मध्य प्रदेश : विकास से कोसों दूर हैं सागर जिले के तिली गांव के दक्खिन टोले के दलित-आदिवासी
बस्ती की एक झोपड़ी में अनिता रहती हैं। वह आदिवासी समुदाय की हैं। उन्हें कई दिनों से बुखार है। वह कहतीं हैं कि “मेरी झोपड़ी की दीवारें कच्ची हैं। ये दरक रही हैं। झोपड़ी पर पॉलिथीन की शीट डाल रखी है। मगर, यह ठहरती नहीं है।” पढ़ें, सतीश भारतीय की आंखन-देखी यह रपट
सतीश भारतीय
हमारे देश भारत में आबादी का एक बड़ा हिस्सा ग़रीबी की चपेट में हैं। वे बुनियादी सुविधाएं हासिल करने में असमर्थ है। एक उदाहरण मध्य प्रदेश के सागर जिले के कई इलाके हैं, जहां लोगों की बदहाली के दृश्य अनायास दिख जाते हैं। मसलन, सागर जिले के तिली गांव के पास दलित-आदिवासी समुदाय के लोगों की एक बसाहट है। यह जिला मुख्यालय से महज 7-8 किलोमीटर दूर है।
इस बसाहट में करीब 100-150 झोपड़ियां हैं। इन झोपड़ियों में दशकों से दलित, आदिवासी सहित अन्य समुदाय के लोग निवास करते आ रहे हैं। इनमें सबसे अधिक नोना जाति के लोग हैं, जो मध्य प्रदेश सरकार की अनुसूचित जाति की सूची में चमार, चमारी, बैरवा, भांबी, जाटव, मोची, रेगर, रोहिदास, रामनामी, सतनामी, सूर्ज्यावंशी, सूर्ज्यारामनामी, अहिरवार, मांगन और रैदास के साथ शामिल हैं। नोना जाति के अलावा इस बसाहट में आदिवासी व पिछड़े वर्ग के लोग भी रहते हैं।
इस बसाहट में पक्का घर, सड़क, बिजली, पानी, स्कूल; जैसी मूलभूत सुविधाओं का अभाव है।
जल की उपलब्धता का आलम यह है कि एक महिला मिली, जो बरसात में इकट्ठा हुए गंदे पानी में कपड़े धो रही थी।
“आप गंदे पानी में क्यों कपड़े धो रही हैं?”
जवाब देने के बजाय महिला खामोश रही। हालांकि बाद में उसने अपनी स्थानीय भाषा में जरूर कहा– “अगर वाकई आपको हमारी जिंदगी और परेशानियों को जानना-समझना है, तब आप पठार के ऊपर हमारी बस्ती में जाइये। वहां लोग अपनी परेशानियां और दुख-दर्द बयां करेंगे।”
पठार पर घाटी की लंबी चढ़ाई के बाद बस्ती नजर आती है। यह तिली गांव की बसाहट है। कुछ वैसा ही जैसे उत्तर भारत के गांवों के दक्खिन टोले। कुछ महिलाएं अपने बच्चों को गोद में लिये खड़ी नजर आती हैं। बस्ती अव्यवस्थित है। जहां-तहां कचरा पसरा है। गंदगी का अंबार है। और कहने को सड़क है, लेकिन कहना मुश्किल है कि कीचड़ में सड़क है या सड़क ने कीचड़ का रूप धारण कर लिया है।
इसी बस्ती के धनराज बताते हैं– “हमारे यहां वैसे तो बहुत समस्याएं हैं। जिन पर लोग बात करेगें। मगर, मैं एक बड़ी समस्या पक्की सड़क को लेकर बता रहा हूं। हमारे घरों के आस-पास कोई पक्की सड़क नहीं बनी है। मुख्य सड़क से हमारे घरों तक हम कच्ची और कीचड़ भरी सड़क से ही आते-जाते हैं।”
धनराज आगे बताते हैं– “हमारी बस्ती के अंदर की सभी गलियां भी कच्ची हैं। बरसात के मौसम में हालात ऐसे होते हैं कि जब हम चलते हैं तब पैर कीचड़ में धंस जाते हैं। ऐसे में कभी व्यक्ति अकेला तो कभी समान के साथ कीचड़ में फंस कर गिर जाता है। सड़क आदि अन्य सुविधाओं की मांग हमने शासन-प्रशासन और नेताओं से भी की है। मगर, कोई हल नहीं निकला है।”
इसी बस्ती की निवासी मधु कहती हैं कि “पठार पर बसाहट और कच्ची सड़क में जमा कीचड़ की वजह से बीमारी की स्थिति में एंबुलेंस नहीं पहुंच पाता। गर्भवती महिलाओं और गंभीर मरीजों को गोद में या खटिया पर लिटाकर मुख्य सड़क तक ले जाना पड़ता है, जहां तक एंबुलेंस की पहुंच है।”
वहीं पान बाई नामक एक महिला बताती हैं, “मेरी सास की उम्र काफी हो गई है। अब वह बीमार रहती हैं। उन्हें जब इलाज के लिए अस्पताल ले जाते हैं, तब उन्हें खटिया पर लादकर मुख्य सड़क तक ले जाना पड़ता है।” पान बाई आगे कहती हैं, “यहां आंगनबाड़ी तक नहीं हैं। ऐसे में महिलाओं को टीकाकरण और जांच के लिए दूर की आंगनबाड़ी जाना पड़ता है। यदि, यहां सड़क और अस्पताल, आंगनबाड़ी होती तब हमारी कई परेशानियां कम हो जातीं।”
सुदामा नामक एक महिला अपना दुखड़ा बयां करती हैं कि “हमें झोपड़पट्टी में सरकार की राशन, बिजली, स्वास्थ्य, पानी, सड़क; जैसी कई योजनाओं का लाभ नहीं मिल रहा है। हमें लाडली बहना योजना तक का पैसा नहीं मिला।”
जल संकट के बारे में सुदामा बयां करती हैं कि “पीने के और नहाने-धोने के पानी की समस्या बहुत विकट है। पानी के लिए ही हमें दो किलोमीटर से ज्यादा दूर जाना पड़ता है। इतनी दूर से पानी लाने में हम पसीना-पसीना हो जाते है। जब हम पानी लेकर पठार की चढ़ाई करते हैं, तब हमें लगता है कि हमारी कमर टूट जाएगी। वर्षों से हम अपने सिर पर पानी ढोकर लाते रहे हैं। हमारी पानी की तकलीफ कम होने के बजाय और बढ़ती जा रही है।”
सुदामा दर्द भरे लहजे में कहती हैं, “झोपड़ी होने के बावजूद हमें पीएम आवास नहीं मिला। कुल मिलाकर झोपड़ियों में रहने वाले 8-10 लोगों के ही पीएम आवास का पैसा मिला है। इनमें कई लोगों के आवास अधूरे रह गए हैं, क्योंकि पीएम आवास योजना की शेष किस्तें उन्हें नहीं मिलीं।”
पीएम आवास योजना के क्रियान्वयन के बारे में इसी बस्ती की चंदा बाई कहती हैं कि “बड़ी मुश्किलों में हम जी रहे हैं। जैसे-तैसे मेरा पीएम आवास आया है। मगर, कुटी (पीएम आवास योजना के तहत बनाया जानेवाला घर) अधबनी पड़ी हुई है। कई महीने गुजर गए, लेकिन अभी तक कुटी की शेष किस्त नहीं आई। मेरे जैसे कई और लोगों की हालत भी ऐसी ही है।”
चंदा बाई के शब्द खत्म नहीं होते हैं और बीच में शांति बाई बोलने लगती हैं कि “बड़ी मुश्किल से हमें पीएम आवास का लाभ मिला। मगर कुटी अधबनी पड़ी है। पिछले 5-6 महीने से योजना की किस्त नहीं आई। हमें समझ नहीं आ रहा कि किस्त आएगी भी या नहीं आएगी।”
शांति बाई आगे जिक्र करती हैं कि “हमारी बदहाली देखने के लिए कोई नहीं आता। बस केवल जब चुनाव होता है, तब नेताओं को हमारी और हमारे वोट की याद आ जाती है। वोट मांगने जब नेता आते हैं, तब बिजली, पानी, सड़क, आवास; जैसी कई सुविधाएं मुहैया करवाने के नाम पर वोट मांगते हैं। मगर, सुविधाओं को लेकर नेताओं के बयान आश्वासन बन कर रह जाते हैं।”
इसके आगे चंदा बाई फिर बोल पड़ती हैं कि “हम झोपड़पट्टी वालों के 100 से अधिक बच्चे हैं। मगर, हमारे यहां स्कूल नहीं हैं। ऐसे में गिने-चुने बच्चे ही स्कूल जा पाते हैं। बाकी बच्चे स्कूल का मुंह नहीं देख पा रहे हैं।”
करीब 17 वर्षीय शिवा नोना कहते हैं कि “पढ़ाई से मेरा कोई वास्ता नहीं रहा। इसकी वजह यह है कि यहां स्कूल नहीं था। मैं अभी बेरोजगार हूं। मेरी चाहत है कि कोई रोजगार मिले, ताकि परिवार की मुश्किलों को थोड़ा आसान कर सकूं।”
इसी बस्ती में तीजा झोपड़ी में रहती हैं। पूछने पर कहती हैं कि वह पीएम आवास के लिए भी पात्र हैं। पर उन्हें पूरा या अधूरा पीएम आवास नहीं मिला।
तीजा को अपने बच्चों के भविष्य की चिंता है। वह कहती हैं कि “मेरे छोटे-छोटे दो बच्चे हैं, जिन्हें हम पढ़ाना-लिखाना चाहते हैं। मगर यहां स्कूल नहीं है। आस-पास स्कूल होता, तब हम बच्चों को पढ़ा भी देते। मगर, स्कूल बहुत दूर है। छोटे-छोटे बच्चों को दूर के स्कूल हम भेज नहीं सकते।”
इसी बस्ती की लक्ष्मी कहतीं हैं कि “यहां बिजली न होने की वजह से रात में अंधेरा रहता है। अंधेरे में सर्प, कीड़ा-मकोड़ा काटने का डर बना रहता है। कीचड़ की वजह से मच्छर बहुत ज्यादा है। दिन-रात हमारे सिर पर मच्छर भी भिनभिनाता रहता है। मच्छर काटने से सबसे ज्यादा परेशानी हमारे बच्चों को होती है। वह सो नहीं पाते।”
हरिसिंह बताते हैं कि “हमारे यहां नालियां नहीं बनवाई गई हैं। ऐसे में बरसात का पानी हमारी झुग्गियों में घुस जाता है। पानी से भरी झुग्गियां सोने, उठने-बैठने लायक नहीं रह जाती हैं। नालियां नहीं होने से बरसात का जो गंदा पानी घरों में भरता है, उससे बहुत मच्छर पैदा होते हैं।”
बस्ती में रोजगार की उपलब्धता के बारे में मनीषा कहती हैं कि “हमें कभी-कभी बेलदारी (दिहाड़ी) का काम मिल जाता है। इसी से हम परिवार का भरण-पोषण करते हैं। मन तो खूब करता है कि झोपड़ी की बजाय पक्का घर बन गया होता। मगर, वक्त हमें सालों से झोपड़ी वाले ही दिन दिखा रहा है।”
मनीषा कहती हैं कि “हमारी कई परेशानियों में से एक बड़ी परेशानी शौचालय की भी है। यहां स्वच्छता मिशन के तहत शौचालय नहीं बनवाये गए हैं। इस स्थिति में हम दूर और खुले में शौच करने जाते हैं। हम सोचते हैं कि यदि हमारे घर बन गए होते; सड़क, बिजली, पानी, शौचालय जैसी सुविधाएं हमारे पास होती, तब हम अपने बच्चों को ढंग से पढ़ा-लिखा पाते, जिससे उनका अच्छा भविष्य बनता। मगर, सालों से हमारी जिंदगी बुनियादी सुविधाओं में उलझ कर रह गई है।”
बस्ती की एक झोपड़ी में अनिता रहती हैं। वह आदिवासी समुदाय की हैं। उन्हें कई दिनों से बुखार है। वह कहतीं हैं कि “मेरी झोपड़ी की दीवारें कच्ची हैं। ये दरक रही हैं। झोपड़ी पर पॉलिथीन की शीट डाल रखी है। मगर, यह ठहरती नहीं है। कुछ दिनों में ही तेज हवा के कारण पॉलिथीन की शीट फट जाती है। बारिश का मौसम शुरू ही हुआ है कि हमारी झोपड़ी की शीट कई बार फट चुकी है। झोपड़ी पर और कितने साल पॉलिथीन की शीट डालनी पड़ेगी, समझ नहीं आ रहा।”
अनीता आगे कहती हैं कि “सरकार से कोई ऐसा लाभ नहीं मिला, जिससे हमें लगे कि हमारा विकास हो रहा है। हमें लाडली बहना और उज्ज्वला गैस जैसी छोटी योजनाओं तक का लाभ नहीं मिला।”
अनीता की झोपड़ी के पास ही रामजी आदिवासी की झुग्गी है। बारिश के पानी झुग्गी में रामजी का सब सामान तितर-बितर कर दिया है। उन्हें व्यवस्थित करते हुए रामजी कहते हैं कि “इंसान बहुत कुछ बदल सकता है। अपनी जिंदगी के हालात भी। बशर्ते उसे अच्छा काम मिले। रोजगार मिले। सरकार हमें कुछ न दे, तब कोई परेशानी नहीं। बस केवल ऐसा रोजगार दिला दे, जिससे हम सम्मानपूर्वक जिंदगी जी सकें। वास्तव में ढंग का रोजगार ही हमारी आत्मनिर्भरता का आधार है।”
सौजन्य: फॉरवर्ड प्रेस
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