विकास के पापा…दूसरों के तकनीकी ज्ञान के सहारे कब तक
अच्छी बात है कि भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्पेन के समानपदधारी के साथ संयुक्त रूप से बड़ोदरा (गुजरात) में देश की पहली निजी क्षेत्र की (टाटा के साथ) मिलिट्री ट्रांसपोर्ट वायुयान बनाने की “फैसिलिटी” का उद्घाटन किया. हर बार की तरह मोदी ने इस घटना को भी देश के विकास में लंबी छलांग बताया. यह अलग बात है कि साढ़े दस साल के छलांगों को मिलाकर देखा जाये तो भारत ने बजरंगबली की मानिंद समुद्र पार कर लंका में हीं नहीं अटलांटिक पार कर अमेरिका में प्रवेश कर लिया होगा.
बहरहाल इसके दो दिन पहले एनविडिया के सीईओ ने एक भारतीय उद्योग घराने के साथ सहयोग की घोषणा के साथ कहा “भारत एक “एआई जायंट” (महाकाय) बनने जा रहा है. सुनकर “जुमलों की आदत” वाली जनता को लगा कि बस अब चीन को हीं नहीं अमेरिका को पछाड़ कर भारत कहेगा “बोलो दुनियावालों, कितना सेमीकंडक्टर चिप चाहिए”. यह अलग बात है कि अभी कुछ सप्ताह पहले ही भारत के अधिकारी दुनिया की प्रमुख और ताइवान-स्थिति सबसे बड़ी कम्पनी ताइवान सेमीकंडक्टर मैन्युफैक्चरिंग कम्पनी (टीएसएमसी) को भारत में फैक्ट्री लगाने के लिए एडी-चोटी का जोर लगाया लेकिन उसने हिकारत से कहा कि भारत में न तो पानी-बिजली का भरोसा है ना हीं उस स्तर के स्किल्ड इंजिनियर्स उपलब्ध हैं.
जिस ताइवानी कम्पनी ने गुजरात में टाटा के साथ समझौता किया भी है वह बहुत छोटी है और उसने एक पैसा भी अपनी ओर से लगाने से मना कर दिया है. इस पर भी ७५-८० प्रतिशत सब्सिडी केंद्र और राज्य की सरकारें देंगीं और बाकी टाटा का होगा. यह कंपनी भी कोई तकनीकी ज्ञान नहीं ट्रान्सफर करेगी और केवल फाउंड्री में काम होगा. डिजाइनिंग, जो सेमी-कंडक्टर की दुनिया में सबसे अहम् है, ताइवान से होगी.
क्या भारत वास्तव में और सही मायनों में ट्रांसपोर्ट प्लेन बनाने की क्षमता पा चुका है या पा जाएगा? सच्चाई वह नहीं है जो बताई गयी है. और यह इसलिए कि भारत तकनीकी क्षेत्र में अभी लम्बी छलांग तो दूर, विदेशी कंपनियों के कहने पर अपनी जगह पर खड़े-खड़े कूद रहा है.
ट्रांसपोर्ट जहाज बनाने की हकीकत समझें. स्पेन-टाटा ट्रांसपोर्ट वायुयान “निर्माण” इकाई का नाम है “फाइनल असेंबली लाइन” (ऍफ़एएल). नाम हीं बताता है कि यह मूलतः यह पुर्जे जोड़ने वाली इकाय होगी याने पुर्जे बाहर से आयेंगें और हुछ पार्ट्स हैदराबाद में और कुछ गुजरात के बड़ोदरा में जोड़े जायेंगें. शुरू के कुछ साल तक ये सभी पुर्जे भी स्पेन से हीं आयेंगें और फिर इंजन और पुर्जों को जोड़ा जाएगा. फिर इंजन को छोड़ कर, धीरे-धीरे 48 प्रतिशत पुर्जे भारत में बनेंगें जिसे कालांतर में 75 प्रतिशत तक किया जाएगा. याने हम पूरा जहाज खरीदने की जगह “कुछ बनाने की अहसास” भर करेंगें जिसे हमारे प्रधानमंत्री “लम्बी छलांग” बताते हैं.
उधर दुनिया की सबसे बड़ी “टेक” कंपनी एनविडिया ने भारत को भावी “जायंट” बता कर शुद्ध रूप से बेवकूफ बनाया है.
दरअसल उसके कहने का आशय था कि भारत आने वाले दिनों में सबसे बड़ा कंस्यूमर होगा–उसके बनाये जीपीयू (ग्राफ़िक्स प्रोसेसिंग यूनिट) का. इस कंपनी के नए ब्लैकवेल जीपीयू टेक्नोलॉजी पर आधारित चिप को भारत दवा से लेकर दमकल और कृषि से लेकर कपड़ा उद्योग तक उत्पादन, निर्माण हीं नहीं मार्केटिंग में भी इस्तेमाल करेगा. ये विदेशी कंपनियां भारत में अपने डिजाइन नहीं बनाती हैं बल्कि दरअसल ये भारत के इंजिनियर्स को केवल वेलिडेशन या प्रयोग के स्तर पर सत्यापन के लिए अपेक्षाकृत कम पगार पर रखती हैं. भारत में चिप की मौलिक डिजाइन के लिए कोई भी कंपनी आगे नहीं आयी है.
ट्रांसपोर्ट वायुयान बनाना कोई राफेल जैसे युद्धक विमान का निर्माण नहीं है लेकिन इसके लिए भी भारत में सिर्फ असेंबली लाइन उत्पादन किया जाएगा.
आखिर हम इतनी बुरी स्थिति में क्यों हैं कि विदेशी कंपनियां हमें “चारे” की तरह यूज कर रही हैं. इसका मूल कारण है मोदी की हीं नहीं पूर्व की सरकारों का भी मौलिक शोध को हाशिये पर रखते हुए पर न्यूनतम खर्च करना. मोदी जैसे नेताओं की समझ कुछ अलग किस्म की होती है. वे जानते हैं कि जब किसान सम्मान निधि में हर चार माह में 2000 रुपये दे कर (मात्र साढ़े 16 रुपये प्रतिदिन) किसानों का “सम्मान” किया जा सकता है और राजनीति चमकी जा सकती है तो शोध पर खर्च क्यों?
चीन की जीडीपी भारत से सवा पांच गुना ज्यादा है और भारत शोध पर जहां मात्र 0.6 प्रतिशत अपनी जीडीपी का खर्च करता है वहीँ चीन 2.5 प्रतिशत. याने संख्यात्मक रूप से भारत के मुकाबले 23 गुना ज्यादा. भारत अपने यहाँ शोध बजट को जो शर्मनाक रूप से कम है, बढ़ा कर चिप डिजाइन और मशीन-लर्निंग में भारतीय टेलेंट को सिखाये और लगाये. हम किसी विदेशी कंपनी द्वारा “एआई जायंट” बताने से खुश न हों. करीब दो साल पहले प्रधानमंत्री को लगा कि “बदलता भारत” “उगता भारत” और “स्वर्णिम भारत” सरीखे जुमले तब तक मुकम्मल नहीं होंगें जब तक उनमें “सेमीकंडक्टर” न जोड़ा जाये. लिहाज़ा एक “इंडिया सेमीकंडक्टर मिशन” शुरू किया गया जो इस उत्पाद को लेकर इको-सिस्टम (यह भी एक कॉर्पोरेट जुमला) है.
सौजन्य: सत्य हिन्दी
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