भारतीय जेलों में क्या जाति के आधार पर भेदभाव होता है?
सुप्रीम कोर्ट में एक पत्रकार ने याचिका दायर कहा कि कई राज्यों में जेलों में जातिगत भेदभाव को बढ़ावा दिया जा रहा है। इस मामले की सुनवाई करते हुए बुधवार को चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की बेंच ने कहा- जेलों में जाति आधारित भेदभाव खत्म होना चाहिए।
इस मामले की सुनवाई में सीजेआई के अलावा जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा भी शामिल हैं। बेंच ने कहा कि जमीनी स्तर पर जो कुछ भी होता है उसे बदलने की जरूरत है। क्योंकि राज्यों द्वारा ऐसी प्रथाओं में शामिल न होने के निर्देशों का हमेशा पालन नहीं किया जाता है। सीजेआई ने टिप्पणी की, “जमीनी हकीकत को बदलना होगा। हम अपने फैसले में (लोगों को) जिम्मेदार ठहराएंगे।” हालांकि इस मामले में अदालत ने फैसला फिलहाल सुरक्षित रख लिया है.
सुप्रीम अदालत ने जनवरी में इस मामले में केंद्र सरकार और 11 राज्यों को नोटिस जारी किया था। बेंच ने उठाए गए मुद्दे की गंभीरता को स्वीकार किया था, और सॉलिसिटर जनरल (एसजी) तुषार मेहता को इसमें मदद करने के लिए बुलाया था।
पत्रकार सुकन्या शांता की याचिका में कहा गया था कि जेल की बैरक में जाति-आधारित भेदभाव शारीरिक श्रम तक में किया जाता है। इससे विमुक्त जनजातियों और आदतन अपराधियों के रूप में वर्गीकृत लोग जेल में प्रभावित होते है। याचिका में उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, पंजाब, ओडिशा, झारखंड, केरल, तमिलनाडु और महाराष्ट्र के जेल मैनुअल में पाए गए भेदभावपूर्ण प्रावधानों को निरस्त करने की मांग की गई है।
वरिष्ठ वकील डॉ. एस मुरलीधर और वकील प्रसन्ना एस और दिशा वाडेकर याचिकाकर्ता की ओर से पेश हुए। अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल ऐश्वर्या भाटी ने भी मामले में अदालत की मदद की।
केंद्र के नोटिस पर सिर्फ केंद्र सरकार, चार अन्य राज्यों – झारखंड, ओडिशा, तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश ने अपनी प्रतिक्रिया दाखिल की। हालाँकि, अधिकांश राज्यों ने या तो जाति-आधारित भेदभाव से इनकार किया है या भेदभावपूर्ण प्रथाओं को उचित ठहराया है। 26 फरवरी को, गृह मंत्रालय ने राज्यों को एक सलाह जारी की और उन्हें इन प्रथाओं को दूर करने का निर्देश दिया। अपनी सलाह में, गृह मंत्रालय ने सभी राज्यों को मॉडल जेल मैनुअल, 2016 का अनुपालन करने का भी निर्देश दिया था। हालाँकि, केंद्र सरकार ने मॉडल जेल मैनुअल में कई मुद्दों को नजरअंदाज कर दिया, जिसे याचिका में विस्तार से बताया गया है। कोर्ट ने बुधवार की सुनवाई में जेल मैनुअल की खामियों पर भी गौर किया।
हालाँकि मॉडल जेल मैनुअल स्पष्ट रूप से जाति के आधार पर श्रम को प्रतिबंधित करता है। लेकिन यह विमुक्त जनजातियों और खानाबदोश समुदायों के सदस्यों के अन्य भेदभावपूर्ण वर्गीकरणों पर चुप है जो अधिकांश राज्यों में प्रचलित हैं। इसी तरह, मॉडल जेल मैनुअल में सूखे या अस्वच्छ शौचालयों के इस्तेमाल और मैनुअल स्केवेंजर्स (हाथ से मानव मल उठाना) के बारे में कुछ भी नहीं कहा गया है। मैनुअल स्कैवेंजर्स तो पुनर्वास अधिनियम, 2013 के तहत अब प्रतिबंधित भी है।
जमाम दलीलों के बाद सुप्रीम कोर्ट ने तमाम राज्यों से कहा कि उन्हें 13 जुलाई तक इस मामले में अपनी बात कहने का आखिरी मौका दिया जा रहा है। इस संबंध में यूपी जैसे राज्य ने तो साफ मना कर दिया कि उसके यहां जेलों में जाति आधारित कोई भेदभाव होता है। बहरहाल, फिलहाल इस मामले में फैसला सुरक्षित है और जिसके 13 जुलाई के बाद ही आने की उम्मीद है।
सौजन्य :सत्या
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