विद्युत क्षेत्र के निजीकरण के खिलाफ कर्मचारी लामबंद, सरकार दमन की तैयारी में
उत्तर प्रदेश में पूर्वांचल और दक्षिणांचल विद्युत निगमों के निजीकरण पर बिजलीकर्मियों ने ऐलान किया है कि किसी कीमत पर निजीकरण मंजूर नहीं है। इसे लेकर सभी संगठन लामबंद हो गए हैं। राज्य कर्मचारी और शिक्षक संगठनों ने उनका समर्थन किया है। उधर सरकार ने ESMA ( Essential Services Maintenance Act) के तहत अगले 6 महीने तक के लिए किसी भी हड़ताल पर प्रतिबंध लगा दिया है।
यह काला कानून पुलिस को बिना वारंट किसी को भी गिरफ्तार करने का अधिकार देता है और इसमें एक साल तक जेल हो सकती है। यह किसी के ऊपर हड़ताल के लिए उकसाने के आरोप में लगाया जा सकता है। तर्क तो आने वाले दिनों में महाकुंभ के आयोजन और अन्य कार्यक्रमों का दिया गया है, लेकिन यह साफ है कि बिजली के निजीकरण के खिलाफ बिजली कर्मचारियों की आसन्न हड़ताल के मद्देनजर इसका ऐलान किया गया है।
निजीकरण के इस फैसले से न सिर्फ कर्मचारी प्रभावित होंगे, बल्कि आम जनता के ऊपर बिजली की बढ़ी दरों का भारी बोझ आ पड़ेगा। बिजली कर्मचारियों और विपक्षी दलों ने इसके खिलाफ प्रोटेस्ट शुरू कर दिया है। विद्युत कर्मचारी संघर्ष समिति की सभा में कहा गया कि इस मामले में स्टेक होल्डर कर्मचारी और उपभोक्ता हैं। इसलिए कोई भी कदम उठाने से पहले इन दोनों की राय ली जानी चाहिए। वक्ताओं ने ऊर्जा सेक्टर की खरबों रुपए की संपत्ति के मूल्यांकन की मांग उठाई।
पदाधिकारियों ने कहा कि निजीकरण से कर्मचारियों की सेवा शर्तें तो प्रभावित होंगी ही, आम उपभोक्ताओं और किसानों पर भी इसका गंभीर असर पड़ेगा। मुंबई में जहां बिजली क्षेत्र में दो बड़ी निजी कंपनियां हैं, वहां घरेलू उपभोक्ताओं के लिए बिजली की ड्रेन 17 से 18 रुपये प्रति यूनिट हैं जबकि अभी यूपी में अधिकतम दर 6.50 रुपये है। निजीकरण द्वारा 50 हजार संविदा कर्मियों की नौकरी चली जाएगा, जो पिछले 10 वर्षों से बेहद अल्प वेतन पर काम करते चले आ रहे हैं। इसके फलस्वरूप बड़े पैमाने पर सरकारी नौकरियां खत्म हो जाएंगी और उसके साथ स्वाभाविक रूप से आरक्षण भी खत्म हो जाएगा।
कर्मचारी संगठनों द्वारा मांग की गई कि आगरा और ग्रेटर नोएडा में किए गए प्रयोगों की समीक्षा की जानी चाहिए।पावर कॉरपोरेशन 14 साल में आगरा में टोरंटो कंपनी को लागत से कम मूल्य पर बिजली देने पर 3000 करोड़ रुपये का घाटा सह चुका है। बिजली कर्मियों ने निजीकरण के प्रस्तावित मसौदे को सार्वजनिक करने की मांग की है। उधर उपभोक्ता परिषद ने निजीकरण का विरोध करते हुए मुख्यमंत्री से फैसला वापस लेने की अपील किया है। यह भी कहा गया है कि उपभोक्ताओं पर बोझ बढ़ेगा ही, साथ ही जो लाखों युवा नौकरी की आस में हैं उनकी उम्मीद भी टूटेगी। परिषद ने भाजपा के चुनावी संकल्प पत्र का भी हवाला दिया है कि बिजली के निजीकरण का मुद्दा उसमें नहीं था, फिर भाजपा सरकार इस रास्ते पर क्यों बढ़ रही है।
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने कहा है कि उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार लंबे समय से बिजली को निजी हाथों में देने का प्रयास कर रही है। किसानों, मजदूरों और उपभोक्ताओं के दबाव के कारण यह निर्णय पहले लागू नहीं हो सका था। अब वाराणसी और आगरा विद्युत वितरण निगम का निजीकरण करने का निर्णय अदूरदर्शी और जनविरोधी है।
बयान में ओडिशा का उदाहरण देते हुए कहा गया है कि वर्ष 1998 में वहां निजीकरण का प्रयोग किया गया, जो पूरी तरह विफल रहा। 2015 में ओडिशा विद्युत नियामक आयोग ने रिलायंस के सभी लाइसेंस रद्द कर दिए।
निजी कंपनियों से महंगी दरों पर बिजली खरीदने के कारण घाटा उठाना पड़ता है। मुंबई में टाटा पावर कंपनी की दरों का हवाला देते हुए बताया गया कि घरेलू उपभोक्ताओं को 500 यूनिट से अधिक खपत पर 15.17 रुपये प्रति यूनिट का भुगतान करना पड़ता है।
दरअसल उत्तर प्रदेश में योगी सरकार इस समय दोहरी रणनीति पर अमल कर रही है। एक ओर सांप्रदायिक तापमान को बढ़ाया जा रहा है, दूसरी ओर जनता पर आर्थिक बोझ बढ़ाया जा रहा है और किसानों कर्मचारियों मेहनतकशों के हितों पर हमला किया जा रहा है। मुख्यमंत्री रोज एक से एक भड़काऊ बयानबाजी कर रहे हैं। उन्होंने हाल ही में कहा कि देश सुरक्षित है तो धर्म सुरक्षित है, धर्म सुरक्षित है तो हम भी सुरक्षित हैं। आखिर किससे हमें, हमारे धर्म को और देश को खतरा है? मुख्यमंत्री इनको लेकर असुरक्षा की बात क्यों कर रहे हैं ?
काशी, मथुरा, संभल में जो कुछ किया जा रहा है, वह खुले आम पूजास्थल अधिनियम 1991का खुला उल्लंघन है, जिसका साफ तौर पर मंतव्य था कि आजादी के समय जो पूजा स्थल जिस रूप में था, उसी रूप में रहेगा। इसकी धारा 3 में कहा गया है कि कोई भी व्यक्ति किसी धार्मिक सम्प्रदाय के पूजास्थल को किसी दूसरे धार्मिक सम्प्रदाय में नहीं बदलेगा। धारा 4 में स्पष्ट रूप से कहा गया है, “यह घोषित किया जाता है कि 15 अगस्त 1947 को जो पूजास्थल का धार्मिक रूप था, वह उसी रूप में बना रहेगा, जैसा वह उस दिन था।”
सिर्फ राम जन्म भूमि बाबरी मस्जिद को विवाद के कारण अपवाद माना गया था। यहां तक कि अयोध्या विवाद के फैसले में भी उच्चतम न्यायालय में इस कानून को अपहोल्ड किया गया है। लेकिन अब उसकी धज्जियां उड़ाते हुए जगह जगह मस्जिदों के सर्वे की इजाजत दी जा रही है। तर्क जो भी दिए गए हों लेकिन इनका उद्देश्य केवल अकादमिक जानकारी प्राप्त करना नहीं बल्कि पूजास्थल के धार्मिक स्वरूप को बदलना ही है जो पूजास्थल अधिनियम 1991 का खुला उल्लंघन है।
विपक्ष तथा कर्मचारी मजदूर संगठनों एवं नागरिक समाज को मिलकर योगी सरकार की दोहरी रणनीति को नाकाम करना होगा जिसमें एक ओर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को बढ़ावा देने वाले कदम उठाए जा रहे हैं, दूसरी ओर पूंजीपतियों को फायदा पहुंचाने वाले और आम जनता, मेहनतकशों पर बोझ बढ़ाने वाले कदम उठाए जा रहे हैं।
(लाल बहादुर सिंह इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं)
सौजन्य: जनचौक
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