दलित बस्ती रेवसा की त्रासदीः “हमारे घरों को कब्रिस्तान बनाकर हम सभी को गाड़ दो और हमारी ज़मीन ले जाओ”-ग्राउंड रिपोर्ट
चंदौली। उत्तर प्रदेश के चंदौली जिले का एक छोटा सा गांव, रेवसा, इन दिनों दर्द और संघर्ष की नई कहानी बन गया है। जीटी रोड के किनारे बसे इस गांव में दलित समुदाय की तीन बस्तियां हैं, जिन्हें भारतमाला परियोजना के अंतर्गत उजाड़ने की योजना बनाई जा रही है। यह वही ज़मीनें हैं, जिन पर इन दलित परिवारों की कई पीढ़ियां पली-बढ़ी हैं। अब इनकी जमीनें और मकान उनसे छिनने वाले हैं, और इसके बदले में पुनर्वास का कोई ठोस इंतजाम नहीं है।
रेवसा (धूस) दलित बस्ती के सुरेंद्र प्रसाद अपने टूटे हुए दिल से बताते हैं,”बनारस से आने वाला रिंग रोड बीजेपी नेता छत्रबलि सिंह के एसआरवीएस स्कूल के पास जीटी रोड पर उतरता है। पहले भारतमाला परियोजना का नक्शा इस क्षेत्र को नहीं छूता था, लेकिन बाद में इसे बदल दिया गया और हमारी तीनों बस्तियों को इसमें शामिल कर दिया गया। बीजेपी नेता के स्कूल को छोड़ दिया गया, जबकि हमारी जमीन छीन ली गई। यह हमारे साथ अन्याय है। अच्छा यह होगा कि हमारे घरों को कब्रिस्तान बनाकर हम सभी को गाड़ दो और हमारी ज़मीन ले जाओ।”
रेवसा दलित बस्ती के सुरेंद्र प्रसाद अपनी पीड़ा का इजहार करते हुए
सुरेंद्र की बातों में गुस्सा और बेबसी साफ झलकती है। वह कहते हैं,”हमारे घर और जमीन भारतमाला एक्सप्रेस-वे के लिए ले ली जाएंगी, लेकिन हमें कहीं बसाने का कोई इंतजाम नहीं किया जा रहा। सरकार तो यह एक्सप्रेस-वे बाद में किसी कारपोरेट घराने को सौंप देगी, और हम सड़क पर आ जाएंगे। हमारी ज़मीन हमारी पहचान है। इसे छीनने से अच्छा है कि हमें दफना दिया जाए।”
क्यों छोड़ी गई बीजेपी नेता की जमीन?
दलित बस्तियों के लोगों के गुस्से का बड़ा कारण है कि नक्शा बदलकर उनकी जमीनें ले ली गईं, लेकिन बीजेपी नेता छत्रबलि सिंह के स्कूल की जमीन को छूआ तक नहीं गया। रामरती, जो रेवसा की एक दलित महिला हैं, सवाल करती हैं, “हम सरकार के विकास कार्यों के खिलाफ नहीं हैं। लेकिन अगर हमारी जमीन ली जा रही है, तो हमें बसाने की भी जिम्मेदारी सरकार की है। बीजेपी नेता के स्कूल को क्यों छोड़ दिया गया? क्या हम इंसान नहीं हैं?”
कबाड़ का धंधा करने वाला एक युवक
रामरती आगे कहती हैं, “हमारे गांव में 15 बीघा आबादी की जमीन है। उसमें से 85 फीसदी दलितों की है और बाकी 15 फीसदी यादवों की। सरकार को पहले स्कूल की जमीन का अधिग्रहण करना चाहिए और उसके बाद हमारी जमीन का। लेकिन यहां दलितों को ही निशाना बनाया गया है।”
भारतमाला परियोजना के तहत बनने वाला वाराणसी-कोलकाता सिक्सलेन एक्सप्रेस-वे देश के चार राज्यों से होकर गुजरेगा। यह 610 किलोमीटर लंबा होगा और इसका उद्देश्य यात्रा के समय को 12-14 घंटों से घटाकर 6-7 घंटे करना है। सरकार का दावा है कि लगभग ₹35,000 करोड़ की लागत से बनने वाला यह एक्सप्रेस-वे सरकार के अनुसार सामाजिक-आर्थिक विकास को तेज करेगा। लेकिन रेवसा के दलितों के लिए यह परियोजना विकास का सपना नहीं, बल्कि उनकी बर्बादी का कारण बन गई है।
सरकारी दस्तावेज़ों में इस क्षेत्र की अधिकांश जमीनें दलितों के नाम दर्ज हैं। बावजूद इसके, उन्हें उजाड़ने की प्रक्रिया बिना किसी सहमति के जारी है। रेवसा बस्ती के लोग अपने हक के लिए कई बार डीएम और एसडीएम दफ्तर के सामने प्रदर्शन कर चुके हैं। लेकिन, प्रशासन ने उनकी बातों को अनसुना कर दिया। रेवसा की रामरती, जिनकी आंखों में आंसू और गुस्से का मिला-जुला भाव है। वह कहती हैं,”प्रशासन ने हमें इतने कम मुआवजे का प्रस्ताव दिया है कि उससे कहीं झोपड़ी भी नहीं बन सकती।
एक्सप्रेस वे के लिए दलित बस्ती के अधिग्रहण पर सवाल उठाती एक महिला
“यही वजह है कि हम सब अब अपने घर और जमीन के लिए जान देने को तैयार हैं। जो मुआवजा दिया जा रहा है, उससे हम अपना जीवन दोबारा शुरू नहीं कर सकते। यह मुआवजा हमारे जीवन को दोबारा बसाने के लिए नहीं, बल्कि हमें हमारी जमीन से खदेड़ने के लिए है।”
रेवसा दलित समुदाय के लोग यह मानते हैं कि सरकार ने यह फैसला केवल उनकी कमजोर स्थिति का फायदा उठाने के लिए किया है। दलितों का कहना है कि अगर यह अन्याय जारी रहा, तो उनकी पहचान हमेशा के लिए मिट जाएगी। दलित बस्ती के सबसे पढ़े-लिखे युवक संजीव कुमार से मुलाकत हुई तो उन्होंने अपना दर्द साझा किया। संजीव मैकेनिकल ट्रेड से पालिटेक्निक करने के बाद भी बेरोजगार हैं। बोले, “हमारा घर, हमारी जमीन और हमारी पहचान सबकुछ छीन लिया जाएगा। सरकार हमारी आवाज नहीं सुन रही। हमें मजबूर किया जा रहा है कि हम अपनी लड़ाई खुद लड़ें।”
चिंता में डूबे रेवसा दलित बस्ती के लोग
संजीव यह भी कहते हैं, “रेवसा की दलित बस्तियां विकास की आंधी में अपना अस्तित्व खोने के कगार पर हैं। यह सवाल केवल रेवसा के लोगों का नहीं, बल्कि पूरे देश का है कि क्या विकास के नाम पर किसी समुदाय को उनकी जमीन और पहचान से वंचित करना सही है? क्या सरकार इन लोगों को न्याय देगी या केवल उन्हें आंकड़ों में बदलकर छोड़ देगी? हमारी मांग है कि या तो हमें हमारी जमीन पर बसने दिया जाए, या फिर पुनर्वास का पुख्ता इंतजाम किया जाए।”
संजीव की तरह यहां हर व्यक्ति की कहानी एक जैसे दर्द की है। वह बताते हैं “जिन जमीनों पर हमारी कई पीढ़ियां पली-बढ़ी, अब वो जमीन भारतमाला परियोजना के लिए अधिग्रहित की जा रही है। इन बस्तियों के निवासी सदमे में हैं। सभी के घर, जमीन, हमारी पहचान सब कुछ छीने जाने का खतरा मंडरा रहा है। दलित बस्ती के लोगों ने तीन बार डीएम और एसडीएम के दफ्तर पर प्रदर्शन किया, पर कोई सुनवाई नहीं हुई। हमने अपनी समस्या बताई, लेकिन प्रशासन की नजर में हम लोग सिर्फ आंकड़े हैं। मुआवजा इतना कम है कि उससे कहीं कोई ठिकाना नहीं बनेगा। अगर सरकार को यही करना है, तो बेहतर होगा कि हमें हमारी जमीन पर ही दफन कर दे।”
हमारी पहचान मिटाई जा रही है
रेवसा की तीन दलित बस्तियां सिर्फ जमीन या मकान नहीं हैं। ये उनकी पीढ़ियों की मेहनत, संघर्ष और पहचान का हिस्सा हैं। इसी बस्ती की ममता देवी रामरती कहती हैं, “हमारी ज़मीनें हमारे बच्चों का भविष्य थीं। यहां हर ईंट, हर कोना हमारी जिंदगी की कहानी कहता है। अगर ये सब छिन गया, तो हम सिर्फ बेघर नहीं होंगे, बल्कि बेमकसद हो जाएंगे।”
भारतमाला सड़क परियोजना के लिए अपनी जमीन देने के ख्याल मात्र से रेवसा के दलित परिवारों के दिल दहला जाते हैं। वे सवाल करते हैं कि क्या विकास का मतलब उनकी पहचान का मिट जाना है? इस मुद्दे में सबसे बड़ी गूंज यह सवाल है कि आखिर बीजेपी नेता छत्रबलि सिंह के स्कूल को क्यों छोड़ दिया गया? क्या यह महज संयोग है या जानबूझकर किया गया अन्याय?
दुखड़ा सुनाती रेवसा दलित बस्ती की महिलाएं
रेवसा की उर्मिला देवी की कहानी उन हजारों दलित परिवारों की दुर्दशा का प्रतिनिधित्व करती है, जो सरकार की विकास योजनाओं की बलिवेदी पर अपनी जिंदगियां कुर्बान करने को मजबूर हैं। उर्मिला के पास एक छोटा-सा दड़बेनुमा मकान है, जहां उनकी विकलांग बेटी और जानवर साथ पलते हैं। उनके पति प्यारेलाल मज़दूरी करके जैसे-तैसे परिवार का पेट भरते हैं। उर्मिला दर्द भरे स्वर में कहती हैं, “हम क्या खाएंगे और कैसे जिंदा रहेंगे? जब रिंगरोड के पश्चिम में पर्याप्त जगह है, तो पूरब की दलित बस्तियों को उजाड़ने की योजना क्यों बनाई गई? बीजेपी के शासन में दलितों और मुसलमानों की कहीं सुनवाई नहीं हो रही।”
उर्मिला की तरह ही शुकला देवी का भी दर्द छिपा नहीं है। वह कहती हैं, “सरकार हमें सड़क पर मरने के लिए छोड़ देना चाहती है। महंगाई इतनी है कि जीना दूभर हो गया है। अब हमें घर और उपजाऊ भूमि से भी बेदखल किया जा रहा है। हमें जमीन और मुआवजा दोनों चाहिए। मुआवजा इतना होना चाहिए कि हम जमीन खरीदकर नया घर बना सकें। अगर सरकार हमें कहीं और बसाना चाहती है, तो हमें बंजर जमीन दे, जिस पर गांव के दबंगों ने कब्जा कर रखा है।”
रेवसा के धर्मेंद्र जैसे युवा अपने भविष्य को लेकर बेहद चिंतित हैं। वह कहते हैं, “हमारा गुनाह सिर्फ इतना है कि हम बीएसपी और मायावती के समर्थक रहे हैं। क्या इसका मतलब यह है कि हमारी जमीनें और घर छीन लिए जाएंगे? अधिग्रहण के नोटिफिकेशन से पूरा गांव परेशान है। हम मज़दूरी और पशुपालन से अपना गुजारा करते हैं। अगर हमारी जमीनें छीन ली गईं, तो हमारा क्या होगा?” धर्मेंद्र बताते हैं कि उन्होंने कई बार अधिकारियों से बात करने की कोशिश की, लेकिन कहीं से संतोषजनक जवाब नहीं मिला। उल्टे प्रशासन ने जमीन अधिग्रहण की सहमति के लिए उन पर दबाव डालना शुरू कर दिया है।
विकास की कीमत पर उजड़ती जिंदगियां
उर्मिला और धर्मेंद्र की ही तरह महेंद्र बिंद भी चिंतित हैं। वह बताते हैं, “सरकार एक लाख 69 हजार रुपये प्रति बिस्वा के हिसाब से मुआवजा देने को तैयार है, लेकिन बाजार दर 30 लाख रुपये प्रति बिस्वा है। सरकार चार गुना मुआवजा देने की बात तो करती है, लेकिन सर्किल रेट 2017 से नहीं बढ़ाया गया। यह पूरी प्रक्रिया 2013 के भूमि अधिग्रहण कानून के खिलाफ है।”
महेंद्र बताते हैं कि 2013 के कानून के तहत मुआवजे के लिए उचित दर तय करना, प्रभावितों की सहमति लेना, सामाजिक प्रभाव का मूल्यांकन करना और पुनर्वास की व्यवस्था करना अनिवार्य है। लेकिन सरकार इस प्रक्रिया से बचने की कोशिश कर रही है, क्योंकि यह उनके लिए महंगा सौदा साबित हो सकता है। वह कहते हैं, “35 प्रतिशत से ज्यादा भूमि अधिग्रहण के मामले विवादित हैं। मुआवजे में गड़बड़ी, जबरन घर खाली कराना और पुनर्वास की अनदेखी अब सामान्य बात हो गई है।”
रेवसा की इस जमीन का किया गया है अधिग्रहण
रेवसा के दलित परिवार खेती और पशुपालन पर निर्भर हैं। उनकी चिंता यह है कि अगर उन्होंने अपनी जमीनें दे दीं, तो उनका भविष्य कौन सुरक्षित करेगा? क्या सरकार उन्हें जमीन के बदले जमीन देगी? या उनके परिवार के किसी सदस्य को नौकरी देगी? इन सवालों के जवाब में सरकार की ओर से कोई ठोस आश्वासन नहीं मिला है।
विकास की इस अंधी दौड़ में रेवसा के लोग खुद को हारा हुआ महसूस कर रहे हैं। उनकी जमीनें और घर, जो उनकी पीढ़ियों की मेहनत का परिणाम हैं, उनसे छीन लिए जा रहे हैं। मुआवजे के नाम पर धोखा और भविष्य के नाम पर अनिश्चितता ही उनके हिस्से आ रही है।
रेवसा के दलित बस्ती के लोग यह सवाल कर रहे हैं, “विकास के नाम पर उनकी ज़िंदगी क्यों उजाड़ी जा रही है? उनकी बस्तियों को उजाड़कर क्या सच में विकास होगा, या यह केवल ताकतवरों का खेल है? दलित बस्ती के युवक हरिश्चंद्र कुमार कहते हैं, “अगर सरकार को वाकई विकास करना है, तो स्कूल की जमीन क्यों नहीं ली गई? दलित बस्ती की तरफ ही क्यों ध्यान दिया गया? क्या हम इंसान नहीं हैं?”
दलितों के आंसुओं पर विकास की इमारत
अखिल भारतीय किसान सभा (आईपीएफ) के राज्य कार्यसमिति सदस्य अजय राय की बातों में एक गहरी व्यथा झलकती है। वह कहते हैं, “सरकार ने दलितों और किसानों के पुनर्वास के लिए कोई ठोस योजना नहीं बनाई है। इससे प्रभावित परिवारों में भय और असंतोष का माहौल बन गया है। भारतमाला परियोजना के तहत भूमि अधिग्रहण में न केवल किसानों के अधिकारों का हनन हो रहा है, बल्कि भूमि अधिग्रहण कानून का भी खुलेआम उल्लंघन किया जा रहा है। भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण और भाजपा सरकार किसानों को उचित मुआवजा देने के बजाय उन्हें भूमिहीन बनाने पर आमादा है।”
रेवसा में एक दलित का घर
रेवसा, बरहुली, कठौरी, लौदा और हिरावनपुर जैसे गांवों में किसानों को उनकी उपजाऊ जमीन के बदले जो मुआवजा दिया जा रहा है, वह उनकी मेहनत और जिंदगी का अपमान है। अजय राय बताते हैं, “रेवंसा के किसानों को प्रति एकड़ मात्र ₹3.57 लाख, बरहुली के किसानों को ₹1.70 लाख, देवई के किसानों को ₹1.40 लाख और कठौरी के किसानों को ₹1.50 लाख का मुआवजा दिया जा रहा है। लौदा के किसानों को केवल ₹2.40 लाख प्रति एकड़ की दर से मुआवजा मिल रहा है। यह राशि बाजार मूल्य के सामने ऊंट के मुंह में जीरे के समान है। यह किसानों के साथ छलावा है।”
सरकारी नियमों के अनुसार, कृषि भूमि का न्यूनतम मूल्य ₹3 से ₹4 लाख प्रति एकड़ है। इसका चार गुना मुआवजा ₹12 लाख प्रति एकड़ होना चाहिए। लेकिन चंदौली जैसे जिलों में कृषि भूमि की वास्तविक बाजार दर ₹30 लाख प्रति एकड़ से कम नहीं है। ऐसे में किसानों का कहना है कि उन्हें प्रति एकड़ ₹1 करोड़ से अधिक मुआवजा मिलना चाहिए।
अजय राय यह भी कहते हैं, “संसद द्वारा 2013 में बनाए गए भूमि अधिग्रहण कानून के तहत बाजार दर का चार गुना मुआवजा देना अनिवार्य है। साथ ही, भूमि अधिग्रहण केवल अत्यधिक जनकल्याणकारी योजनाओं के लिए होना चाहिए। लेकिन विडंबना यह है कि पिछले दस वर्षों में सर्कल रेट में कोई वृद्धि नहीं की गई। 2013 की दरों पर मूल्यांकन कर किसानों को उनकी उपजाऊ जमीन का मुआवजा दिया जा रहा है। यह सीधे-सीधे अन्याय है।”
किसानों के लिए उनकी जमीन सिर्फ मिट्टी नहीं है; यह उनकी पहचान, उनकी आजीविका और उनकी पीढ़ियों की मेहनत का प्रतीक है। बरहुली के किसान महेंद्र बिंद अपने दर्द को शब्दों में बयां करते हुए कहते हैं, “हमारी उपजाऊ जमीन, जो हमारी आजीविका का आधार है, बाजार दर के मुकाबले बेहद कम कीमत पर अधिग्रहित की जा रही है। यह हमारी मेहनत और भविष्य को नकारने जैसा है। इसके अलावा, अधिग्रहण नोटिस में बताई गई भूमि से अधिक क्षेत्र पर कब्जा किया जा रहा है। सरकार हमें धोखा दे रही है। उचित मुआवजा न देना हमारे शोषण का स्पष्ट प्रमाण है।”
किसानों का कहना है कि भारतमाला परियोजना के अंतर्गत भूमि अधिग्रहण में न केवल उचित प्रक्रिया का पालन नहीं हो रहा है, बल्कि यह 2013 के भूमि अधिग्रहण कानून का खुला उल्लंघन है। किसानों को उनका हक दिलाने के लिए सरकार को 2013 के सर्कल रेट को संशोधित कर बाजार मूल्य के अनुसार मुआवजा देना चाहिए। यह स्थिति केवल चंदौली तक सीमित नहीं है। पूरे देश में किसानों के साथ ऐसा अन्याय हो रहा है। सरकार विकास के नाम पर उनके हकों को कुचल रही है। किसानों के आंसुओं और उनके जीवन की तबाही पर विकास की इमारत खड़ी करने की यह कोशिश न केवल निंदनीय है, बल्कि अमानवीय भी है।
सामाजिक प्रभाव का मूल्यांकन नहीं किया
भारत माला परियोजना के तहत भूमि अधिग्रहण से प्रभावित किसानों ने अपनी जमीन का बाजार मूल्य निर्धारित कर चार गुना मुआवजे की मांग की है। लेकिन उनकी यह मांग अभी भी अनसुनी है। पूर्व जिला पंचायत सदस्य तिलकधारी बिंद का कहना है, “सरकार को भूमि अधिग्रहण से पहले इसके सामाजिक प्रभाव का मूल्यांकन करना चाहिए था। पुनर्वास और मुआवजे की नीतियां प्रभावित समुदायों की जरूरतों और भविष्य को ध्यान में रखकर तय की जानी चाहिए थीं। इस परियोजना की सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि सरकार इसे कितनी संवेदनशीलता और न्यायपूर्ण तरीके से लागू करती है।”
तिलकधारी बिंद का दर्द उनके शब्दों में झलकता है। वह कहते हैं, “वाराणसी-कोलकाता एक्सप्रेसवे भले ही एक नई शुरुआत हो, लेकिन इसे वंचित समुदायों के आंसुओं के साथ नहीं लिखा जाना चाहिए। सरकार को यह समझना होगा कि जब एक बस्ती उजाड़ी जाती है, तो वहां के लोगों को फिर से बसने में कई पीढ़ियां गुजर जाती हैं। सबसे बड़ा सवाल यह है कि इन दलित परिवारों के बच्चों का भविष्य क्या होगा? वे कहां पढ़ेंगे, कहां बढ़ेंगे?”
यह परियोजना केवल भौतिक ढांचे का विस्तार भर नहीं होनी चाहिए। तिलकधारी बिंद आगे कहते हैं, “एक्सप्रेसवे का निर्माण ऐसा साधन होना चाहिए, जो लोगों के जीवन को बेहतर बनाए। यह उन समुदायों की खुशियों और अधिकारों को कुचलकर नहीं होना चाहिए, जिनके पास पहले से ही बहुत कम है।” उन्होंने सवाल उठाया है कि सरकार ने पुनर्वास की कोई ठोस योजना क्यों नहीं बनाई। “क्या इन गरीब किसानों और मजदूरों की जिंदगी का कोई मोल नहीं? क्या उनका भविष्य केवल विकास के नाम पर मिटा दिया जाएगा?”
बिंद कहते हैं, “भूमि अधिग्रहण केवल जमीन लेने भर का काम नहीं है, बल्कि यह उन परिवारों से उनकी पहचान, उनके सपने और उनकी मेहनत का फल छीन लेने जैसा है। जब तक सरकार मुआवजे और पुनर्वास की प्रक्रिया को ईमानदारी और संवेदनशीलता के साथ लागू नहीं करती, तब तक यह परियोजना केवल कागज पर एक सफल योजना लग सकती है, लेकिन वास्तविकता में यह प्रभावित समुदायों के लिए त्रासदी ही होगी। सरकार को चाहिए कि वह प्रभावित किसानों की मांगों को गंभीरता से सुने और उन्हें न्यायपूर्ण मुआवजा प्रदान करे। आखिरकार, कोई भी विकास उन लोगों के आंसुओं पर टिककर नहीं खड़ा हो सकता, जिनकी जिंदगी से उसका मूल्य चुकाया जा रहा है।”
विकास का सपना या दलितों की बर्बादी?
वाराणसी-कोलकाता एक्सप्रेसवे, जो भारतमाला परियोजना का हिस्सा है, देश की राजधानियों को जोड़ने वाला महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट है। सरकार का दावा है कि यह परियोजना सामाजिक-आर्थिक विकास के नए रास्ते खोलेगी। लेकिन रेवसा के दलितों के लिए यह परियोजना सिर्फ बर्बादी और अन्याय लेकर आई है।
इस दर्दनाक स्थिति में रेवसा के दलित समुदाय ने सरकार और प्रशासन से गुहार लगाई है। लेकिन अब तक उन्हें सिर्फ अनदेखा किया गया है। उनके विरोध प्रदर्शन और मांगें सरकारी फाइलों में दबकर रह गई हैं। रामरती और ममता की आवाज रेवसा के हर दलित के दिल की बात कहती है, “हमारी जमीनें ले लो, लेकिन पहले हमें दफना दो। हम सड़क पर आ गए तो न तो सरकार से लड़ पाएंगे, न ही अदालत में अपनी बात रख पाएंगे।”
वाराणसी से कोलकाता तक को जोड़ने वाला सिक्स लेन एक्सप्रेसवे, भारतमाला परियोजना का एक अहम हिस्सा है। इस महत्वाकांक्षी परियोजना का उद्देश्य देश के विभिन्न हिस्सों को एक साथ जोड़ना और यात्रा के समय को कम करना है। उत्तर प्रदेश के चंदौली जिले के रेवसा गांव से शुरू होकर यह एक्सप्रेसवे पश्चिम बंगाल के हावड़ा जिले के उलुबेरिया तक जाएगा। इस परियोजना को 2027 तक पूरा करने का लक्ष्य रखा गया है।
वाराणसी-कोलकाता एक्सप्रेसवे का कुल लंबाई 610 किलोमीटर होगी, जो उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल के चार राज्यों से होकर गुजरेगी। इस सड़क का मुख्य उद्देश्य वाराणसी जैसे आध्यात्मिक शहर और कोलकाता जैसी सांस्कृतिक राजधानी को आपस में जोड़ना है। यह एक्सप्रेसवे झारखंड की राजधानी रांची से भी होकर गुजरेगा और एशियाई राजमार्ग-1 (ग्रैंड ट्रंक रोड) के समानांतर चलेगा।
इस सड़क के निर्माण से न केवल दो प्रमुख राजधानियों के बीच की दूरी कम होगी, बल्कि यह देश के अन्य महत्वपूर्ण एक्सप्रेसवे से जुड़कर पूरे भारत के लिए बेहतर कनेक्टिविटी प्रदान करेगा। इसके अलावा, यह सड़क 18 बड़े शहरों से गुजरते हुए स्थानीय और अंतरराष्ट्रीय व्यापार को बढ़ावा देने में भी मददगार होगी।
वर्तमान में वाराणसी से कोलकाता की यात्रा में 12 से 14 घंटे लगते हैं। इस एक्सप्रेसवे के बन जाने के बाद यह समय घटकर मात्र 6-7 घंटे रह जाएगा। साथ ही, दूरी जो अभी 690 किलोमीटर है, वह कम होकर 610 किलोमीटर रह जाएगी। इसका मतलब है कि यात्रियों और व्यापारियों के लिए समय और ईंधन दोनों की बचत होगी। सरकार का यह भी दावा है कि एक्सप्रेसवे से औद्योगिक और कृषि क्षेत्रों को नया जीवन मिलेगा। बेहतर कनेक्टिविटी के कारण बाजार तक पहुंच आसान होगी और स्थानीय उत्पादों की मांग बढ़ेगी।
करीब 35,000 करोड़ रुपये की लागत से बनने वाला यह एक्सप्रेसवे न केवल यात्रा को सुगम बनाएगा, बल्कि चार राज्यों में सामाजिक और आर्थिक विकास को भी गति देगा। इस परियोजना के माध्यम से स्थानीय लोगों के लिए रोजगार के अवसर पैदा होंगे। निर्माण कार्य के दौरान हजारों लोगों को रोजगार मिलेगा और एक्सप्रेसवे के आस-पास नई व्यावसायिक गतिविधियां शुरू होने की उम्मीद है।
31 गांवों से गुजरेगा एक्सप्रेस-वे
चंदौली जिले में प्रस्तावित एक्सप्रेस-वे 22 किलोमीटर लंबा होगा, जो पीडीडीयू नगर तहसील के रेवसां स्थित राष्ट्रीय राजमार्ग (एनएच) से शुरू होकर धरौली, बिहार बॉर्डर तक जाएगा। इस एक्सप्रेस-वे का मार्ग रेवसां, कठौड़ी, बरहुली, हिरामनपुर, लौदा, देबई और सदर तहसील के शाहपुर, रेवसां, मद्धुपुर, बहेरा, खुरुहुजा, शिवपुर, अकोढ़ा कला, चनहटा, चुरमुली, सिकंदरपुर, गोरारी, विशुनपुरा, गोवर्धनपुर, जगदीशपुर, नैनपुरा, हरनाथपुर, कांटा, परासी खुर्द, जलालपुर, टीरो, कोल्हई, बेदहा, सवैया महलवार, सवैया पट्टीदारी और धरौली के राजस्व गांवों से होकर गुजरेगा। कुल 31 गांवों के पास से यह एक्सप्रेस-वे गुजरेगा।
यह परियोजना भारत सरकार की महत्वाकांक्षी भारतमाला योजना का हिस्सा है, जिसका उद्देश्य देश के सड़क नेटवर्क को और अधिक मजबूत बनाना है। भारतमाला परियोजना के तहत राष्ट्रीय राजमार्ग और एक्सप्रेसवे के माध्यम से इकोनॉमिक कॉरिडोर, इंटर-कॉरिडोर और फीडर रूट्स का विकास किया जा रहा है। इसका उद्देश्य सड़क बुनियादी ढांचे को इस तरह से सुदृढ़ करना है कि यह देश के सभी कोनों तक निर्बाध कनेक्टिविटी प्रदान कर सके।
इस परियोजना में अंतरराष्ट्रीय सीमाओं तक सड़क निर्माण के साथ-साथ बंदरगाहों और समुद्री तटों को हाईवे नेटवर्क से जोड़ने पर भी ध्यान दिया गया है। इसके अतिरिक्त, ग्रीन-फील्ड एक्सप्रेसवे का निर्माण भी किया जाएगा। भारतमाला योजना का मुख्य लक्ष्य देश के 550 जिलों को चार से आठ लेन के हाईवे नेटवर्क से जोड़ना है। इसके तहत देशभर में 50 हाईवे कॉरिडोर विकसित किए जाएंगे और माल ढुलाई की क्षमता को 70 से 80 प्रतिशत तक बढ़ाने की योजना है।
भारतमाला योजना के अंतर्गत गुजरात, राजस्थान, दिल्ली, महाराष्ट्र, पंजाब, जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, पश्चिम बंगाल, सिक्किम, असम, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर और मिजोरम समेत देश के विभिन्न राज्यों में सड़क निर्माण कार्य तेज गति से किया जा रहा है। इस परियोजना का उद्देश्य न केवल बेहतर परिवहन सुविधा उपलब्ध कराना है, बल्कि क्षेत्रीय आर्थिक विकास को भी प्रोत्साहित करना है।
बनारस-कोलकाता एक्सप्रेस-वे को पहले आठ लेन का बनाया जाना था, लेकिन जगह की कमी के कारण इसे छह लेन तक सीमित कर दिया गया। इसके अलावा, कई स्थानों पर भूमि अधिग्रहण और पुनर्वास से संबंधित मुद्दे भी सामने आए हैं। विशेषकर चंदौली जिले के रेवसा गांव में, जहां दलित समुदाय की तीन बस्तियों को उजाड़ने की योजना बनाई गई है।
पूर्वांचल की मिट्टी से उखड़ते किसान
मीडिया रिपोर्ट्स बताती हैं कि पूर्वांचल की दो-तिहाई से अधिक आबादी अपनी रोज़ी-रोटी के लिए खेती पर निर्भर है। यह क्षेत्र भारत के उस ग्रामीण जीवन का प्रतिनिधित्व करता है, जहां मिट्टी से जुड़ी हर सांस एक कहानी कहती है। लेकिन, अब इसी मिट्टी से किसान को उखाड़ने की तैयारी चल रही है। वरिष्ठ पत्रकार राजीव मौर्य बताते हैं, “केरल, बिहार, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और तमिलनाडु जैसे राज्यों में औसत जोत का आकार आधे से दो एकड़ के बीच है। तुलना करें तो फ्रांस में औसतन 110 एकड़, अमेरिका में 450 एकड़, और ब्राजील व अर्जेंटीना में इससे भी अधिक भूमि जोत है। भारतीय किसानों की यह हकीकत उनकी कम उत्पादकता और गरीबी का मूल कारण है। यही वजह है कि भारतमाला परियोजना का विरोध इतना मुखर है।”
भारत में खेती आज भी सबसे कम उत्पादक क्षेत्र है। देश के जीडीपी में इसका योगदान महज 15 फीसदी है, जबकि देश के आधे से अधिक कार्यबल का जीवन खेती पर ही निर्भर है। ज़मीन भारत का सबसे दुर्लभ संसाधन है, लेकिन उसकी उत्पादकता बेहद कम है। राजीव मौर्य कहते हैं, “ये स्थिति न केवल चिंताजनक है, बल्कि यह भारत की गरीबी का सबसे बड़ा कारण भी है। जो किसान इस जमीन को पीढ़ियों से जोत रहे हैं, वे अब अपनी जमीन और भविष्य दोनों को खतरे में महसूस कर रहे हैं।”
राजीव मौर्य कहते हैं, “उत्पादकता बढ़ाने के दो ही तरीके हैं। पहला, कृषि को अधिक उत्पादक बनाया जाए, और दूसरा, जमीन को खेती के अलावा किसी अन्य काम में इस्तेमाल किया जाए। आज़ादी के बाद विकास की प्रक्रिया इन्हीं नुस्खों पर आधारित रही। बड़े पैमाने पर सिंचाई योजनाओं और कृषि के आधुनिकीकरण के प्रयास हुए। साथ ही, औद्योगिकीकरण और शहरीकरण के अभियान ने ज़मीन को किसानों से छीनने का सिलसिला तेज़ कर दिया। लेकिन इस विकास का खामियाजा भुगता सिर्फ छोटे और सीमांत किसानों ने।”
आज किसान के पास न तो जमीन का भरोसा है, न मुआवजे की उम्मीद। 1894 के औपनिवेशिक भूमि अधिग्रहण कानून के तहत आज़ाद भारत में भूमि का अधिग्रहण शुरू हुआ। यह कानून बड़े ज़मींदारों के विवादों को तो हल कर गया, लेकिन छोटे किसानों के हिस्से में सिर्फ छल-कपट और असुरक्षा आई।
दलितों की टूटी उम्मीदें और डर
आज, भारतमाला परियोजना के तहत भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया उन्हीं छोटे किसानों और दलितों को निशाना बना रही है। उनकी जो थोड़ी-बहुत जमीन बची थी, उसे भी उनसे छीना जा रहा है। उनकी रोजी-रोटी, उनकी मिट्टी और उनके सपने, सब विकास के नाम पर कुचले जा रहे हैं। राजीव मौर्य सवाल करते हैं, “क्या किसानों और दलितों-पिछड़ों से उनकी उपजाऊ जमीन छीनकर शहरीकरण और औद्योगिकीकरण का यह मॉडल सही है? क्या यह विकास है, जो गरीब और वंचित समुदायों की जिंदगी की कीमत पर खड़ा हो?”
दुश्वारियां सोने नहीं देतीं
“यह सवाल हर उस किसान के दिल से उठ रहा है, जो अपनी मिट्टी से जुड़े हुए हैं। सरकार को चाहिए कि विकास की इस दौड़ में उन लोगों को पीछे न छोड़े, जिनकी मेहनत से यह देश आज भी सांस लेता है। अगर विकास का मतलब किसानों के आंसुओं और उनके जीवन के खत्म होने पर आधारित है, तो यह विकास नहीं, विनाश है। क्या सरकार इस सच्चाई को सुनेगी? या किसान का दर्द सिर्फ एक और कहानी बनकर रह जाएगा? “
चंदौली के किसान नेता राम अवध सिंह का दर्द उनके शब्दों में साफ झलकता है। वह कहते हैं, “इंडियन एयरलाइंस, कोयला, खनन, रेलवे, बीमा जैसे बड़े सार्वजनिक संस्थानों को बेचने पर तुली सरकार ने जनता का विश्वास खो दिया है। जमीन छीनने के हर कदम में पूंजीपतियों की दलाली साफ दिखाई देती है। रेवसा की बात हो या छत्तीसगढ़, झारखंड, सिलगेर और हसदेव अभ्यारण्य से लेकर पूर्वी उत्तर प्रदेश और पश्चिमी बिहार के कैमूर तक, यह सब सरकार की एक सोची-समझी नीति का हिस्सा है, जिसके तहत किसानों की जमीन पर कब्जा करके उद्योगपतियों को फायदा पहुंचाया जा रहा है।”
राम अवध सिंह बताते हैं कि भूमि अधिग्रहण से सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाले किसानों और भूमालिकों को उनकी जमीन की कीमत न के बराबर दी गई। कई किसानों को तो अब तक कुछ भी नहीं मिला। जिन भूमिहीन मजदूरों की रोजी-रोटी पूरी तरह जमीन पर निर्भर थी, उन्हें तो किसी तरह का मुआवजा या पुनर्वास भी नहीं दिया गया। उन्होंने कहा, “यह पूरी प्रक्रिया अन्यायपूर्ण थी। इसका सबसे ज्यादा खामियाजा दलितों और आदिवासियों को भुगतना पड़ा, जिनकी जिंदगियां बर्बाद हो गईं।”
राम अवध आगे कहते हैं, “सत्ता में आते ही मोदी सरकार ने 2013 में यूपीए सरकार द्वारा लाए गए भूमि अधिग्रहण कानून को कमजोर करने का काम किया। किसानों की सहमति और सामाजिक प्रभाव के आंकलन की अनिवार्यता को हटाकर इसे रक्षा, राष्ट्रीय सुरक्षा, औद्योगिक कॉरिडोर और ग्रामीण बुनियादी ढांचे के नाम पर लागू कर दिया गया। यह अध्यादेश पूंजीपतियों को फायदा पहुंचाने का एक और जरिया बन गया। इससे शहरी इलाकों के पास जमीन की कीमतें आसमान छूने लगीं, जबकि ग्रामीण इलाकों में किसानों को उनकी जमीन के लिए कौड़ियों का दाम दिया गया।”
भाकियू नेता सतीश चौहान इस मामले पर अपना आक्रोश प्रकट करते हुए कहते हैं, “भूमि अधिग्रहण विधेयक में ऐसा कुछ नहीं है जो किसानों को इस प्रक्रिया से बचा सके। स्थानीय भू-माफिया, कम कीमत पर या बिना सहमति के किसानों की जमीन हड़प लेता है। इसमें राजनीतिक दखलंदाजी भी शामिल होती है। अधिग्रहण के दौरान दलितों और आदिवासियों को सबसे अधिक धोखे का सामना करना पड़ता है। उनकी जमीनें जबरन छीन ली जाती हैं और मोदी सरकार उन्हें कौड़ियों के दाम पर पूंजीपतियों को बेच देती है। यह एक छलावा है।”
सतीश चौहान ने भारत की भौगोलिक और आर्थिक विविधता को ध्यान में रखते हुए स्थानीय संस्कृति और इतिहास के संरक्षण पर जोर दिया। उन्होंने कहा, “भारतमाला परियोजना के तहत दलितों की जमीन का अधिग्रहण उनकी आजीविका पर सीधा हमला है। जिन लोगों की पीढ़ियां इसी जमीन पर पली-बढ़ी हैं, उनके सपनों को एक झटके में कुचला जा रहा है। यह सरकार की वह योजना है, जिसका असली मकसद गरीबों की जमीन छीनकर उसे पूंजीपतियों के हवाले करना है।”
राम अवध सिंह कहते हैं, “भाजपा सरकार का यह खेल कोई नया नहीं है। यह सरकार सत्ता में बने रहने के लिए कारपोरेट घरानों को उपकृत करती आ रही है। जो जमीन किसान की जान है, वही अब उद्योगपतियों का हथियार बन गई है। दलितों और आदिवासियों की बर्बादी इस विकास की कीमत बन चुकी है।”
यह सवाल हर उस किसान, दलित और भूमिहीन मजदूर के दिल में उठ रहा है, जिनकी जिंदगियां इस भूमि अधिग्रहण के जाल में फंस चुकी हैं। क्या यह विकास वास्तव में भारत को मजबूत बनाएगा या गरीबों को उनके अधिकारों से वंचित करके सिर्फ अमीरों का खेल बनकर रह जाएगा? सरकार को यह समझना होगा कि भूमि अधिग्रहण के नाम पर अन्यायपूर्ण नीतियां और किसानों के साथ किया गया यह छलावा विकास की नींव नहीं बन सकता। क्या सरकार वंचित समुदायों की चीखें सुनेगी, या यह अन्याय यूं ही चलता रहेगा? (विजय विनीत बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं)
सौजन्य :जनचौक
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