भारत के स्वास्थ्य सेवा सुरक्षा सुधारों में आशा कार्यकर्ताओं, आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं और सफाई कर्मचारियों की अनदेखी की गई
सुप्रीम कोर्ट ने मेडिकल प्रोफ़ेशनल्स के ख़िलाफ़ हिंसा के मुद्दे को निपटाने के लिए एक नेशनल टास्क फोर्स का गठन किया है, ऐसे में आशा कार्यकर्ताओं, आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं और स्वास्थ्य सफाई कर्मचारियों के मामले का इसके दायरे से बाहर होना सभी के लिए समान स्वास्थ्य सेवा सुरक्षा के लिए सरकार की कथनी और करनी के अंतर को उजागर करता है।
20 अगस्त 2024 को सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश ने देश भर में डॉक्टरों और मेडिकल प्रोफ़ेशनल्स के लिए असुरक्षा के मुद्दे को उजागर किया था। 9 अगस्त को कोलकाता के आर.जी. कर मेडिकल कॉलेज अस्पताल में एक डॉक्टर के बलात्कार और हत्या पर स्वतः संज्ञान के मामले की सुनवाई के दौरान मेडिकल प्रोफ़ेशनल्स द्वारा उठाए जा रहे सुरक्षा से जुड़े मुद्दों पर सुप्रीम कोर्ट में चर्चा की जा रही थी। कोलकाता में बलात्कार व हत्या के बाद देश भर के डॉक्टरों द्वारा हड़ताल पर जाने के मद्देनज़र सुप्रीम कोर्ट ने स्वतः संज्ञान लिया। इस हड़ताल के बाद देश की स्वास्थ्य सेवाएं ठप हो गईं और इस मुद्दे की पोस्ट से सोशल मीडिया पर हड़कंप मच गया।
31 वर्षीय एक प्रशिक्षु डॉक्टर जिसका 9 अगस्त, 2024 को कोलकाता के आरजी कर मेडिकल कॉलेज एवं अस्पताल परिसर में एक सिविक वॉलंटियर द्वारा बेरहमी से बलात्कार किया गया और उसकी हत्या कर दी गई। यह देश के ऐसे जघन्य अपराधों में से एक है जहां हर दिन 86 या 87 बलात्कार का मामला दर्ज किया जाता है। (पूरा डिटेल यहां पढ़ा जा सकता है) इस युवा डॉक्टर पर रात की ड्यूटी के दौरान हमला किया गया था। अगली सुबह उसका शव मिला, जिसमें उसकी आंख, चेहरे, मुंह, गर्दन, हाथ-पैर और निजी अंगों पर गंभीर चोटें थीं। मृतक को आरोपी के हाथों जिस हिंसा और क्रूरता का सामना करना पड़ा उसने पूरे देश को झकझोर दिया और विरोध के साथ न्याय की व्यापक मांग की गई। इसके बाद, हज़ारों डॉक्टर और अन्य मेडिकल स्टाफ, मेडिकल प्रोफेशनल्स विशेषकर महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा की बढ़ती घटनाओं का विरोध करने और उनकी सुरक्षा के लिए कड़े क़ानूनों की मांग करने के लिए सड़कों पर उतर आए।
देशव्यापी आक्रोश के बाद सुप्रीम कोर्ट ने रविवार 18 अगस्त को कोलकाता बलात्कार व हत्या मामले का स्वत: संज्ञान लिया था और 20 अगस्त को और अगले दिन भारत के मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़, जस्टिस जेबी पारदीवाला और मनोज मिश्रा की पीठ ने मामले की सुनवाई की। सुप्रीम कोर्ट ने कथित तौर पर कहा था कि “हमने इस मामले को स्वत: संज्ञान लेने का फ़ैसला इसलिए किया है क्योंकि यह कोलकाता के एक अस्पताल में हुई किसी विशेष हत्या से जुड़ा मामला नहीं है। यह पूरे भारत में डॉक्टरों की सुरक्षा से संबंधित प्रणालीगत मुद्दे को उठाता है।”
20 अगस्त को जारी किए गए पहले आदेश में सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने मेडिकल प्रोफ़ेशनल्स की एक “नेशनल टास्क फोर्स” (एनटीएफ) के जल्दी गठन करने का निर्देश दिया जो तीन महीने के भीतर देश भर में मेडिकल प्रोफ़ेशनल्स की उनके कार्यस्थलों पर सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए अपनाए जाने वाले तौर-तरीक़ों पर सुझाव देगी। पीठ ने कहा कि महाराष्ट्र, केरल, तेलंगाना, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु आदि कई राज्यों ने डॉक्टरों के ख़िलाफ़ हिंसा से निपटने के लिए क़ानून बनाए हैं। हालांकि, ये क़ानून संस्थागत सुरक्षा मानकों की कमियों को दूर नहीं करते हैं। CJI ने सुनवाई के दौरान कहा, “इसलिए, हमें एक राष्ट्रीय सहमति विकसित करनी चाहिए। काम की सुरक्षित स्थिति बनाने के लिए एक राष्ट्रीय प्रोटोकॉल होना चाहिए। अगर महिलाएं काम की जगह पर नहीं जा सकतीं और सुरक्षित महसूस नहीं कर सकतीं, तो हम उन्हें समान अवसर से वंचित कर रहे हैं। हमें यह सुनिश्चित करने के लिए अभी कुछ करना होगा कि सुरक्षा की शर्तें लागू हों”।
यह ध्यान रखना ज़रूरी है कि उक्त नेशनल टास्क फोर्स में कुल दस सदस्य होंगे (नीचे डिटेल दिया गया है)। आदेश में यह कहा गया है कि एनटीएफ का नेतृत्व डायरेक्टर जनरल सर्विसेज (नौसेना) के एवीएसएम, वीएसएम प्राप्त सर्जन वाइस एडमिरल आरती सरीन करेंगी। टास्क फोर्स के अन्य सदस्य हैं हैदराबाद स्थित एशियन इंस्टीट्यूट ऑफ गैस्ट्रोएंटरोलॉजी एवं एआईजी हॉस्पिटल अध्यक्ष और प्रबंध निदेशक डॉ डी नागेश्वर रेड्डी, दिल्ली-एम्स के निदेशक डॉ एम श्रीनिवास, बेंगलुरु स्थित राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य और तंत्रिका विज्ञान संस्थान (निमहंस) की निदेशक डॉ प्रतिमा मूर्ति, एम्स जोधपुर के कार्यकारी निदेशक डॉ गोवर्धन दत्त पुरी, इंस्टीट्यूट ऑफ सर्जिकल गैस्ट्रोएंटरोलॉजी के अध्यक्ष डॉ सौमित्र रावत। इसके अलावा एनटीएफ में रोहतक स्थित पंडित बी डी शर्मा मेडिकल यूनिवर्सिटी की कुलपति, पूर्व डीन ऑफ एकेडमिक्स, एम्स दिल्ली के कार्डियो थोरेसिक सेंटर और कार्डियोलॉजी विभाग की प्रमुख, प्रोफ़ेसर अनीता सक्सेना, मुंबई स्थित ग्रांट मेडिकल कॉलेज और सर जेजे ग्रुप ऑफ हॉस्पिटल्स के डीन डॉ. पल्लवी सैपले और एम्स दिल्ली स्थित न्यूरोलॉजी विभाग की पूर्व प्रोफेसर डॉ. पद्मा श्रीवास्तव भी शामिल होंगी।
पीठ ने कहा कि कैबिनेट सचिव और केंद्र सरकार के गृह सचिव, स्वास्थ्य मंत्रालय के सचिव, राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग के अध्यक्ष और राष्ट्रीय परीक्षा बोर्ड के अध्यक्ष इस टास्क फोर्स के पदेन सदस्य होंगे।
पीठ ने यह भी निर्देश दिया है कि एनटीएफ दो सब-हेड के तहत एक कार्य योजना तैयार करे – मेडिकल प्रोफ़ेशनल्स के ख़िलाफ़ लिंग आधारित हिंसा सहित हिंसा को रोकने की योजना और मेडिकल प्रोफ़ेशनल्स के लिए सम्मानजनक और सुरक्षित कार्य स्थितियों के लिए लागू करने योग्य राष्ट्रीय प्रोटोकॉल प्रदान करने की योजना।
सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप और नेशनल टास्क फोर्स के गठन को कई लोगों ने मेडिकल प्रोफ़ेशनल्स की सुरक्षा सुनिश्चित करने के साथ-साथ मेडिकल स्टाफ के खिलाफ हिंसा करने की स्थिति में सज़ा से छुटकारा और अराजकता के माहौल को बदलने की दिशा में एक अहम क़दम के रूप में सराहा है।
हालांकि यह निश्चित रूप से सही दिशा में एक क़दम है लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस तरह के एक अहम क़दम ने अनौपचारिक क्षेत्र से आने वाले हेल्थ केयर प्रोफ़ेशनल्स के एक बड़े हिस्से को बाहर कर दिया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) द्वारा हेल्थ वर्कर्स की व्यापक परिभाषा के बावजूद ऐसा लगता है कि शहरी और ग्रामीण भारत में महिला हेल्थ वर्कर्स का यह विशाल नेटवर्क बिल्कुल भी शामिल नहीं किया गया है, खासकर जब उनकी कार्य स्थितियां भी व्यवस्थित नहीं हैं और उनके लिए समाधान ढूंढना आसान नहीं है।
आदेश में स्पष्ट होता है कि इस आदेश में मेडिकल प्रोफ़ेशन में केवल इंटर्न, रेजिडेंट, सीनियर रेजिडेंट, डॉक्टर, नर्स और सभी मेडिकल प्रोफ़शनल्स की ओर संकेत दिया जा रहा है।
इससे यह सवाल उठता है कि क्या एनटीएफ के दायरे को उपर्युक्त मेडिकल स्टाफ तक सीमित करके सुप्रीम कोर्ट ने यह इशारा किया है कि मेडिकल प्रोफ़ेशनल्स के ख़िलाफ़ हिंसा का मुद्दा चिंता का विषय तो है, मगर यह केवल मध्यम वर्ग के कार्यस्थलों और शहरी क्षेत्रों तक ही सीमित है, जबकि शहरों में मुख्य रूप से अनौपचारिक श्रमिक और ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य कार्यकर्ता – जैसे कि मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता (आशा कार्यकर्ता) और आंगनवाड़ी कार्यकर्ता और उनपर होने वाली लैंगिक हिंसा- के मुद्दों पर एनटीएफ द्वारा विचार नहीं किया जाएगा क्या?
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) हेल्थ वर्कर्स को उन लोगों के रूप में परिभाषित करता है जो सेहत को बेहतर बनाने के लिए काम करते हैं जिनमें डॉक्टर, नर्स, दाइयां और अन्य पेशेवर शामिल हैं। इसमें स्वास्थ्य सफाई कर्मचारी भी शामिल हैं। डब्ल्यूएचओ हेल्थ वर्कर्स को पांच व्यापक श्रेणियों में वर्गीकृत करता है: हेल्थ प्रोफ़शनल्स, हेल्थ असोसिएट प्रोफ़ेशनल्स और स्वास्थ्य सेवाओं में पर्सनल केयर वर्कर्स, हेल्थ मैनेजमेंट एंड सपोर्ट पर्सनल और अन्य हेल्थ सर्विसेज प्रोवाइडर्स। इसके बावजूद सुप्रीम कोर्ट का उक्त आदेश आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं और मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं (आशा) सहित ग्रामीण स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के समान रूप से महत्वपूर्ण और कमज़ोर वर्ग की अनदेखी करता है।
भारत की आशा कार्यकर्ता कौन हैं? 2005 से स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के तहत कार्यरत- 10.52 लाख से अधिक आशा कार्यकर्ता (2022 के आंकड़े) जो हमारे ग्राम समुदायों की प्रशिक्षित महिला सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता हैं और जो बुनियादी सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए हमारे समुदायों तक पहुंचती हैं। [1] इसके अलावा आंगनवाड़ी कार्यकर्ता और सहायिकाएं केंद्र सरकार के ‘सेवा’ कार्यक्रम का हिस्सा हैं, हालांकि उनके काम को नियमित करने और औपचारिक बनाने की मांग की जाती रही है। वे बच्चों की देखभाल, गर्भवती महिलाओं और स्तनपान कराने वाली माताओं तक पहुंचती हैं, बच्चों के विकास की निगरानी करती हैं और मेडिकल प्रोफ़ेशनल्स के साथ मिलकर प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा, रेफरल सेवाएं और टीकाकरण जैसी सेहत संबंधी ज़रूरतों को पूरा करती हैं। वर्तमान में, भारत में क़रीब 12,93,448 आंगनवाड़ी कार्यकर्ता और 11,64,178 आंगनवाड़ी सहायक हैं जो कोई मामूली संख्या नहीं है।
ये लोग जो ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा की रीढ़ हैं वे न केवल हिंसा का सामना करते हैं बल्कि प्रणालीगत उपेक्षा, कम वेतन और सहयोग की कमी का भी सामना करते हैं मगर उनके संघर्ष व्यापक चर्चा में छुप जाते हैं। जबकि औपचारिक क्षेत्र के मेडिकल प्रोफ़शनल्स पर ध्यान दिया जाता है और वकालत की जाती है लेकिन इन ग्रामीण श्रमिकों की दुर्दशा को काफ़ी हद तक अनदेखा किया जाता है, जो हमारे स्वास्थ्य सेवा प्रणाली के विभिन्न स्तरों को महत्व देने और उनकी सुरक्षा करने के तरीक़े में एक स्पष्ट असमानता को उजागर करता है। मेडिकल स्टाफ का यह बड़ा हिस्सा विशेष रूप से मेडिकल प्रोफ़शनल्स द्वारा उठाई गई चिंताओं पर विचार करने के लिए गठित टास्क फोर्स से बाहर है। बिना यह सुनिश्चित किए कि जो सबसे अधिक हाशिए पर हैं, उपेक्षित और कमजोर हैं, क्या भारत के चिकित्सा बिरादरी के लोगों के लिए सुरक्षा सुनिश्चित की जा सकती है?
सुप्रीम कोर्ट के ऑर्डर का डिटेल:
सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि मेडिकल एसोसिएशन ने स्वास्थ्य सेवा संस्थानों में कार्यस्थल सुरक्षा की कमी को लगातार उजागर किया है। यह देखते हुए कि डॉक्टर, नर्स और पैरामेडिक स्टाफ सहित मेडिकल प्रोफ़ेशनल्स अपने कर्तव्यों का पालन करते समय कई प्रकार की हिंसा का शिकार बन गए हैं ऐसे में सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप से समाधान की एक रूपरेखा तैयार की गई है। अस्पतालों और चिकित्सा परिसरों के 24/7 संचालित होने के साथ ये प्रोफ़ेशनल चौबीसों घंटे काफ़ी मेहनत करते हैं। स्वास्थ्य सेवा संस्थानों के भीतर सभी क्षेत्रों में बे रोक-टोक की आवाजाही ने उनके लिए संभावित ख़तरा पैदा कर दिया है। मनमुताबिक परिणाम न होने पर मरीज़ों के रिश्तेदार अक्सर जल्दबाजी में मेडिकल प्रोफ़ेशनल्स पर कथित लापरवाही का दोष मढ़ते हैं, जिससे ज़िदगी बचाने के लिए समर्पित लोगों पर ही ख़तरा बढ़ जाता है।
महिलाओं द्वारा झेलने वाली परेशानियों का विशेष रूप से उल्लेख करते हुए आदेश में कहा गया कि “महिलाओं को इन परिस्थितियों में यौन और गैर-यौन हिंसा का विशेष जोखिम होता है। पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण और पूर्वाग्रहों के कारण रोगियों के रिश्तेदारों द्वारा महिला मेडिकल प्रोफ़ेशनल्स को चुनौती देने की ज़्यादा संभावना होती है। इसके अलावा महिला मेडिकल प्रोफ़ेशनल्स को कार्यस्थल पर सहकर्मियों, सीनियरों और प्राधिकारीयों द्वारा विभिन्न प्रकार की यौन हिंसा का भी सामना करना पड़ता है।
यौन हिंसा की जड़ें संस्थान के भीतर भी रही हैं, अरुणा शानबाग का मामला इसका एक उदाहरण है। मेडिकल कॉलेजों के भीतर एक पदानुक्रम है और युवा प्रोफ़ेशनल्स की करियर में तरक़्क़ी और शैक्षणिक डिग्री उच्च स्तर के लोगों द्वारा प्रभावित हो सकती हैं। चिकित्सा प्रोफ़ेशनल्स के ख़िलाफ हिंसा और यौन हिंसा, दोनों के ख़िलाफ़ चिकित्सा संस्थानों में संस्थागत सुरक्षा मानदंडों की कमी गंभीर चिंता का विषय है। (पैरा 7)
सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों के अनुसार, मेडिकल प्रोफ़ेशनल्स की सुरक्षा का मुद्दा केवल डॉक्टरों की सुरक्षा से कहीं आगे का है; बल्कि इसे सभी स्वास्थ्य प्रदाताओं की सुरक्षा व कल्याण सुनिश्चित करने के लिए, राष्ट्रीय हित के मामले के रूप में लिया जाना चाहिए। न्यायालय ने अपने आदेश में कहा कि जैसे-जैसे अधिक महिलाएं ज्ञान और विज्ञान के उन्नत क्षेत्रों में कार्यबल में प्रवेश करती हैं, वैसे देश के लिए सुरक्षित और सम्मानजनक कार्य स्थितियों की गारंटी देना महत्वपूर्ण है। समानता का संवैधानिक सिद्धांत इसे अनिवार्य करता है जिससे दूसरों की देखभाल करने वालों के स्वास्थ्य, सुरक्षा और कल्याण से समझौता करने की कोई गुंजाइश नहीं रहती। इसके बाद पीठ ने कहा कि देश वास्तविक और आवश्यक परिवर्तनों को लागू करने से पहले बलात्कार या हत्या जैसी त्रासदी का इंतज़ार नहीं कर सकता।
इस आदेश में कहा गया है, “समानता का संवैधानिक मूल्य इसके अलावा और कुछ नहीं मांगता और दूसरों को हेल्थ केयर की सुविधा देने वालों के स्वास्थ्य, कल्याण और सुरक्षा से समझौता बर्दाश्त नहीं करेगा। देश ज़मीन पर वास्तविक बदलावों के लिए किसी बलात्कार या हत्या का इंतजार नहीं कर सकता।” (पैरा 7)
इस आदेश में सीजेआई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली पीठ ने मेडिकल प्रोफ़ेशनल्स को प्रभावित करने वाले कई अहम मुद्दों को उजागर किया:
1. रात की ड्यूटी पर मौजूद चिकित्सा कर्मचारियों के पास अक्सर आराम करने के लिए पर्याप्त कमरे नहीं होते हैं, पुरुषों और महिलाओं के लिए अलग-अलग सुविधाएं नहीं होती हैं।
2. इंटर्न, रेजीडेंट और सीनियर रेजीडेंट को अक्सर बुनियादी स्वच्छता और सफाई की कमी वाले वातावरण में 36 घंटे की शिफ्ट में काम करना पड़ता है।
3. अस्पतालों में सुरक्षा कर्मियों की अनुपस्थिति आम बात है।
4. मेडिकल प्रोफ़शनल्स को अक्सर अपर्याप्त शौचालय सुविधाओं का सामना करना पड़ता है।
5. मेडिकल स्टाफ के लिए आवास अक्सर अस्पतालों से दूर स्थित होते हैं, जहां परिवहन के अपर्याप्त विकल्प होते हैं।
6. कई अस्पतालों में निगरानी के लिए ठीक से काम करने वाले सीसीटीवी कैमरों की कमी है।
7. मरीज़ और उनके रिश्तेदार अस्पताल के सभी क्षेत्रों में बे रोक-टोक आवाजाही करते हैं।
8. अस्पताल के प्रवेश द्वारों पर हथियारों की जांच की कमी है।
9. अस्पताल परिसर अक्सर गंदे और कम रोशनी वाले होते हैं।
पीठ ने दस सदस्यीय नेशनल टास्क फोर्स के गठन का आदेश दिया है ताकि सभी पक्षों के साथ गहन परामर्श के ज़रिए चिकित्सा बिरादरी के सामने आने वाले मुद्दों को निपटाने वाले प्रोटोकॉल स्थापित करने की तत्काल आवश्यकता पर राष्ट्रीय सहमति बनाई जा सके।
अपने आदेश से पीठ ने एनटीएफ को हिंसा को रोकने और सम्मानजनक और सुरक्षित कार्य स्थितियों के लिए एक लागू करने योग्य राष्ट्रीय प्रोटोकॉल प्रदान करने की कार्य-योजना के सभी पहलुओं पर सुझाव देने के साथ-साथ किसी भी अन्य पहलू पर सुझाव देने का अधिकार दिया है, जिसे सदस्य शामिल करना चाहते हैं। आदेश में आगे कहा गया है कि “एनटीएफ उचित समयसीमा भी सुझाएगा जिसके द्वारा अस्पतालों में मौजूदा सुविधाओं के आधार पर परामर्श को लागू किया जा सके। एनटीएफ से सभी पक्षों से परामर्श करने का अनुरोध किया जाता है।” (पैरा 14)
इस आदेश में कहा गया है कि स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय सफर करने, ठहरने और सचिवीय सहायता की व्यवस्था करने सहित सभी सहायता प्रदान करेगा और एनटीएफ के सदस्यों का खर्च वहन करेगा।
इस बात को स्पष्ट करने के लिए कि मेडिकल प्रोफेशनल्स शब्द के अंतर्गत कौन-कौन लोग आएंगे, आदेश में कहा गया है कि “यह स्पष्ट किया जाता है कि इस आदेश में शामिल मेडिकल प्रोफ़ेशनल्स शब्द में डॉक्टर, मेडिकल छात्र जो एमबीबीएस पाठ्यक्रम के भाग के रूप में अनिवार्य रोटेटिंग मेडिकल इंटर्नशिप (सीआरएमआई) कर रहे हैं, रेजिडेंट डॉक्टर और सीनियर रेजिडेंट डॉक्टर और नर्स (नर्सिंग इंटर्न) सहित प्रत्येक मेडिकल प्रोफेशनल शामिल है।” (पैरा 13)
पूरा आदेश नीचे पढ़ा जा सकता है:
स्वास्थ्य सेवा कर्मी (एचसीडब्ल्यू) वे लोग होते हैं जो बीमार लोगों की देखभाल करते हैं और सेवाएं प्रदान करते हैं। इसमें डॉक्टर, नर्स, प्रयोगशाला तकनीशियन, फार्मासिस्ट, एम्बुलेंस चालक, मेडिकल वेस्ट हैंडलर्स, मान्यता प्राप्त सोशल हेल्थ एक्टिविस्ट (आशा), ऑक्जिलियरी नर्स मिडवाइब्स (एएनएम), आंगनवाड़ी कार्यकर्ता और कई अन्य लोग शामिल हैं। आशा, एएनएम और आंगनवाड़ी कार्यकर्ता राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के तहत मौलिक स्तर के स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं का एक अभिन्न हिस्सा हैं। सरकार के राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एनआरएचएम) के तहत, ग्रामीण आबादी विशेषकर महिलाओं और बच्चों की स्वास्थ्य संबंधी मांगों को पूरा करने के लिए 2005 में मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं (आशा कार्यकर्ताओं) का एक नया समूह स्थापित किया गया था।
स्वास्थ्य सेवा पेशेवरों की सुरक्षा और मान्यता के बारे में चल रही चर्चाओं में, आशा (मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता) कार्यकर्ताओं, आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं और सफाई कर्मचारियों के महत्वपूर्ण योगदान को अक्सर नजरअंदाज किया जाता है, मुख्यतः शहरी और कुलीन डॉक्टरों पर ध्यान केंद्रित करने के कारण। ये लोग भारत की ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा प्रणाली की बुनियाद हैं, जो देश के सबसे दूरदराज और वंचित आबादी को आवश्यक सेवाएं प्रदान करते हैं। उनकी महत्वपूर्ण भूमिका के बावजूद, उन्हें बड़े पैमाने पर उन सुरक्षा, लाभ और सम्मान से वंचित रखा जाता है जो नियमित रूप से उनके शहरी और औपचारिक क्षेत्र के समकक्षों को प्रदान किए जाते हैं। यह बहिष्कार स्वास्थ्य सेवा प्रणाली के भीतर एक गहरी असमानता को उजागर करता है, जहां ग्रामीण स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की मेहनत को कम आंका जाता है और उनकी सुरक्षा और कल्याण की उपेक्षा की जाती है।
आशा कार्यकर्ता और आंगनवाड़ी कार्यकर्ता, जो अधिकांशतः महिलाएं हैं, सबसे चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों में काम करती हैं। उदाहरण के लिए, आशा कार्यकर्ता अक्सर बड़े भौगोलिक क्षेत्रों को कवर करने, घर-घर जाकर स्वास्थ्य प्रथाओं के बारे में शिक्षित करने और टीकाकरण, प्रसवपूर्व देखभाल और परिवार नियोजन जैसी महत्वपूर्ण सेवाएं देने के लिए जिम्मेदार होती हैं। ये कार्य बेहद कठिन हैं और आशा कार्यकर्ताओं को अक्सर पर्याप्त आराम या मुआवजे के बिना लंबे समय तक काम करना पड़ता है। कुछ क्षेत्रों में, उन्हें न्यूनतम वेतन से भी कम पर काम करना पड़ता है, जो उनके काम की महत्वता और ज़रूरत को देखते हुए एक मामूली राशि है। आंगनवाड़ी कार्यकर्ता जो ग्रामीण बाल देखभाल केंद्र चलाती हैं और बच्चों के प्रारंभिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं, उन्हें भी इसी तरह की कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। वे न केवल बच्चों की शैक्षिक आवश्यकताओं को पूरा करती हैं, बल्कि अक्सर पर्याप्त बुनियादी ढांचे या सहायता के बिना उनकी पोषण और स्वास्थ्य संबंधी ज़रूरतों को भी पूरा करती हैं।
औपचारिक रोजगार की कमी के कारण इन कार्यकर्ताओं का जोखिम और बढ़ जाता है। आशा और आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को अक्सर “मानद” या “स्वैच्छिक” श्रमिकों के रूप में वर्गीकृत किया जाता है, जिसका मतलब है कि उन्हें औपचारिक कर्मचारियों के समान लाभ नहीं मिलते, जैसे कि स्वास्थ्य बीमा, पेंशन या नौकरी की सुरक्षा। यह वर्गीकरण उन्हें एक अनिश्चित स्थिति में छोड़ देता है, जहां उनसे ऐसी जिम्मेदारियों के साथ सुरक्षा के बिना आवश्यक सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्य करने की अपेक्षा की जाती है। इसके अलावा, उन्हें अक्सर उन समुदायों से हिंसा और उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है जिनकी वे सेवा करती हैं, और स्वास्थ्य सेवा प्रणाली के भीतर भी इस प्रकार की स्थिति का सामना करना पड़ता है। उत्तर प्रदेश, बिहार और महाराष्ट्र सहित कई राज्यों में कोविड-19 ट्रेसिंग या टीकाकरण अभियान के दौरान आशा कार्यकर्ताओं पर हमलों और धमकियों की घटनाएं सामने आई हैं। इसी तरह, आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को अक्सर उन परिवारों से उपेक्षा और दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ता है जो उनकी भूमिका को पूरी तरह से समझते या सराहते नहीं हैं, फिर भी वे इन कठिन परिस्थितियों में बहुत कम स्वीकृति के साथ काम करना जारी रखते हैं.
आशा और आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं द्वारा सामना की जाने वाली हिंसा के आंकड़े मुश्किल से मिलते हैं। हालांकि, उपलब्ध आंकड़े स्पष्ट रूप से यह दर्शाते हैं कि यह एक गंभीर समस्या है। उदाहरण के लिए, 2016 की एक मिक्स्ड-मेथड स्टडी में जिसमें ग्रामीण उत्तरी कर्नाटक के 396 आशा कार्यकर्ता शामिल थे, पाया गया कि 94% प्रतिभागियों ने पिछले छह महीनों में हिंसक घटनाओं का सामना किया। इसी तरह, 2010 की अशांति के दौरान कश्मीर में 35 एम्बुलेंस ड्राइवरों पर केंद्रित एक अध्ययन में खुलासा हुआ कि साक्षात्कार में शामिल 89% लोगों ने शारीरिक नुकसान की एक से अधिक घटनाओं का सामना किया, 54% ने शारीरिक हमले का सामना किया और 83% ने नौकरी से संबंधित मनोवैज्ञानिक आघात का अनुभव किया।
भारत में आशा कार्यकर्ताओं, आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं और अन्य अनौपचारिक चिकित्सा कार्यकर्ताओं की भारी संख्या के बावजूद उनके सामने आने वाली हिंसा की जांच करने वाले व्यापक अध्ययनों की कमी है। डेटा की कमी इन आवश्यक मेहनतकशों के सामने आने वाले जोखिमों को समझने और उनका समाधान करने में एक महत्वपूर्ण अंतर को उजागर करती है। ये अध्ययन यह भी बताते हैं कि इन श्रमिकों द्वारा सामना की जाने वाली हिंसा कई स्तरों पर विफलताओं से उपजी है। जमीनी स्तर पर और क्षेत्र में आने-जाने वाले कार्यकर्ता अस्पताल परिसर के बाहर सुरक्षा के अभाव में काम करते हैं, जबकि परिसर में तैनात लोगों को पर्याप्त सुरक्षा मिलती है। इस मुद्दे पर शोध की कमी के कारण हाल के आंकड़े शामिल नहीं किए जा सके हैं।
इन भारी चुनौतियों के बावजूद, आशा और आंगनवाड़ी कार्यकर्ता बेहतर कामकाजी परिस्थितियों और उचित उपचार के लिए अपनी लड़ाई में दृढ़ संकल्पित हैं। पिछले कुछ वर्षों में उन्होंने उच्च वेतन, नौकरी की सुरक्षा और अपनी भूमिकाओं की औपचारिक मान्यता की मांग के लिए कई विरोध प्रदर्शन, हड़ताल और अभियान चलाए हैं। साल 2020 में हजारों आशा कार्यकर्ता देश भर में हड़ताल पर चली गईं, उन्होंने 10,000 रुपये का एक निश्चित मासिक वेतन और कोविड-19 महामारी के दौरान बेहतर सुरक्षात्मक उपकरण की मांग की। आंगनवाड़ी कार्यकर्ता भी अपर्याप्त वेतन और सरकार से सहयोग की कमी के खिलाफ सड़कों पर उतर आईं हैं। उनके संघर्षों से कुछ जीतें भी मिली हैं, जैसे कि कुछ राज्यों में वेतन वृद्धि और सार्वजनिक चर्चा में उनकी मांगों को स्थान मिला है। हालांकि, ये लाभ अक्सर टुकड़ों में होते हैं और उन प्रणालीगत मुद्दों को हल नहीं करते जो इन श्रमिकों को हाशिये पर रखते हैं।
औपचारिक क्षेत्र में शामिल डॉक्टरों और अन्य चिकित्सा पेशेवरों को दी जाने वाली सुरक्षा और पुरस्कार-प्रशंसा से आशा और आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को बाहर रखना भारत की स्वास्थ्य सेवा प्रणाली में एक व्यापक प्रणालीगत असमानता का संकेत है। शहरी और औपचारिक क्षेत्र के डॉक्टर और अस्पताल सरकार का ध्यान और संसाधन प्राप्त करते हैं, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में आवश्यक स्वास्थ्य सेवा देने वाली महिलाओं को खुद के लिए संघर्ष करना पड़ता है। यह असमानता न केवल आशा और आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं के स्वास्थ्य और तंदरुस्ती को कमजोर करती है, बल्कि भारत के सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रयासों की समग्र प्रभावशीलता को भी खतरे में डालती है। स्वास्थ्य सेवा प्रणाली को समान रूप से और कुशलता से काम करने के लिए यह आवश्यक है कि इन कार्यकर्ताओं को वह मान्यता, सुरक्षा और मुआवज़ा मिले जिसके वे हकदार हैं।
अनौपचारिक सफाई कर्मचारियों को अन्य स्वास्थ्य पेशेवरों को दी जाने वाली सुरक्षा और मान्यता से वंचित करना भारत के श्रम बल के भीतर गहरी असमानताओं को और अधिक उजागर करता है। ये कर्मचारी सार्वजनिक स्वास्थ्य की देखरेख करने में सबसे महत्वपूर्ण लेकिन खतरनाक कार्यों के लिए जिम्मेदार हैं, लेकिन अक्सर उन्हें बहुत कम या बिना किसी सुरक्षा उपकरण के खतरनाक परिस्थितियों में काम करना पड़ता है। सीवर, सार्वजनिक शौचालय और अपशिष्ट निपटान स्थलों की सफाई के दौरान वे हानिकारक रोगाणुओं, विषाक्त पदार्थों और जीवन को खतरे में डालने वाली स्थितियों के संपर्क में आते हैं। बीमारी के प्रकोप को रोकने और सार्वजनिक स्वच्छता सुनिश्चित करने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका के बावजूद, वे स्वास्थ्य सेवा सुरक्षा और सहायता की व्यापक चर्चा में अदृश्य बने हुए हैं।
अनौपचारिक सफाई कर्मचारी अक्सर सबसे हाशिए पर पड़े समुदायों से आते हैं और गरीबी तथा भेदभाव के चक्र में फंसे होते हैं। वे उचित प्रशिक्षण, सुरक्षात्मक उपाय या नौकरी की सुरक्षा के बिना काम करते हैं, जिससे वे ज़ख्मी होते हैं, संक्रमण फैलता है और यहां तक कि मौत के करीब पहुंच जाते हैं। वे जो जोखिम उठाते हैं, वे बहुत बड़े हैं। सफाई कर्मचारियों की सेप्टिक टैंकों और सीवरों जैसे बंद और खतरनाक वातावरण में दम घुटने या डूबने से मौतें असामान्य नहीं हैं। सेप्टिक टैंक की सफाई करते समय दम घुटने के कारण सफाई कर्मचारियों की मौत की कई रिपोर्टें आती हैं, क्योंकि यह काम अक्सर मशीनी विकल्पों की अनुपस्थिति में मैन्युअल रूप से किया जाता है। इन खतरों के बावजूद, उन्हें न्यूनतम मुआवज़ा मिलता है और अक्सर उन्हें स्वास्थ्य सेवा, बीमा और पेंशन जैसे बुनियादी अधिकारों से वंचित किया जाता है। राष्ट्रीय सुरक्षा प्रोटोकॉल और श्रम सुरक्षा से उनका बहिष्कार भारत के सार्वजनिक स्वास्थ्य ढांचे में सबसे कमजोर श्रमिकों द्वारा सामना की जाने वाली प्रणालीगत उपेक्षा की याद दिलाता है।
भारत एक ऐसा देश है जो चिकित्सा पेशेवरों की सुरक्षा और कल्याण पर चर्चा करता रहता है, लेकिन हमें उन असमानताओं का भी सामना करना चाहिए और उन्हें ठीक करना चाहिए जो ग्रामीण स्वास्थ्य कर्मचारियों को कमजोर और हाशिए पर छोड़ देती हैं। यदि सुरक्षा और संरक्षण बढ़ाने के हमारे प्रयास केवल स्वास्थ्य सेवा कार्यबल के अधिक प्रत्यक्ष या विशेषाधिकार प्राप्त क्षेत्रों पर केंद्रित हैं, तो हम मौजूदा असमानताओं को कायम रखने और उन लोगों को पीछे छोड़ने का जोखिम उठाते हैं जो सबसे अधिक ज़रूरतमंद हैं। आशा कार्यकर्ताओं, आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं और अनौपचारिक सफाई कर्मचारियों की सुरक्षा और सशक्तिकरण सुनिश्चित करना केवल एक नैतिक दायित्व नहीं है, बल्कि यह भारत की सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली की सफलता के लिए महत्वपूर्ण है। उनका काम अत्यंत महत्वपूर्ण है और उनके योगदान को पहचाना और महत्व दिया जाना चाहिए। देश की स्वास्थ्य सेवा प्रणाली को सभी के लिए समानता और न्याय के लिए अपनी संवैधानिक प्रतिबद्धता के साथ संरेखित करते हुए एक व्यापक दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है, जो उनके अधिकारों, सुरक्षा और सम्मान को सुनिश्चित करता है। वास्तविक विकास के लिए हमारे सुधारों को अर्ध-शहरी, अनौपचारिक और ग्रामीण स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं जैसे आशा और आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं और अनौपचारिक सफाई कर्मचारियों को शामिल करने के लिए अधिक प्रत्यक्ष और केंद्रीय शहरी केंद्रों और औपचारिक क्षेत्रों से आगे बढ़ना चाहिए। इन आवश्यक लेकिन उपेक्षित समूहों की विशिष्ट चुनौतियों को स्वीकार करके और उनका समाधान करके, हम एक अधिक समावेशी और समतापूर्ण प्रणाली बना सकते हैं जो वास्तव में उन सभी लोगों की सुरक्षा करेगी जो अपनी ज़िंदगी सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए समर्पित करते हैं। केवल ऐसे व्यापक और दयालु उपायों के माध्यम से ही हम स्वास्थ्य कर्मियों के खिलाफ हिंसा का प्रभावी और न्यायसंगत जवाब देने की उम्मीद कर सकते हैं।
[1] सरकारी कर्मचारियों के रूप में मान्यता दिए जाने की लंबे समय से चली आ रही मांगों के बावजूद, आशा कार्यकर्ताओं को “मानद/स्वयंसेवक” पदधारी के रूप में वर्गीकृत नहीं किया गया है। वे ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग 1,000 और शहरी क्षेत्रों में 2,000 लोगों की सेवा करती हैं।
सौजन्य :सबरंग इंडिया
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