हरियाणा चुनाव की एक कहानी: जिसका कुआं, उसका पानी
अमित बागड़ी ने बचपन में एक बार अनजाने में ब्राह्मणों के कुएं से पानी पी लिया था. उन्हें तुरंत उस कुएं से दूर रहने की हिदायत दी गई. तब से वे कभी उस कुएं पर नहीं गए.
अंकित राज | दीपक गोस्वामी
भिवानी: बापोड़ा गांव में पेड़ों के झुरमुट के बीच तीन कुएं हैं- एक ब्राह्मणों का, दूसरा दलित और तीसरा मुसलमानों का. सबसे साफ, व्यवस्थित और सुचारू कुआं ब्राह्मणों का है. दलितों का कुआं जर्जर है, अरसे से मरम्मत नहीं हुई है, लेकिन उसका पानी साफ है. मुसलमानों के कुएं की हालत सबसे ज्यादा खस्ता है, पानी गंदगी से पटा हुआ है.
ये कुएं हरियाणा के भिवानी जिले के इस गांव की त्रिकोणीय सामाजिक व्यवस्था को बयान कर देते हैं.
‘हम बामन हैं. यह हमारा कुआं है. पहले हमारा एक और कुआं हुआ करता था जो कई साल पहले बंद हो गया,’ ब्राह्मणों के कुएं पर अपने जेठ की पुत्रवधू मुनेश के साथ स्टील के घड़े में पानी भर रही ओमपति ने बताया.
मटका साफ करतीं मुनेश के पास में खड़ी ओमपति
ओमपति ने आते-जाते मुसलमानों का कुआं तो देखा है लेकिन उन्हें नहीं पता कि गांव में मुसलमान कहां रहते हैं. उन्हें अनुसूचित जाति के लोगों की बस्ती का जरूर थोड़ा अंदाजा है. वह हाथ से इशारा करके बताती हैं कि ‘हरिजनों की बस्ती उस ओर है और उनका कुआं वो है.’ शमा नामक मुस्लिम महिला बताती हैं, ‘कुएं से कभी-कभी ही पानी लाते हैं क्योंकि वह अब गंदा हो गया है. नल से पानी की सप्लाई 4-5 दिन में एक बार होती है, लेकिन यह पानी पीने के लिए नहीं है. पीने के लिए थोड़ी दूर पर लगे हैंडपंप से पानी लाना पड़ता है.’
दलित बस्ती में अपने भेड़ों के बीच खुली नाली के पास खाट पर बैठे पतेश और करण सिंह बताते हैं, ‘नल की लाइन जगह-जगह फूटी है, जिससे पानी में गंदगी मिल जाती है. वह नहाने-धोने लायक होता है, लेकिन कभी-कभी पीना भी पड़ता है.’ अगर दलितों के कुएं में पानी न हो तो क्या दलित ब्राह्मणों के कुएं से पानी भर सकते हैं? दोनों ने सिर हिला दिया. ‘हम ब्राह्मणों और ठाकुरों के कुएं से पानी नहीं भर सकते हैं’ वाल्मीकि समुदाय के पतेश और करण ने बताया कि गांव में रैदास और धानक के करीब 300 परिवार हैं, और इतने ही वाल्मीकि.
बापोड़ा के सरपंच सुग्रीव सिंह
खुद को भाजपा से जुड़ा बताने वाले गांव के सरपंच सुग्रीव सिंह से जब पूछा गया कि क्या ब्राह्मणों के कुएं से केवल ब्राह्मण ही पानी सकते हैं, उन्होंने कहा, ‘अलग-अलग कुएं हैं, ब्राह्मणों का अलग और निचली जातियों का अलग.’ गांव के अन्य हिस्सों में ठाकुरों और ओबीसी के कुएं भी हैं, लेकिन इस्तेमाल में नहीं आते. ओबीसी कुआं जर्जर हालत में है, जबकि ठाकुरों का कुआं पानी से लबालब है लेकिन गंदगी से पटा हुआ है.
पिछड़े वर्ग का कुआं और ठाकुरों का कुआं
ठाकुरों के कुएं की बदहाली की वजह उनकी संपन्नता है. वह पानी के लिए कुएं पर निर्भर नहीं हैं क्योंकि घर में वाटर प्यूरीफायर लगा रखे हैं. लेकिन, ज़ाहिर है कि कुछ समय पहले तक ठाकुर भी पानी के इस जातिगत बंटवारे का हिस्सा थे.
जातिगत तिरस्कार के घाव
ब्राह्मणों के कुएं से प्रजापति, खाती, लोहार आदि ओबीसी जातियों के लोग पानी भर सकते हैं, लेकिन दलित और मुसलमानों को इसकी इजाजत नहीं है. इसकी पुष्टि पिछड़ा वर्ग के सीताराम प्रजापति ने भी की. उन्होंने अपने घर में एक ‘बरमा’ (हैंडपंप) लगा रखा हैं, जिसके पानी का इस्तेमाल नहाने, बर्तन-कपड़े आदि धोने के लिए किया जाता है, जबकि पीने के लिए वे ब्राह्मणों के कुएं से पानी लाते हैं. पतेश और करण सिंह बताते हैं, ‘हमारे घर नई बहू आने पर हम उसके साथ जाकर उसे समझाते हैं कि किस कुएं से पानी लेना है.’ जातिगत तिरस्कार के ये घाव बरसों तक साथ चलते हैं.
वाल्मीकि समुदाय के 37 वर्षीय युवक अमित बागड़ी ने बचपन में एक बार अनजाने में ब्राह्मणों के कुएं से पानी पी लिया था. बागड़ी बताते हैं, ‘ब्राह्मणों ने तुरंत मना कर दिया और शिकायत परिजनों से की, जिसके बाद मुझे उस कुएं से दूर रहने की हिदायत दी गई. तब से कभी उस कुएं पर नहीं गया.’
हैंडपंप से पानी लेकर लौटती गांव की महिला.
बापोड़ा राजस्थान का सीमावर्ती गांव है, जहां जल संकट का इतिहास रहा है. गांव के इकलौते गुर्जर परिवार के मुखिया शिव कुमार, जो पेशे से शिक्षक हैं, बताते हैं ‘यहां एक बहुत बड़ी पानी की टंकी है जो कभी 68 गांवों में पानी की सप्लाई करती थी, आज इसी गांव की आपूर्ति नहीं हो पा रही है.’ गांव में जगह-जगह किश्तों पर वॉटर प्यूरीफायर लगवाने संबंधी इश्तिहार और सिर पर घड़ा रखकर पानी ढोती स्त्रियां नजर आती हैं.
गांव की दीवारों पर वाटर प्यूरीफायर के विज्ञापन
ठाकुर का कुआं
इस स्थिति को देखकर प्रख्यात साहित्यकार ओमप्रकाश वाल्मीकि की पंक्तियां याद आती हैं.
कुआं ठाकुर का
पानी ठाकुर का
खेत-खलिहान ठाकुर के
गली-मुहल्ले ठाकुर के
फिर अपना क्या?
इस कविता का हर्फ-दर-हर्फ गांव में साकार रूप लिए मौजूद मिलता है.
गौरतलब है कि तोशाम विधानसभा क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले बापोड़ा गांव का समृद्धशाली इतिहास रहा है. इसे ‘वीर सेनानी ग्राम’ की ख्याति प्राप्त है. यहां से बड़ी संख्या में लोग भारतीय सेना में जाते रहे हैं. देश के पूर्व सेनाध्यक्ष और भाजपा सांसद रहे मेजर जनरल (रि.) वीके सिंह इसी गांव के रहने वाले हैं. कहा जाता है कि स्वतंत्रता पूर्व गांव के लोग ब्रिटिश सेना और उससे पहले मुगल सेना में भी जाते थे.
सेना से जुड़े गांव के इस समृद्धशाली इतिहास की गवाही देने के लिए जनरल वीके सिंह ने सांसद रहते हुए इसके प्रवेश द्वार पर 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में इस्तेमाल हुआ टैंक टी-55 स्थापित किया था. उनकी आकांक्षा रही होगी कि इस टैंक को देखकर आगंतुक गर्व का अनुभव करेंगे, लेकिन गांव के कुएं एक शर्मनाक तस्वीर पेश करते हैं.
बापोड़ा गांव का प्रवेश द्वार और टैंक टी-55.
बापोड़ा की फिजा में जातियों का कितना जोर है, इसे जनरल वीके सिंह की आत्मकथा ‘करेज एंड कन्विक्शन’ की इन पंक्तियों से समझा जा सकता है: ‘तंवर (तोमर) वंश में पैदा होने का मतलब था कि या तो आप सैनिक बनेंगे या किसान.’ पूर्व केंद्रीय मंत्री वीके सिंह ने यह भी लिखा था कि उनकी जाति भारत की 36 ‘शासक जातियों’ में से एक थी. बापोड़ा में आज भी दलितों और सवर्णों के बीच पूरी तरह सामाजिक सामंजस्य स्थापित नहीं हो सका है. शादी-ब्याह और अन्य आयोजनों में एक दूसरे के यहां खान-पान का व्यवहार तो दूर की बात है, दलित कथित ऊंची जाति के लोगों के यहां खाट तक पर बैठ तक नहीं सकते.
विशालकाय परशुराम और महाराणा प्रताप के बीच बौना लोकतंत्र
20,000 से अधिक आबादी वाला बापोड़ा गांव ठाकुर और ब्राह्मण बाहुल्य है. थोड़ी संख्या पिछड़ा वर्ग और दलित समुदाय की भी है. कुछ घर मुसलमानों के भी हैं. जाति की बसाहट के हिसाब से गांव तीन हिस्सों में बंटा है. सड़क के एक ओर ब्राह्मण रहते हैं, सामने की पट्टी और गांव के भीतरी मुख्य मार्ग पर ठाकुरों का बसेरा है. पिछड़े, दलित और मुसलमान गांव के अंदरूनी हिस्सों के कोनों में बसे हैं.
बाएं से- परशुराम और महाराणा प्रताप की मूर्ति.
ब्राह्मणों के इलाके में परशुराम की एक बहुत बड़ी प्रतिमा स्थापित है, जिसके एक हाथ में फरसा, दूसरे में धनुष और पीठ पर तीरों से भरा तरकश है. ठाकुरों ने भी अपने इलाके में एक पार्क का निर्माण किया है, जिसके बाहर घोड़े पर सवार महाराणा प्रताप की विशाल मूर्ति है. इसका अनावरण अभी बाकी है.
पिछड़े, दलित और मुसलमानों के गौरव से संबंधित कोई भी प्रतीक गांव में दिखाई नहीं देता. इस अनुपस्थिति को लेकर यह गांव चुनाव की ओर बढ़ रहा है.
सौजन्य: द वायर
नोट: यह समाचार मूल रूप से thewirehindi.com में प्रकाशित हुआ है और इसका उपयोग केवल गैर-लाभकारी/गैर-वाणिज्यिक उद्देश्यों के लिए किया गया है, विशेष रूप से मानवाधिकारों के लिए