भाजपा शासित राज्यों में हिरासत में मौत, पुलिस-प्रशासन की कार्यप्रणाली पर गंभीर सवाल
इन दिनों पूरे भारत में पुलिस प्रशासन के कार्यप्रणाली और चरित्र पर गंभीर सवाल उठ रहे है। पिछले महीने जून से लेकर जुलाई तक में पुलिस हिरासत में मौतों और तमाम फर्जी एनकाउंटर के मामले बढ़ गए हैं जो मानवाधिकार के लिहाज से बेहद चिंताजनक है। बात करें उत्तर प्रदेश की तो योगी सरकार के कार्यकाल में विशेष तौर पर मानवाधिकारों की धज्जियां उड़ाई गई है। बुलडोजर राज वाली सरकार से और आखिर क्या उम्मीद की जा सकती है।
योगी राज में पुलिसिया जुल्म को देखते हुए हाल ही में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने उत्तर प्रदेश सरकार और डीआईजी को नोटिस जारी करते हुए दो हफ्ते के अंदर जवाब तलब किया है। मामला जालौन जिले का है जहां 15 जुलाई को पुलिस हिरासत में टॉर्चर के कारण राजकुमार नाम के युवक की मौत हो गई। आयोग ने अपने बयान में पुलिस पर बेहद संगीन आरोप लगाते हुए कहा कि पहले तो उसे पुलिस कस्टडी में पीटा गया जिससे उसकी मौत हो गई।
मौत के बाद पुलिस ने उसकी लाश को अस्पताल के इमरजेंसी वार्ड के बाहर फेंक कर भाग गए। जब अस्पताल को लाश की सूचना मिली तो एक वार्ड बॉय को भेज कर पुलिस थाने में सूचित करने को कहा गया। पुलिस ने अपना पल्ला बचाने के लिए उल्टा वार्ड बॉय को हिरासत में ले लिया। अंतिम में उसे तब छुड़ाया जा सका जब अस्पताल के लोगों ने थाने का घेराव किया।
यहां तक कि पुलिस ने राजकुमार के परिवार वालों को गैरकानूनी तरीके से थाने पर हिरासत में लेकर रखा। लोकल मीडिया में मामला सामने आने के बाद मानवाधिकार आयोग ने पुलिस अधीक्षक को भी नोटिस जारी करते हुए पूछा कि राजकुमार के पुलिस हिरासत में मौत होने के स्थाई दिशा निर्देश होने के बाद भी 24 घंटे के अंदर आयोग को सूचित क्यों नहीं किया गया?
मध्यप्रदेश के गुना में देवा पारधी नाम के युवक को पुलिस चोरी के आरोप में घर से उठा कर ले गई थी। जिस समय उसे पुलिस उठा कर ले गई उसके कुछ घंटों के बाद ही उसके बारात को निकलना था। देवा और उसके चाचा को पुलिस हिरासत में इतना मारा गया कि उसकी जान चली गई। फलस्वरूप उसकी होने वाली पत्नी ने आत्महत्या की कोशिश की हालांकि उसे बचा लिया गया। गुना में डिस्क्ट्रिक कलेक्टर के ऑफिस में बाहर महिलाओं ने उग्र प्रदर्शन किया और न्याय मांगते हुए नग्न प्रदर्शन की कोशिश की।
भारतीय न्याय व्यवस्था की हालत यह है कि न्याय की उम्मीद के लिए महिलाओं को कपड़े उतारने पड़ रहे ताकि उनकी बात सुनी जाए। यह घटना 12 मणिपुरी महिलाओं का मनोरमा थांगजाम का असम राइफल्स के जवान द्वारा बलात्कार और नृशंस हत्या के खिलाफ किए गए नग्न प्रदर्शन की याद दिलाता है। यह प्रदर्शन 15 जुलाई 2004 को महिलाओं ने असम राइफल्स के हेडक्वार्टर के बाहर किया था।
विपक्ष शासित राज्यों का हाल
चाहे तमिलनाडु हो या पश्चिम बंगाल मानवाधिकारों का दमन चरम पर है। और ऐसा पश्चिम बंगाल में जहां ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली तृणमूल कांग्रेस सत्तासीन है वहीं तमिलनाडु में स्टालिन के डीएमके पार्टी की सरकार है। पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद और दक्षिण 24 परगना में भी कस्टडी में मौत का मामला सामने आया है। बंगाल के दक्षिण 24 परगना में 22 साल के अबू सिद्दकी हालदार को 30 जून को पुलिस गहने चुराने के आरोप में उठा कर ले गई। हिरासत में थर्ड डिग्री टॉर्चर किया गया जिससे उसकी तबीयत बेहद खराब हो गई। 4 जुलाई की उसे बेल मिल तो गई लेकिन अस्पताल में भर्ती कराने के बाद यातनाओं के कारण उसकी मौत हो गई। अस्पताल के डॉक्टर्स ने यह कन्फर्म भी किया कि उसे थर्ड डिग्री टॉर्चर दिया गया है।
मध्यप्रदेश के गुना और पश्चिम बंगाल के दक्षिण 24 परगना, दोनों ही जगहों में यह अच्छी बात थी कि महिलाओं ने पुलिस के यातनाओं के खिलाफ जोरदार मोर्चा खोल दिया। दक्षिण 24 परगना में महिलाओं ने सैकड़ों की संख्या में बेलन, चिमटा और चप्पल लेकर थाने का घेराव कर उग्र प्रदर्शन किया। प्रदर्शन की तस्वीरों में महिलाओं को चप्पल लेकर पुलिसकर्मियों को धमकी देते हुए आसानी से देखा जा सकता है। इसके बाद परिवार वालों ने चार पुलिसकर्मियों पर हत्या का मुकदमा दर्ज कर करवाई की मांग की है।
पश्चिम बंगाल में ही दूसरा मामला भी सामने आया है जिसमें 49 वर्षीय मुनताज शेख को पुलिस हेरोइन रखने के आरोप में थाने उठाकर ले गई। उसे कोर्ट में पेश करके लाल बाग जेल तो भेज दिया गया लेकिन वहां तबियत खराब होने के बाद अस्पताल में उसकी मौत हो गई। मृतक के शरीर पर टॉर्चर के निशान साफ तौर पर देखे गए। पूरे मामले पर संज्ञान लेते हुए एसोसिएशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ डेमोक्रेटिक राइट्स (APDR) ने पुलिस के कार्यप्रणाली पर सवाल खड़ा करते हुए जांच की मांग की है।
इन सभी मामलों के अलावा अगर अन्य सैकड़ों मामले देखें तो पुलिस का वर्गीय चरित्र खुलकर दिखता है। पुलिस के चरित्र में इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वहां सत्ता किस पार्टी की है। इन मामलों को देखकर कई निष्कर्ष निकाले जा सकतें हैं-
पुलिस अमीरों के पक्ष में काम करती है वहीं गरीबों पर जुल्म ढाने में कभी पीछे नहीं रहती है। पुलिसकर्मी पैसे वाले लोगों को सलाम ठोकती है लेकिन गरीब तबके से आने वाले लोगों को कीड़े- मकोड़े के समान समझती है।
पुलिस के सबसे आसान टारगेट जातिगत रूप से दलित- पिछड़े, आदिवासी और अल्पसंख्यक लोग ही है। आरोपियों के इन तबकों से होने के कारण पुलिस जानबूझकर भी बदला लेती है। पुलिसकर्मियों को भी अच्छी तरह से जानकारी होती है कि कस्टडी में मारे गए व्यक्ति की इतनी हैसियत ही नहीं है कि उनका परिवार पुलिस के खिलाफ लड़ाई लड़ पाए।
केंद्र सरकार में भाजपा के आने के बाद से अल्पसंख्यकों के प्रति नफरत की भावना गहरी हो चुकी है। इस नफरत का सबसे ज्यादा भुक्तभोगी मुस्लिम समाज है। यह नफरत संस्थागत रूप ले चुकी है। पश्चिम बंगाल में पुलिस कस्टडी में मारे जाने वाले लोग मुस्लिम ही है। आम जनता में ही कुछ इसी तरह की चेतना बनाई गई है जिससे लोग पुलिस की कार्यप्रणाली पर सवाल नहीं उठाते। उनकी नज़र में मुसलमान दोयम दर्जे के लोग है जिन्हें सबक सिखाना बेहद जरूरी है। पुलिस का मुसलमानों के प्रति क्या सोच है मॉब लिंचिंग इसका बड़ा उदाहरण है। मॉब लिंचिंग के मामलों में पुलिस या तो मूक दर्शक बनी रहती है या आरोपियों को बचाने के कानूनी- गैरकानूनी दोनों तरीके आजमाती है।
पुलिस कस्टडी में मारे जाने वालों की संख्या हजारों में है लेकिन दोषी पुलिस कर्मियों पर करवाई इक्का-दुक्का ही मामलों में होती है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के आंकड़े के अनुसार साल 2010 से लेकर साल 2020 तक न्यायिक या पुलिस हिरासत में कुल 17,146 लोगों की मौत हुई है। यानी हर दिन करीब 5 मौतें। लेकिन ज्यादातर मामले में परिवार या तो पैसे की तंगी के कारण कानूनी लड़ाई अधूरी छोड़ देते है या कई बार वर्दी के दम पर उन्हें चुप करा दिया जाता है। जालौन में हुई मौत पर आयोग ने सरकार और प्रशासन से जवाब तलब किया है यह भी सैकड़ों में एक घटना है।
एनकाउंटर यानी पुलिस और सुरक्षा बल द्वारा हत्या
पुलिस कस्टडी में आरोपी को पीट- पीट कर मार देने के अलावा पुलिस आरोपियों को फेक एनकाउंटर में मार देने जैसी तरकीब भी इस्तेमाल करती है। हाल ही में बहुजन समाज पार्टी के नेता आमस्ट्रॉन्ग के मर्डर के एक आरोपी के थिरुवेंगटम को भी चेन्नई पुलिस ने 14 जुलाई को एनकाउंटर में मार डाला है। पुलिस का पक्ष हमेशा की तरह घिसा पिटा है। उनका कहना है कि आरोपी को जब सबूत जुटाने के लिए उत्तरी चेन्नई के एक जगह पर ले जाया गया तो उसने पुलिस पर हमला कर भागने की कोशिश की। थिरुवेंगटम मर्डर के 11 आरोपियों में एक था। इस तरह के एनकाउंटर पुलिस पर से जनता का प्रेशर कम करने का काम करते है।
फर्जी मुठभेड़ के नाम पर हत्या कर देने के आरोप असम पुलिस पर भी लगे है। पुलिस का दावा है कि उन्होंने असम के कछार जिले में हथियारबंद मिलिटेंट ग्रुप ‘हमार’ के तीन लोगों को मार गिराया है और उनके पास से एक पिस्टल और एके 47 राइफल मिली है। जबकि तीनों लोगों के परिजनों ने लखीपुर पुलिस थाने में शिकायत पत्र के माध्यम से दावा किया कि पुलिस झूठा आरोप लगा रही। उनका कहना है कि तीनों बेकसूर है उनका कोई अपराधिक रिकॉर्ड नहीं है।
इसी तरह छत्तीसगढ़ के अबूझमाड़ के घमंडी गांव में डीआरजी, बीएसएफ, एसटीएफ और आईटीबीपी के जवानों ने दावा किया उन्होंने 5 माओवादियों को मार गिराया है और यह सभी लोग पीएलजीए के बटालियन 1 के लोग थे जो सेंट्रल कमिटी के लोगों की सुरक्षा में तैनात रहते हैं। दूसरी तरफ इनमें से 4 लोगों के परिवार वालों दावा किया कि वो सामान्य किसान लोग थे।
फोर्स के डर से वो लोग जंगल की तरफ भागने की कोशिश किए और तब ही फोर्स ने उनकी गोली मार कर हत्या कर दी और अगले दिन लाखों रुपए का इनामी माओवादी घोषित कर दिया। ध्यान देने वाली बात है कि ऐसा पहली बार नहीं है जब सुरक्षाबलों पर माओवाद को खत्म करने के नाम पर आम लोगों के हत्या बलात्कार जैसे तमाम संगीन आरोप लगे हैं।
यह याद रखने वाली बात है कि साल 2011 में न्यायाधीश मार्कण्डेय काटजू और न्यायाधीश ज्ञान सुधा मिश्रा ने प्रकाश कदम व अन्य बनाम रामप्रसाद विश्वनाथ गुप्ता व अन्य केस में एक जरूरी बात कही कि “फेक एनकाउंटर एक नृशंस हत्या है, उनके द्वारा जिनसे हम कानून की रक्षा की उम्मीद करते है”। लेकिन फर्जी मुठभेड़ के नाम पर निर्दोष लोगों की हत्या करने वालों पर कोई करवाई नहीं होती है। भारत में फासीवाद के उभार के सह यह सिलसिला और ज्यादा मजबूत ही हुआ है।
आपको बताते चलें कि इंडिया टुडे में छपे रिपोर्ट के अनुसार गृह मंत्रालय ने संसद में बताया कि साल 2017 के जनवरी से लेकर साल 2022 के जनवरी तक कुल 655 एनकाउंटर हुए है। एनकाउंटर के मामले में छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश सबसे ऊपर है। यह सरकारी आंकड़े हैं असलियत कितनी गंभीर होगी इसका अंदाज़ा हम लगा सकतें हैं।
अब सवाल यह उठता है कि इन फर्जी मुठभेड़ों के खिलाफ आम जनता बगावत क्यों नहीं करती है। असल में जनता (विशेष तौर पर शहरी जनता) के मन में पुलिसिया न्याय व्यवस्था की ऐसी घुट्टी पिलाई गई है कि वास्तविक न्यायिक प्रक्रिया क्या होनी चाहिए उससे उसे कोई मतलब नहीं रह गया है। कोई व्यक्ति दोषी है या निर्दोष यह तय करने का काम न्यायालय का है ना कि पुलिस का। ‘न्याय’ के नाम पर पुलिस किसी को भी पकड़ कर मार दे तो जनता तालियां पीटने लगती है। यह खूंखार सोच आम जनता के एक बड़े तबके में जड़ जमा चुकी है।
एनकाउंटर की लेकर दिशा निर्देश :
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने साल 1997 में और सुप्रीम कोर्ट ने साल 2014 में एनकाउंटर से 16 दिशा निर्देश दिए है।
आयोग द्वारा जारी :-
1. थाना अध्यक्ष द्वारा तत्काल एनकाउंटर की पूरी जानकारी रजिस्टर किया जाना चाहिए।
2. राज्य सीआईडी या इस तरह की स्वतंत्र एजेंसी द्वारा एनकाउंटर की 4 महीने के अंदर निष्पक्ष जांच होनी चाहिए।
3. पुलिस द्वारा एनकाउंटर के मामले में 3 महीने के अंदर मजिस्ट्रेट द्वारा जांच की जानी चाहिए।
4. एनकाउंटर फर्जी पाए जाने पर मारे गए व्यक्ति पर आश्रित लोगों या परिवार को उचित मुआवजा मिलना चाहिए और फास्ट ट्रायल चलाया जाना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी:-
1. एनकाउंटर में व्यक्ति मौत पर तत्काल एफआईआर दर्ज होनी चाहिए।
2. जिस थाने के अंतर्गत व्यक्ति की मौत हुई है उससे अलग पुलिस थाने या सीआईडी द्वारा एनकाउंटर की निष्पक्ष जांच होनी चाहिए।
3. घटना के गवाहों का तत्काल बयान होना चाहिए।
4. सेक्शन 176 के अंतर्गत पूरे मामले की मजिस्ट्रेट द्वारा जांच की जानी चाहिए।
5. घटना के तुरंत बाद राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग या राज्य मानवाधिकार आयोग को सूचना दी जानी चाहिए।
6. जिस पुलिस अफसर द्वारा एनकाउंटर किया गया है उसके हथियार को तत्काल फोरेंसिक जांच के लिए भेजा जाना चाहिए।
7. मारे गए व्यक्ति के परिवार को तत्काल सूचना दी जानी चाहिए।
8. एनकाउंटर के बाद उस अफसर को तुरंत किसी तरह का प्रोमोशन या पुरस्कार नहीं दिया जाना चाहिए। आदि।
इतने सारे दिशा निर्देशों के बाद भी सुरक्षा बलों और पुलिस द्वारा एनकाउंटर के नाम पर निर्दोषों को मारा जा रहा। क्या भारत में कानून का राज है? क्या भारत वास्तव में एक लोकतंत्र है? क्या यहां कानून के नज़र में सभी बराबर है? दुखद बात है कि इनसभी का जवाब नकारात्मक ही है।
इन हत्याओं का वास्तविक जिम्मेदार कौन है?
यह सोचने वाली बात है कि पुलिस और तमाम सुरक्षा बलों को आम लोगों का सरेआम कत्ल करके उसे एनकाउंटर नाम देने या कई बार तबियत बिगड़ने से मौत आदि घोषित करने की हिम्मत कहां से मिलती है? वास्तविकता यह है कि इस तरह के मामले अक्सर राज्य द्वारा पोषित और योजनाबद्ध होते है इसलिए उनपर कभी दोष सिद्ध नहीं होता है न ही कोई करवाई होती है। यह संस्था इतनी भ्रष्ट संस्था है कि तमाम करतूतों के बाद भी अपनी इज़्ज़त बचाने के लिए किसी भी हद तक जा सकती है।
इसका ताज़ा उदाहरण है कि जून 2024 में पंजाब की सीबीआई केस के स्पेशल जज ने डीएसपी सहित 2 लोगों को 1993 में गुलशन कुमार नाम के व्यक्ति को उसके घर से अवैध रूप से हिरासत में लेकर उसकी हत्या करने और लाश को चुपके से जला देने का दोषी पाया है। सीबीआई ने 1999 में चार्जशीट फाइल की लेकिन तब तक हत्या के आरोपी 4 लोगों की मौत हो गई। यह कैसी न्याय व्यवस्था है जहां हत्या के 31 साल बाद दोषियों को सजा सुनाई जा रही। हमारी रेंग कर वाली न्याय व्यवस्था के कारण भी पुलिस को इतनी शह मिलती है कि कभी एनकाउंटर के नाम पर या कभी कस्टडी में पूछताछ के नाम पर आरोपियों की हत्या कर दी जाती है और किसी पुलिसकर्मी को सजा नहीं होती।
31 साल बाद गुलशन कुमार के परिवार को जो न्याय मिल रहा वो क्या सच में न्याय है? पुलिस कस्टडी में मारे गए राजकुमार, मुनताज, देवा को कभी न्याय मिल पाएगा? हो सकता है कि जो आरोप इनपर लगाए गए थे वो सही आरोप हो लेकिन क्या इसके बदले उन्हें पीट-पीट कर यातनाएं देकर मार दिया जाना सही है? क्या उनका पक्ष न्यायालय में नहीं सुना जाना चाहिए?
कुल मिलाकर यह कहना अतिश्योक्ति नहीं है कि जिस संस्था का मकसद कानून व्यवस्था लागू करना था, वही संस्था कानून का गला घोंट रही। पुलिस एक पक्षपाती संस्था जो गरीबों और दमितों को और दबाती है। अलग राजनैतिक मत रखने वालों के लिए पुलिस और तमाम सुरक्षा बल सबसे क्रूर और उत्पीड़क संस्था के रूप में ही नजर आते हैं। सवाल यह है कि पुलिस और सुरक्षा बलों की क्रूरता में मारे गए लोगों न्याय कब मिलना संभव होगा। (आकांक्षा आजाद मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं)
सौजन्य: जनचौक
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