2024 ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत ‘गंभीर’ सूची में, लेकिन पिछले वर्ष की तरह कोई हो-हल्ला नहीं!
पिछले वर्ष ग्लोबल हंगर इंडेक्स (वैश्विक भूख सूचकांक- जीएचआई) के आंकड़ों पर देश, विपक्ष और मीडिया ने संज्ञान लिया था, जिसके चलते सरकार की ओर से खंडन और अपनी ओर से जवाबी आंकड़े देकर वैश्विक संस्था का मुंह बंद करते दिखने की नाकाम कोशिश की गई थी।
रविंद्र पटवाल
इस बार ऐसा कुछ नहीं हुआ, क्योंकि देश हरियाणा और जम्मू-कश्मीर के चुनाव परिणामों में इस कदर घिरा रहा, इसलिए इस बार सरकार की एजेंसियों को भी इस रिपोर्ट पर भारत की बदनामी से लगता है कोई फर्क नहीं पड़ा है।
शायद सरकार ने अपनी समझ से यही मानकर इस बार चुप्पी साध ली थी कि जो चीज भारत के मध्य वर्ग और आम लोगों तक पहुंचे ही नहीं, भला उसके बारे में टिप्पणी कर क्यों ओखली में सिर दिया जाये। आखिर वैसे भी दुनिया को तो पहले से ही पता है कि हमारी पोजीशन गरीबी, भुखमरी और रोजगार में क्या है।
लेकिन देश के भीतर तो अभी भी एक तबके के बीच में जो प्रचार माध्यमों से जो डंका बज रहा है, उसे छेड़ने से क्या फायदा।
2024 ग्लोबल हंगर इंडेक्स की रिपोर्ट के अनुसार, 127 देशों की सूची में भारत को 105वें स्थान पर दिखाया गया है। जर्मनी के ‘वेल्थ हंगर लाइफ’ (Welthungerhilfe) नामक एक प्रमुख निजी सहायता संगठन और कंसर्न वर्ल्डवाइड के सहयोग से हर साल अक्टूबर माह में यह सूची तैयार की जाती है।
जिसमें विकसित देशों को छोड़कर विकासशील और मिडिल इनकम ग्रुप के देशों से बच्चों के पोषण, बाल मृत्यु दर के आंकड़े के आधार पर इसे तैयार किया जाता है, और लगातार ट्रैक करने की कोशिश की जाती है कि दुनिया में किन देशों को अपने यहां किसी विशेष क्षेत्र में सुधार लाने की आवश्यकता है।
भारत का हाल इस मामले में काफी शोचनीय बना हुआ है, जबकि पड़ोसी देशों में श्रीलंका 56वें और नेपाल 68वें और म्यांमार 74वें पायदान पर छलांग लगाकर भारत से काफी आगे निकल चुके हैं। हालांकि इनमें चीन शेष विश्व में शीर्ष स्थान पर होने के कारण हमारी पहुंच से बाहर है।
लेकिन इन आंकड़ों को यदि देश का बुद्धिजीवी वर्ग विचार करे तो उसे शायद गोदी मीडिया की विश्वगुरु की झूठी खबरों का कुछ अंदाजा हो, और देश को सही ट्रैक पर लाने की कोशिश हो सके।
मजे की बात तो यह है कि 84वें स्थान पर बांग्लादेश काबिज है, और हमारे देश में अभी भी यही नैरेटिव सफलतापूर्वक चलाया जा रहा है कि वहां से घुसपैठिये देश में आकर बस रहे हैं। ये बेहद शर्म की बात होनी चाहिए कि पिछले एक दशक से देश को ऐसे ही झूठे जुमलों के बल पर चलाया जा रहा है, और विपक्ष भी हाथ पर हाथ धरे सिर्फ अपनी बारी के इंतजार में है।
भारत में अंधराष्ट्रवादियों के लिए संतोष करने के लिए एक खबर बस यह है कि पाकिस्तान अभी भी भारत से इस मामले में पीछे है, और उसे 109वीं रैंकिंग दी गई है, जबकि अफगानिस्तान 116वें स्थान पर है। ये दोनों देश अपने बिगड़ते राजनीतिक-आर्थिक हालात के कारण बर्बादी की कगार पर हैं।
इसलिए यदि इनके साथ तुलना कर संतोष हासिल करने का आनंद लेना है तो फिर कोई बात नहीं। लेकिन हालात तो नेपाल, श्रीलंका, म्यांमार या बांग्लादेश के भी ठीक नहीं हैं।
लेकिन उनकी रैंकिंग में उत्तरोत्तर तेज सुधार हुआ है, जबकि भारत में बेहद धीमी गति से जो प्रयास चल रहे थे, उनमें कोविड-19 महामारी के बाद स्थिति बद से बदतर हुई है, और हमारे पास सटीक आंकड़ों की भारी कमी है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि 2024 के वैश्विक भूख सूचकांक में भारत 27.3 स्कोर के साथ भूख के मामले में गंभीर स्तर पर, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के साथ ‘सीरियस’ श्रेणी में बना हुआ है।
कुपोषण के मामले में भारत का स्कोर 13.7% है, अर्थात इतनी संख्या में भारत की आबादी कुपोषण का शिकार है। 5 वर्ष के कम उम्र के बच्चों में, अविकसित (stunted growth) बच्चों का औसत 35.5% के उच्च स्तर पर बना हुआ है, जबकि 18.7% बच्चे दुर्बलता का शिकार हैं। शिशु मृत्यु दर के मामले में भारत का आंकड़ा 2.9% आंका गया है।
जीएचआई ट्रैकर में इन चार (कुपोषण 1/3 , stunted growth 1/6, बच्चों में दुर्बलता 1/6 और शिशु मृत्यु दर 1/3 के आधार पर स्कोर तैयार किया जाता है।
वर्ष 2000 से उपलब्ध आंकड़ों पर निगाह डालें तो चीन जहां 2000 में 13.4 स्कोर के साथ जीएचआई के (निम्न 9.9 से कम, सामान्य 10-19.9, गंभीर 20-34.9, चिंताजनक 35-49.9, और बेहद चिंताजनक 50 या उससे ऊपर की श्रेणी में सामान्य श्रेणी के साथ 13.4 स्कोर पर था वह 2008 में 7.2 स्कोर) साथ हंगर इंडेक्स में निम्न स्तर पर पहले ही जा चुका था।
उसके बाद तो यह स्कोर 5 से भी नीचे चले जाने की वजह से उसके जैसे 22 देशों की रैंकिंग भी एक साथ तैयार की जाती है।
जबकि भारत की स्थिति पर नजर डालें तो वर्ष 2000 में टोटल जीएचआई स्कोर 38.4 और 2008 में 35.2 होने के कारण चिंताजनक श्रेणी में रखा गया था। लेकिन 2016 में 29.3 स्कोर के साथ अब इसे गंभीर श्रेणी में डाल दिया गया, और 2024 में भी 27.3 स्कोर के साथ पिछले कई वर्षों से स्थिति में कोई गुणात्मक सुधार देखने को नहीं मिला है।
लेकिन वहीं यदि नेपाल और म्यांमार के आंकड़ों पर निगाह डालें तो पता चलता है कि वर्ष 2000 में नेपाल 37.1 और म्यांमार 40.2 स्कोर के साथ भारत के ही समान स्थिति से गुजर रहे थे। आज नेपाल 14.7 और म्यांमार 15.7 जीएचआई स्कोर के साथ सामान्य (मॉडरेट) पोजीशन पर जा चुके हैं।
भारत में यह हाल तब है जब नई आर्थिक नीति के दुष्परिणामों से निपटने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में यूपीए सरकार ने मनरेगा के तहत 100 दिन रोजगार की गारंटी की व्यवस्था की थी।
इसके अलावा देश में शिशु जन्म के समय जच्चा-बच्चा की बेहतर परिवरिश के लिए आंगनबाड़ी योजना के तहत तमाम सरकारी कार्यक्रम और टीकाकरण चलाए जा रहे हैं।
सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में मिड डे मील के माध्यम से दोपहर के भोजन की योजना चलाई जा रही है। इन सबका वास्तविक धरातल पर कितना कार्यान्वयन किया जा रहा है, और कैसे दाल के नाम पर हल्दी डालकर गर्म पानी के साथ भात परोसा जा रहा है, की रिपोर्टें छन-छनकर आ रही हैं, लेकिन इस बारे में सरकार की ओर से कोई प्रतिक्रिया देखने को नहीं मिलती।
उल्टा, कई मामलों में देखने को मिला है कि ऐसी रिपोर्ट प्रकाशित करने वाले अख़बारों और रिपोर्टरों के ऊपर सरकार की पुलिसिया दमन को तेज कर दिया जाता है।
जिसका परिणाम ऐसी रिपोर्टों के माध्यम से दूरदराज के इलाकों में लाखों बच्चों के कुपोषण और भूख को बदस्तूर रख सरकारी अमला माले-मुफ्त, दिले बेरहम की भूमिका अपनाने लगा है।
हाल के वर्षों में देखने को मिला है कि ऐन चुनाव के वक्त वोट की खातिर, विशेषकर महिला मतदाताओं को लाडली बहन योजना इत्यादि के नाम पर नकदी बांटने की वजह से कई राज्यों में विभिन्न जनकल्याणकारी योजनाओं के लिए कोई फंड नहीं बचा है।
‘आगे दौड़-पीछे छोड़’, की इस अदूरदर्शी नीति पर चलते हुए राज्य सरकारों और केंद्र की मोदी सरकार, दोनों ने गरीबी और भूख को कम करने के बजाय कहीं ज्यादा बढ़ा दिया है।
जिसके दुष्परिणाम आने वाले वर्षों में देश को तो भुगतने ही पड़ेंगे, साथ ही वर्ल्ड हंगर इंडेक्स के आंकड़ों के माध्यम से सारी दुनिया देखेगी कि हम वास्तव में किस मामले में विश्वगुरु बन चुके हैं?
सौजन्य: जनचौक
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