दलित राजनीति क्या एक नए लोकतांत्रिक अध्याय की ओर बढ़ेगी ?
लाल बहादुर सिंह
हाथरस में जो भयानक हादसा हुआ है उसमे मरने वाले अधिसंख्य लोग जाटव समाज के गरीब बताए जा रहे हैं। यह कितनी बड़ी त्रासदी है कि जिस व्यक्ति पूजा, अंधविश्वास, पाखंड का डॉ. अंबेडकर ने घोर विरोध किया था, आज समाज और दलित समुदाय के अभागे लोग बदतरीन किस्म की व्यक्तिपूजा का शिकार होकर जान से हाथ धोने को अभिशप्त है। मोदी राज में पूरे समाज में अंधविश्वास पाखंड का बोलबाला बढ़ा है। उसे सचेत ढंग से प्रोत्साहित किया गया है। हाथरस गवाह है की दलित समाज के अंदर भी अंबेडकरवादी, प्रगतिशील सांस्कृतिक वैचारिकी के ध्वंस का सचेत प्रयास चल है। यहां तक कि कबीर और संत रविदास की वैचारिकी को भी धूमिल किया जा रहा है।
दरअसल दलित समाज आज गहरी उथल पुथल के दौर से गुजर रहा है। इसकी हाल के चुनाव में राजनीतिक अभिव्यक्ति भी हुई। लोकसभा चुनाव में यूपी मे गैर-जाटव दलित मतों में, जिसका बड़ा हिस्सा पहले बसपा को मिलता था, इस बार 56% इंडिया को, 29% NDA को तथा मात्र 15% बसपा को मिला है। वहीं जाटव समाज में इण्डिया गठबन्धन को 25%, NDA को 24% तथा बसपा को 44% वोट मिला है। साफ है कि जाटव समाज के बड़े हिस्से ने अभी बसपा को नहीं छोड़ा है, शायद उन्हें अभी बहन जी के फिर ताकत बन कर उठ खड़े होने की उम्मीद शेष है।
जाहिर है बसपा को भविष्य के लिए खारिज करना भारी भूल होगी। गलत राजनीतिक दिशा के कारण अकेले लड़ते हुए ध्रुवीकृत चुनाव में वह कोई सीट जीतने में भले नाकाम रही, इसके बावजूद अभी भी उसे प्रदेश में 9% वोट मिले है। इसमें बड़ा हिस्सा उनके कोर सामाजिक आधार जाटव समाज का वोट है। यह वोट अभी भी किसी दल के साथ जुड़ जाए तो प्रदेश की राजनीति में भारी उलटफेर कर सकता है। बहरहाल सब कुछ मायावती जी समेत तमाम किरदारों की भविष्य की राजनीतिक दिशा पर निर्भर है।
उधर नगीना आरक्षित सीट से चंद्रशेखर आजाद की जीत ने बड़ा धमाका किया है। बताया जा रहा है कि सोशल मीडिया पर उनके लोकसभा में भाषण के सबसे अधिक व्यूज हुए हैं। ( लगभग 60 लाख )। क्या दलित राजनीति में पैदा हो रहे रिक्त स्थान को भरने में चंद्रशेखर आजाद सफल होंगे? इसमें कोई शक नहीं कि आरक्षित नगीना सीट पर द्विध्रुवीय लड़ाई में न सिर्फ भाजपा सपा को हराने में बल्कि बसपा की पुरानी सीट छीनने में भी वे सफल रहे।
जाहिर है उनकी पराजय सुनिश्चित करने के लिए मायावती जी ने कुछ भी उठा नहीं रखा। उनके उत्तराधिकारी आकाश आनंद ने वहीं से अपने चुनाव अभियान की शुरुआत किया था। लेकिन आजाद के 5 लाख से ऊपर मत की तुलना में बसपा के सुरेंद्र पाल को मात्र 13 हजार मतों से संतोष करना पड़ा। (भाजपा को साढ़े 3लाख और सपा को 1 लाख मत हासिल हुआ।) जाहिर है बसपा के तकरीबन सारे वोट और सपा का भी बड़ा वोट, विशेषकर मुस्लिम वोट हड़पने में वे कामयाब रहे। भाजपा बेशक अपने जनाधार को बचाए रखने में सफल दिखती है। आजाद ने विधानसभा उपचुनावों में सभी जगह प्रत्याशी उतारने का एलान किया है। क्या वे नगीना के पैटर्न पर बसपा ही नहीं इंडिया को भी नुकसान पहुंचाएंगे?
क्या यह भाजपा के लिए फायदे का सौदा होने जा रहा है। पिछले दिनों उन्हें मिली वाई श्रेणी की सुरक्षा पर बहुतों का माथा ठनका और लोगों को आश्चर्य हुआ है और उनके अनेक प्रशंसक निराश हैं। उनके समर्थक कहते हैं कि उनके ऊपर गोली चली थे और जान का खतरा है। बहरहाल गृहमंत्री अमित शाह के मंत्रालय/दरबार से आमतौर पर ऐसे लोगों को ही उपकृत किया जाता है जिन्हे भाजपा अपने हित में इस्तेमाल करती है। उनके ठीक पूर्व राज्यसभा चुनाव में भाजपा के पक्ष में मतदान करने वाले मनोज पांडेय तथा अभय सिंह को ये सुरक्षा मिली थी।
जाहिर है इसे लोग चंद्रशेखर आजाद की संभावनामय राजनीति के विचलन के रूप में देख रहे हैं। आखिर वे इंडिया में क्यों नहीं शामिल हो रहे। दलित मुस्लिम एकता के नारे के साथ वे बसपा के विपरीत एक आंदोलनकारी ब्रांड की राजनीति करते हैं। आज सवाल यही है की क्या वे लंबी रेस के घोड़े साबित होंगे या अठावले जैसों की तरह अवसरवाद की अंधी गली में गुम हो जायेंगे और उनकी राजनीति का अवसान हो जायेगा। इसका जवाब भविष्य के गर्भ में है। लेकिन यह तय है कि अगर वे एकला चलो की रह लेते हैं तो वस्तुगत रूप से भाजपा को लाभ होगा, उनकी मंशा चाहे जो हो।
यह संतोष का विषय है कि लोकसभा में अभिभाषण पर उन्होंने विपक्षी लाइन पर वक्तव्य दिया। लेकिन यह पर्याप्त नहीं है।अगर सचमुच दलितों के हितों के लिए प्रतिबद्ध हैं, तो उन्हें भाजपा विरोधी खेमेबंदी का हिस्सा बनना होगा, वर्ना ऑब्जेक्टिवली भाजपा की मदद में इस्तेमाल हो जाने के लिए अभिशप्त है, मंशा चाहे जो हो। दरअसल चंद्रशेखर की वैचारिकी कांशीराम से आगे नहीं जाती जबकि अब उसकी सीमाएं सामने आ चुकी हैं- भाजपा से समझौता उसी का हिस्सा था। जबकि आज भाजपा के खिलाफ एकताबद्ध प्रतिरोध दलित हितों की लड़ाई और संविधान रक्षा की अनिवार्य शर्त बन चुका है, क्या आजाद इसके लिए अपने को प्रतिबद्ध करेंगे।
यह भी विचारणीय विषय है की एक ही वैचारिक आधार और कार्यक्रम पर दो पार्टियों- BSP और ASP का लंबे समय तक अलग-अलग अस्तित्व नहीं रह सकता। क्या आने वाले दिनों में दलित भाजपा के विरुद्ध कांग्रेस और विपक्ष की ओर शिफ्ट करते जायेंगे? क्या दलित पहचान की राजनीति को खारिज करके लोकतांत्रिक राजनीति के एक नए अध्याय की ओर बढ़ेंगे?
सौजन्य: जन चौक
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