जेलों में जातिवाद! दलित ‘कैदियों’ ने सुनाई खौफनाक दास्तान, कहा- एक साल जैसा लगता है एक दिन
Uttar Pradesh News: सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद यूपी की जेलों में रहे दलितों ने अपना अनुभव साझा किया है। इससे पता चलता है कि किस तरह जेलों में कैदियों के साथ जाति के आधार पर अमानवीय व्यवहार होता था। कोर्ट के फैसले के बाद न्याय की उम्मीद जगी है।
सुप्रीम कोर्ट ने जेलों में जाति आधारित जेल मैनुअल को खत्म कर दिया है।
Uttar Pradesh News: भारत की जेलों में जातिवाद का जहर भरा पड़ा है। यहां कैदियों के साथ अलग-अलग व्यवहार होता है और इस व्यवहार का आधार जाति होती है। जेल में सबसे पहले कैदी की जाति पूछी जाती है। दौलत कुंवर कई बार जेल गए लेकिन हर बार उनके साथ एक जैसा ही व्यवहार हुआ। टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक दौलत कुंवर ने बताया कि जेल में कदम रखते ही जातिगत भेदभाव शुरू हो जाता है।
ये सिर्फ दौलत कुंवर का अनुभव नहीं है। यूपी और उत्तराखंड की जेलों में समय बिताने वाले विचाराधीन कैदियों सहित अन्य कैदियों ने भी ऐसी बात कही है। समाज के निचले तबके से ताल्लुक रखने वाले कैदियों को उम्मीद है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद बदलाव आएगा। शीर्ष कोर्ट ने तीन अक्टूबर को ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए औपनिवेशिक शासन वाले दौर के जेल मैनुअल को खत्म कर दिया है, जो जेलों में जाति आधारित कार्य विभाजन को मजबूत करता है। ये मैनुअल खास तौर पर हाशिए के समाज को टारगेट करता है।
दौलत कुंवर ने कहा कि अधिकारी सबसे पहले कैदी की जाति पूछते हैं और उसकी पर्सनल डिटेल्स के साथ जाति लिख दी जाती है। फिर इस बात की जानकारी सभी को दे दी जाती है और इसी आधार पर कार्य निर्धारित किए जाते हैं। अगर कोई काम करने से मना करता है तो उसे दूसरे कैदी पीटते हैं और ये सब जेल प्रशासन के निर्देशों पर होता है।
’67 दिन 67 साल जैसा लगा’
हापुड़ के रहने वाले 43 वर्षीय इंदर पाल ने कहा कि मैं 67 दिनों के लिए जेल गया था, लेकिन यह मुझे 67 साल जैसे लगे। इंदर पाल ने कहा कि हम सब अपराधी थे, लेकिन कुछ हमसे ‘श्रेष्ठ’ थे। इंदरपाल ने कहा कि मैंने दो हफ्तों तक सफाई की, फिर जब बीमार पड़ गया और काम नहीं कर सकता था, तो मुझे टॉयलेट साफ करने को कहा गया और वह भी बिना ब्रश के। मुझसे कहा गया कि मैं कपड़े का इस्तेमाल करूं या फिर अपने हाथों से साफ करूं।
23 साल के मोनू कश्यप ने कहा कि जेलों में भेदभाव सिर्फ काम के लेवल पर नहीं है। मोनू कश्यप को अवैध रूप से हथियार रखने के एवज में सात दिनों की सजा हुई थी। मोनू ने कहा कि जेलों में निचली जाति के लोगों के लिए खाने की मात्रा तय थी, लेकिन ऊंची जाति के लोग जितना चाहे उतना खा सकते थे। शिकायत करने पर मारपीट होती थी। 38 वर्षीय राम बहादुर सिंह ने कहा कि यूपी की जेलों में दलित कैदियों को खा लेने के लिए अलग से लाइन लगाने को कहा जाता था। ऐसा लगता था जैसे कि हमें जानवरों की तरह बचा खुचा खाना खिलाया जाता था।
यूपी डीजीपी ने किया कोर्ट के फैसले का स्वागत
उत्तर प्रदेश के डीजीपी प्रशांत कुमार ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला लंबे समय से प्रतीक्षित न्याय है। इससे जेलों में श्रम की गरिमा को बहाल करने में मदद मिलेगी। सदियों से जाति और व्यवसाय को गलत तरीके से जोड़ा गया है। इससे एक पूरे समुदाय को अधीनता और अपमान का जीवन जीने के लिए बाध्य होना पड़ा। यूपी डीजीपी ने कहा कि अनुच्छेद 21 आधारित इस फैसले के साथ न्यायालय ने जेलों में जाति आधारित श्रम की जंजीरों को समाप्त करने का आह्वान किया है। इससे समानता को बढ़ावा देने वाले सुधारों को बढ़ावा मिलेगा।
कोर्ट के फैसले की तारीफ दलित सामाजिक कार्यकर्ता भी कर रहे हैं। दलित एक्टिविस्ट और मेरठ कॉलेज में प्रोफेसर सतीश प्रकाश ने कहा कि जेल मैनुअल में बदलाव सिर्फ एक शुरुआत है। असली मुद्दा है लोगों की सोच। जाति आधारित समाज में जेल के अंदर और बाहर दोनों जगह वर्चस्व कायम रहता है। इसलिए सोशल इंजीनियरिंग जरूरी है। दिल्ली-एनसीआर में रहने वाले दलित सामाजिक कार्यकर्ता और वकील किशोर कुमार ने कहा कि जेल वार्डन के लिए दलित शब्द का मतलब है मैला ढोना, झाड़ू लगाना और सफाई का काम करना।
हालांकि कुछ जेल अधिकारियों ने कहा कि उनकी जेलों में जाति आधारित पूर्वाग्रह नहीं है। उत्तराखंड में डीआईजी (जेल) दधिराम मौर्य ने कहा कि हमारी जेलों में जाति आधारित कोई काम नहीं होता है। पिछले नवंबर में नए जेल मैनुअल के साथ इसे बंद कर दिया गया था।
सौजन्य:न्यूज़ 24
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