पा. रंजीत की तंगलान : बहुजनों के संघर्ष का प्रभावी चित्रण
फिल्म में ब्लैक पैंथर (काला तेंदुआ) का प्रतीकात्मक इस्तेमाल अमरीका के ‘ब्लैक पेंथर’ आंदोलन की याद दिलाता है। इस आंदोलन ने भारत में दलित प्रतिरोध आंदोलन को प्रेरणा दी थी, विशेषकर ‘दलित पैंथर’ आंदोलन को। बता रहे हैं नीरज बुनकर
नीरज बुनकर
जब पा. रंजीत ने घोषणा की थी कि उनकी अगली फिल्म ‘तंगलान’ होगी तो उनके प्रशंसक और दर्शक रोमांचित हो उठे थे। विशेषकर तब जब यह पता चला कि फिल्म सोने की खदानों की दुनिया पर केंद्रित होगी। प्रशांत नील की फिल्मों ‘केजीएफ 1’ व ‘केजीएफ 2’ ने तमिलनाडू और कर्नाटक की सीमा पर स्थित कोलार गोल्ड फील्ड को चर्चा में ला दिया था। बहुत से लोग यह देखने के इच्छुक थे कि रंजीत इस विषय को कैसे उठाते हैं। ‘केजीएफ’ में रॉकी के चरित्र ने दर्शकों को अत्यधिक प्रभावित किया था। मगर ‘तंगलान’ (जिसका अर्थ होता है स्वर्णपुत्र) के निर्माता हमारे अपने आंबेडकरवादी पा. रंजीत के होने के कारण फिल्म से लोगों की अपेक्षाएं बहुत ज्यादा थीं और ऐसा होना सहज ही समझा जा सकता था।
‘तंगलान’ गत 15 अगस्त, 2024 को रिलीज़ हुई और मैंने नॉटिंहम, यू.के. के एक थियेटर में फिल्म का टिकट खरीदने में तनिक भी देरी नहीं की। जब मैं फिल्म देखने पहुंचा तो मैंने पाया कि थियेटर लोगों से खचाखच भरा हुआ था, जो इस बात का प्रमाण था कि फिल्मों के जरिए वैचारिक पड़ताल के रंजीत के अनूठे तरीके ने पूरी दुनिया में लोगों को उनकी फिल्मों का प्रशंसक बना दिया है। यह फिल्म तमिल में है, मगर मैंने कथानक की बारीकियों को समझने के लिए अंग्रेजी सबटाइटल्स का सहारा लिया।
हमेशा की तरह रंजीत ने इस बार भी अपने प्रशंसकों और दर्शकों को निराश नहीं किया है। अपनी ख्याति के अनुरूप उन्होंने एक ऐसी फिल्म बनाई है, जो दृश्यों के माध्यम से अपनी बात प्रभावी ढंग से कहती है और जिसकी विषयवस्तु में गहराई है। फिल्म की सिनेमेटोग्राफी इतनी शानदार है कि कई मौकों पर मैं रूपांकन में इतना खो गया कि सबटाइटल पढ़ना ही भूल गया और शायद यही ‘तंगलान’ की असली खासियत है। भाषा की सीमाओं को पार करते हुए यह फिल्म केवल दृश्यों के सहारे भावनाओं और कथानक को आप तक पहुंचाने में भलीभांति सक्षम है।
फिल्म केवल सोने की खदानों के इतिहास तक सीमित नहीं है। वह एक ऐसा नॅरेटिव बुनती है, जिसकी अब तक अनदेखी की जाती रही है। रंजीत की पड़ताल केवल खदानों तक सीमित नहीं है, बल्कि वह उन लोगों की बात भी करती है जो वहां रहते थे और कठिन परिस्थितियों में हाड़तोड़ मेहनत करते थे। इन बहुजन समुदायों के बारे में हम बहुत कम जानते हैं। ‘तंगलान’ के ज़रिए रंजीत उनके संघर्षों, उनकी लड़ने की क्षमता और कभी हार न मानने के उनके स्वभाव को सामने लाते हैं। कोलार की सोने की खदानों के इतिहास का रूमानीकरण आम है। लेकिन रंजीत की फिल्म इन खदानों के अतीत को एक नए और आवश्यक परिप्रेक्ष्य से देखती है।.
फिल्म के दृश्य, विशेषकर जिस ढंग से कोलार गोल्ड फील्ड्स को दिखाया गया है, अत्यंत प्रभावी हैं। फिल्म में क्लोज़अप शॉट्स का अत्यंत कुशल उपयोग पात्रों को उनकी व्यापकता में समझने में मदद करता है और दर्शक उनके साथ भावनात्मक रूप से जुड़कर गोते लगाने लगते हैं। मार-धाड़ वाले दृश्यों का फिल्मांकन इतनी सूक्ष्मता के साथ किया गया है कि हम स्क्रीन के पात्रों के साथ-साथ चलते हैं और जो कथा हमें सुनाई जा रही है, उससे स्वयं को अलग नहीं कर पाते। फिल्म का पार्श्व संगीत और उसकी सिनेमेटोग्राफी मानो एक ही स्वर में बात करते हैं। इससे फिल्म की प्रभावशीलता बढ़ती है और सिनेमा देखने के आपके अनुभव को समृद्ध करती है। यह फिल्म भारतीय सिनेमा में फिल्म निर्माण के सबसे उत्कृष्ट उदाहरणों में से एक है।
पा. रंजीत की ‘तंगलान’ भूमि, अस्मिता और दमन से जुड़े मुद्दों की अत्यंत प्रभावी पड़ताल करती है। ये तीनों ही मुद्दे बहुजनों के संघर्ष के केंद्रीय तत्व रहे हैं। अपनी पुरानी फिल्मों, विशेषकर ‘काला’ के अनुरूप, रंजीत ज़मीन को अपने नरेटिव के केंद्र में रखते हैं। ज़मीन, सत्ता और सामाजिक अन्याय – दोनों की प्रतीक है। ‘तंगलान’ में भूमि पर स्वामित्व और हाशियाकृत समुदायों का शोषण का सवाल केवल फिल्म की पृष्ठभूमि में नहीं है, यही फिल्म का फोकस है, उसका मूल तत्व है।
किस्सागोई का रंजीत का अपना विशिष्ट अंदाज़ है, जिसमें हाशियाकृत समुदायों के संघर्ष को सबसे आगे रखा जाता है। उनका यही अंदाज़ ‘तंगलान’ में भी देखा जा सकता है। यह तंगलान केवल ऐतिहासिक फिल्म नहीं है, बल्कि सदियों पुराने सत्ता के ढांचों की समालोचना है और शासक वर्गों द्वारा बहुजनों के प्रणालीगत शोषण का दस्तावेज है। यह फिल्म सत्ता, पहचान और गरिमा के लिए संघर्ष, जो बहुजन आंदोलन के केंद्र में हैं, के संबंध में महत्वपूर्ण प्रश्न उठाती है।
‘तंगलान’ फिल्म का एक दृश्य
फिल्म का नायक तंगलान बहुजनों के संघर्ष का प्रतीक है, समूर्त रूप है। एक महत्वपूर्ण दृश्य में वह कहता है– “हम सदियों से हमारे लोगों की गरिमा, गर्व और अधिकारों को फिर से हासिल करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।” एक अन्य दृश्य में वह कहता है– “जो जाति के आधार पर हमारे साथ भेदभाव करते हैं, उनके अधीन रहते हुए मर जाने से अच्छा है हालात को बदलने की कोशिश करते हुए मर जाना।” ये संवाद बहुजनों की अपनी पहचान को फिर से हासिल करने और यथास्थिति को चुनौती देने के संघर्ष की ओर इंगित करते हैं। अपनी विचारधारा को और स्पष्ट करने के लिए रंजीत कई रूपकों का इस्तेमाल करते हैं। उदाहरण के लिए फिल्म में ब्लैक पैंथर (काला तेंदुआ) का प्रतीकात्मक इस्तेमाल अमरीका के ‘ब्लैक पेंथर’ आंदोलन की याद दिलाता है। इस आंदोलन ने भारत में दलित प्रतिरोध आंदोलन को प्रेरणा दी थी, विशेषकर ‘दलित पैंथर’ आंदोलन को। अमरीका के आंदोलन से यह जुड़ाव हमें बताता है कि दमन के खिलाफ संघर्ष वैश्विक है।
फिल्म का एक दूसरा महत्वपूर्ण रूपक है अशोकन। यह पात्र सम्राट अशोक की याद दिलाता है। अशोकन को बुद्ध की एक मूर्ति मिलती है, जिसकी गर्दन उसके धड़ से अलग है। वह गर्दन को धड़ से जोड़ता है जो कि बौद्ध धर्म के पुनरूत्थान का प्रतीक है। समानता के सिद्धांत और ब्राह्मणवादी वर्चस्व के विरोध के कारण बौद्ध धर्म इतिहास में एक अहम् स्थान रखता है। अशोकन द्वारा बुद्ध की मूर्ति को ठीक करना फिल्म के उस व्यापक नॅरेटिव का हिस्सा है, जो खोई हुई विरासत को फिर से हासिल करने और वर्चस्वशाली समूहों द्वारा प्रचारित किए जा रहे विकृत इतिहास को चुनौती देने से जुड़ी है।
‘तंगलान’ ऊंची जातियों के दमनकारी भूस्वामियों के खिलाफ और उन भूमिहीन मज़दूरों के साथ खड़ी दिखती है, जो ज़मीन पर दिन-रात मेहनत करते हैं और उन्हें बदले में कुछ भी हासिल नहीं होता। फिल्म में दिखाया गया है कि ब्राह्मणवादी शक्तियां किस तरह धर्म को तोड़-मरोड़कर उसका इस्तेमाल अछूतों को दबाने और उनका शोषण करने के लिए करते रहे हैं। ब्राह्मणवादी अछूतों से उनके सामाजिक उत्थान के झूठे वायदे करते रहे और उन्हें अपने अधीन बनाए रखा।
फिल्म भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद की जटिल भूमिका पर भी नज़र डालती है। कई मौकों पर ऐसा लगा कि अंग्रेज़ अछूतों के संभावित साथी बन सकते हैं, मगर अंततः अंग्रेज़ों ने उच्च जातियों के हितों का संरक्षक बनना स्वीकार कर लिया और वे अपने लाभ के लिए हाशियाकृत समुदायों का इस्तेमाल और शोषण करने लगे। फिल्म अछूतों की हार न मानने की प्रवृत्ति का उत्सव मनाती है और यह बताती है कि दमन के बावजूद वे अपनी संस्कृति का संरक्षण करने में सफल रहे हैं।
रंजीत कोलार गोल्ड फील्ड्स को आंबेडकरवादी नज़रिए से देखते हैं। यह नज़रिया प्रभुत्वशाली नॅरेटिव को चुनौती देता है और हाशियाकृत समुदायों के अनुभवों से हमें परिचित करवाता है। साथ ही फिल्म के अंत में जिन अभिलेखों का हवाला दिया गया है, उनसे यह साफ है कि फिल्म इतिहास के यथार्थ से परे नहीं है और उसका नॅरेटिव ऐतिहासिक दृष्टि से सच्चा है।
कुल मिलाकर ‘तंगलान’ हाशियाकृत समुदायों के संघर्षों का प्रभावी रूपांकन है, जो कोलार स्थित सोने की खदानों के संदर्भ में भूमि, सत्ता और पहचान से जुड़े व्यापक मुद्दों पर प्रकाश डालती है। फिल्म अतीत में किए गए अन्याय की समालोचना करती है और यह आह्वान करती है कि सदियों से दमन के शिकार लोगों को उनकी गरिमा और अधिकार फिर से हासिल होने चाहिए।
(मूल अंग्रेजी से अनुवाद – अमरीश हरदेनिया, संपादन : राजन/नवल/अनिल)
सौजन्य : फ़ॉर्वर्ड प्रेस
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