब उनकी क्या प्रतिक्रिया थी?
बहुत अच्छी प्रतिक्रिया हुई। उन लोगों ने पहचान लिया कि यह आदमी इस विधा में लिख रहा है। गजलें लिख रहा है। ओमप्रकाश वाल्मीकि जी की चिट्ठी आई। उन्होंने लिखा कि दलित साहित्य की एक विचारधारा है, उससे आप परिचित हैं कि नहीं। उनकी चिट्ठी के जरिए मैंने यह पहली बार जाना कि दलित साहित्य की एक अलग विचारधारा है। मैंने भी उन्हें चिट्ठी लिखा। उस जमाने में चिट्ठी से ज्यादा बातचीत होती थी। मैं उन्हें लिखा कि हम दलित साहित्य की विचारधारा से परिचित हैं और यह बहुत अच्छी चीज है। बाबा साहब आंबेडकर के जो सपने थे, जो उनका मेनिफेस्टो था कि ऐसा करना है तो उसी हिसाब से लोग प्रयास में लगे हैं ताकि मुक्ति का रास्ता साफ हो। फिर उनका सकारात्मक जवाब आया। उनसे आगे बातचीत चलती रही। फिर श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ से भेंट हुई। कंवल भारती जी से एक-दो कार्यक्रमों में भेंट हुई।
सौजन्य:फॉरवर्ड प्रेस
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