ग्राउंड रिपोर्ट: भालू-लकड़बग्घे के डर के साये में जी रहे पक्के घर का सपना संजोए वनवासी
चंदौली। आजादी महोत्सव की धूम के बीच आज भी हाशिये पर पड़े वर्ग को बुनियादी आवश्यकताओं जैसे रोटी, कपड़ा, मकान और सुरक्षा के लिए इंच-इंच संघर्ष करना पड़ रहा है। मुख्यधारा से छिटके इन गरीबों की समस्या और जीवन का जोखिम बहुत बड़ा है।
क्योंकि, यहां करीब डेढ़ दशक से अधिक वक्त से पहाड़ व जंगल के किनारे होने की वजह से न ही साफ पेयजल की उपलब्धता है और न बस्ती तक पक्के पहुंच मार्ग की। जिसपर आये-दिन जंगली जानवर भालू-लकड़बघ्घे से (खाई व चुआड़ में पानी पीने के दौरान) आमना-सामना।
चकिया के जंगलों में भालू और चीते की उपस्थित से सजग करता वन विभाग का सचेतक बोर्ड
गांवों में भी बेघरों को तय समय के भीतर छत नहीं मिल पा रही है। कई लोगों को तो आवास के लिए पात्र ही नहीं माना गया। कई लोग जर्जर फुस-लकड़ी के मकान में रहने के लिए मजबूर हैं। मानो, अब्दुल्ला बाबा-साधु कुटिया के 120 से अधिक नागरिकों का जीवन रिस्क लेकर ही चल रहा है।
नागरिकों ने बताया कि वे स्थानीय ग्राम पंचायत रामपुर में मतदाता हैं। यह गांव देश के रक्षामंत्री राजनाथ सिंह के पैतृक गांव भभौरा के समीप ही स्थित है। इन्हें राशन आदि सुविधा मिलती हैं, लेकिन सबको आवास नहीं मिल सका है।
जबकि, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वर्ष 2022 तक सभी बेघरों को घर उपलब्ध कराने के लिए जून 2015 में पीएम आवास योजना शुरू की थी, लेकिन तमाम प्रयासों के बाद भी यूपी के चंदौली जनपद में स्थित चकिया तहसील के अब्दुल्ला बाबा-साधु कुटिया के नागरिकों का सपना साकार नहीं हो सका।
एकमात्र हैंडपंप और झोपड़ी के पास खड़े लोग
चकिया तहसील के जंगली इलाके अब्दुल्ला बाबा-साधु कुटिया (रामपुर ग्रामसभा) में तकरीबन डेढ़ दशक से रहते आ रहे वनवासी समुदाय आज भी बुनियादी सुविधाओं के लिए तरस रहा है। सबसे बड़ी समस्या आवास और साफ़ पेयजल की है। ग्रामीणों का कहना है कि आबादी के पास की खाई में जंगली जानवरों को पानी पीते देखा जा सकता है।
गांव चारों ओर से विंध्य पर्वत श्रृंखलाओं और सदाबहार जंगलों से घिरे होने से जंगली जानवरों (भालू और लकड़बग्घा) का भय चौबीस घंटे बना रहता है।
लकड़ी और घास-फूस के छप्पर में जीवन जी रहे 150 से अधिक नागरिकों का जीवन हाशिये पर ठहरा हुआ है। जंगलों की सूखी लकड़ी और हरे पत्ते बेचकर जी रहे लोगों के नाम पर योजनाएं तो आती हैं, लेकिन उसके लाभ से ये वंचित रह जाते हैं।
वनवासी बस्ती के समीप लगा ‘जल जीवन मिशन’ का बोर्ड
वासदेव वनवासी मजदूरी करते हैं। मजदूरी नहीं मिलने पर जंगल की सूखी लकड़ी और बरगद के पत्ते तोड़कर चकिया बाजार में बिक्री के लिए ले जाते हैं। इसी की आमदनी से वे अपने परिवार की गुजारा करते हैं। छः सदस्यीय परिवार का भरण-पोषण बड़ी मुश्किल से हो रहा है।
वासदेव “जनचौक” से कहते हैं “हमलोगों के पास कोई भूमि नहीं हैं। बीस साल पहले जब मैं किशोर था, तब रामपुर गांव में प्लास्टिक की तिरपाल और घासफूस के छप्पर में रहते आ रहे थे। परिवार बढ़ा तो तकरीबन 15 साल पहले यहां आकर रहने लगे।
यहां जमीन तो मिल गई लेकिन परेशानी बहुत है। तीन साल पहले आवास की सूची में नाम आया था। मैंने सगे-संबंधियों से कर्ज-उधार लेकर आवास बनाने का सपना संजोने लगा।”
ईंट की नींव के बाद नहीं बन पाया घर, झोपड़ी में रहने को मजबूर वासदेव वनवास
आश्वासन के अलावा कुछ न हुआ
“आवास योजना की पहली किश्त लगभग 54 हजार रुपए की पहली किश्त निकाली और मकान की नींव रखी जाने लगी। एक दिन वन विभाग के लोग आये और आधा बन चुके मकान की ईंट निकाल कर फेंक दिए। इस घटना में मुझे और मेरे परिवार को बहुत दुःख पहुंचाया।
अपनी आंखों के सामने आवास के उखाड़ कर फेंकी जा रही ईंटों में हमारी सारी खुशियां दफ़्न हो गई। मैंने घर का निर्माण जारी रखने के लिए कहां-कहां नहीं गया। कई अधिकारियों से विनय-निवेदन किया। आश्वासन के अलावा कुछ न हुआ।”
भीग जाता है अनाज और गृहस्थी का सामान
“जब भी गर्मी आती है। पहाड़ धूप और लू से तपने लगते हैं। आंधी-तूफान की मार लकड़ी से बना घर सह नहीं पाता है। कई जगहों से क्षतिग्रस्त हो जाता है। इसी वजह से मानसून के समय में बारिश का पानी टपकने और बौछार से रहने लायक नहीं रहता है। अनाज और गृहस्थी का सामान अक्सर भीगकर ख़राब हो जाता है। बारिश में जहरीले जंतुओं का खतरा सदैव बना रहता है।”
पानी जुटाने में उखड़ जाती है सांस
साठ वर्षीय पन्ना देवी की कमर झुक आई है। लेकिन उनकी आंखों के सूखते पानी में जिम्मेदारियों का बोझ लिए नाव भंवर में चक्कर काट रही है। बकरी पाल कर वह अपना घर चलाती हैं। पन्ना बताती हैं “पहले दिनभर में कई बार रस्सी-बाल्टी से पानी निकालने में कोई दिक्कत नहीं होती थी।
अब साठ लग चुका है। नहाने, खाने, बकरियों को पिलाने के लिए पानी कुएं से खींचने में सांस उखड़ जाती है। दम फूलने से आंखों के सामने अंधेरा छा जाता है, लेकिन क्या करे, मर-जी कर करना पड़ता है।”
पानी की समस्या से जूझती पन्ना देवी ने अधिकांश जीवन झोपड़ी में ही गुजार दिया
“पानी की दिक्कत की वजह से बस्ती के लोगों ने पैसे जोड़कर एक हैंडपंप भी लगवाया, जो मार्च आते-आते पानी छोड़ देता है। फिर चुआड़ और कुएं ही गला तर करने के साधन बचते हैं। गांव से ये बस्ती दूर होने की वजह से बड़ी तकलीफ में हमलोग रहते हैं। रात-बिरात में तबियत ख़राब होने पर शामत ही आ जाती है।
आसमानी बिजली का डर
बारिश के मौसम में, जब बादलों की गर्जना के साथ मूसलाधार बारिश होती है, तो परिवार को डर लगा रहता है। तेज बारिश और बिजली से अपने व मवेशी बचाना किसी चमत्कार से कम नहीं लगता है। मेहनत मजदूरी कर सभी लोग किसी तरह से परिवार का गुजारा कर रहे हैं। रोजाना के खर्चों के लिए भी पूरी न पड़ने वाली आमदनी से इनके लिए खुद से पक्का मकान बनाना मुमकिन नहीं प्रतीत होता है।
बारिश के दिनों में बस्ती तक जाने वाला कच्चा व खड्ड रास्ता
गौरतलब है कि आवास आवास केवल चार दीवारों और छत से नहीं बनता है। आवास की अवधारणा में बुनियादी सुविधाओं की व्यवस्था जैसे पीने के लिए शुद्ध पानी, जल निकासी की उचित व्यवस्था, सामुदायिक केंद्र, बच्चों के लिए स्कूल, औषधालय, सड़क, बिजली आदि सभी चीजें आती हैं। इस बस्ती में तो ऐसा कुछ मिला ही नहीं
आवास, शौचालय और स्कूल की दिक्कत
चौदह साल की शिवानी अपनी बस्ती में ही खेल रही थी, वह पढ़ने नहीं जाती। उसने जनचौक को बताया कि “यहां करीब 20-25 लड़के-लड़कियां हैं, जो स्कूल नहीं जाते हैं। स्कूल घर से ढाई किलोमीटर दूर सूनसान रास्ते में पड़ता है। मेरा मन स्कूल जाने का होता है, लेकिन यहां से किसी बच्चे के नहीं जाने से मैं भी अकेली नहीं जा पाती हूं।
एक टीचर पढ़ाने आती हैं। दो-तीन घंटे पढ़ाकर चली जाती हैं। स्कूल नहीं जाने से हमलोग बहुत पिछड़ रहे और सभी प्रकार की योजनाओं से वंचित भी हैं। यहां शौचालय भी नहीं है।”
शिवानी, स्कूल और शौचालय की सुविधा से वंचित वनवासी कन्या
यहां अब्दुल्ला बाबा-साधु कुटिया बस्ती में अधिकांश परिवारों के पास शौचालय भी नहीं है। ये लोग परिवार आजादी के 75 साल बाद भी खुले में शौच जाने के लिए मजबूर है।
ध्यान दें जिम्मेदार
वृद्ध सबरजीत का कहना है कि “बस्ती से मुख्य रोड तक पहुंच के लिए पक्का रास्ता न होने से बारिश के दिनों में पैदल भी आने-जाने लायक रास्ता नहीं रहता है। मानसून के दिनों में दूषित पानी पीने की वजह से अक्सर लोगों को पेट दर्द और बच्चों में उल्टी-दस्त की बीमारी होती है।
समय से आशा- आंगनबाड़ी और अन्य सेवाएं यहां तक नहीं पहुंच पाती है। जिला अधिकारी साहब हमलोगों की बस्ती की समस्याओं के निराकरण पर ध्यान देने की कृपा करें।”
पक्के घर की आस में सबरजीत
लक्ष्मीना और जितेंद्र के नाम भी प्रधानमंत्री आवास योजना की सूची छपा था। लंबे इंतजार के बाद भी पक्के घर का सपना अब भी अधूरा पड़ा है। इस वजह से ये लोग लंबे समय से कच्चे मकान में रहने को मजबूर हैं। मसलन, नाम पीएम आवास योजना में भी आ गया है। इसके बाद भी जिम्मेदार ध्यान नहीं दे रहे हैं।
विभाग कर रहा सर्वेक्षण
चकिया उपजिलाधिकारी कुंदन राज कपूर ने “जनचौक” को बताया कि क्षेत्र विकासखंड स्तर पर बैठकों का आयोजन कर ग्राम प्रधान व क्षेत्र पंचायत सदस्यों को जानकारी दी जा रही है। सर्वे के लिए कर्मचारियों की टीमें लगाई गई हैं। लाभार्थियों के चयन के लिए गांवों पंचायत सचिवों की ओर से बैठक कर ग्रामीणों को पात्रता जानकारी दी जाएगी।”
हक़ मिलने का इंतजार
योगी सरकार मानती है कि इस योजना को सफलतापूर्वक लागू करने और गरीबों को घर देने में उनका उत्तर प्रदेश सबसे आगे है। लेकिन राज्य सरकार दावे कुछ भी कहें, लेकिन तस्वीर यह है कि अभी भी बहुतेरे गरीब परिवारों को एक पक्की छत का इंतजार है।
अब्दुल्ला बाबा बस्ती में एक आवास योजना का लाभ नहीं मिलने से उन्हें कई प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। सरकारी योजनाओं की यह हकीकत सरकारी व्यवस्था की नाकामी को दर्शाती है। अनेक सरकारी अभियान और लाखों रुपये खर्च करने के बावजूद, लाचार और बेबस गरीब परिवारों को अभी भी उनका हक नहीं मिल पा रहा है।
सौजन्य: जनचौक
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