पहली बारिश भी नहीं झेल पातीं आज की इमारतें, कैसे अंग्रेजों के जमाने के पुल आज भी हैं दुरुस्त?
अंग्रेजों के जमाने के पुल आज भी यथावत हैं. इस पर रोजाना सैकड़ों ट्रेनें गुजरती हैं और इसके नीचे की सड़क पर हजारों वाहन पर इसे कुछ नहीं होता. उस जमाने के तमाम पुल और इमारतें आज भी शान से सिर ऊंचा किए हुए खड़े हैं, उस जमाने में इमारतें वर्षों चलती थीं, लेकिन आज की नई बनी इमारतें पहली बारिश नहीं झेल पातीं. आखिर क्यों?
शंभूनाथ शुक्ल
यह कोई जवाब नहीं हुआ कि इंदिरा गांधी इंटरनेशनल एयरपोर्ट (IGI) में टर्मिनल- 1 का जो हिस्सा गिरा उसका उद्घाटन प्रधानमंत्री ने नहीं किया था, जिसका उद्घाटन हुआ, वह तो सही सलामत है. नागरिक उड्डयन मंत्री राम मोहन नायडू ने कांग्रेस नेता मल्लिकार्जुन खड्गे के हमले के जवाब में यह बात कही है. किंजरापू राम मोहन नायडू भारत सरकार के नागरिक उड्डयन मंत्री हैं इसलिए उन्हें एयरपोर्ट हादसे की जिम्मेदारी लेनी चाहिए. इस टर्मिनल का उद्घाटन कब और किसके कार्यकाल में हुआ आदि बातें गौण हैं. दिल्ली की पहली ही मानसूनी बारिश में एयरपोर्ट का शेड ढह गया. इस हादसे में एक व्यक्ति की मौत हो गई और सात घायल हो गए. इसमें कोई शक नहीं कि 28 जून की तड़के से शुरू हुई बारिश जबरदस्त थी पर इतनी भी नहीं कि अंतरराष्ट्रीय स्तर के एयरपोर्ट में ऐसा भीषण हादसा हो जाए.
इमारतों के भीतर का पोलापन!
इस मानसून की बारिश ने सारी नई बनी इमारतों की पोल खोल दी. अयोध्या में निर्माणाधीन राम मंदिर की छत टपकी. अंतरराष्ट्रीय स्तर के अयोध्या रेलवे स्टेशन पर पानी भर गया. 27 जून को जबलपुर में डुमना एयरपोर्ट की छत गिर गई. यह एयरपोर्ट 450 करोड़ की लागत से बना था. आखिर इन इमारतों के गिरने की वजह क्या रही? क्या सिर्फ इतनी कि चुनाव के चक्कर में ये इमारतें हड़बड़ी में बनाई गईं या सरकारी अफसरों ने इमारतों के बनने के बाद इनका निरीक्षण नहीं किया? दो वर्ष पहले जब उत्तर प्रदेश सरकार ने आनन-फानन में बुंदेलखंड एक्सप्रेस का उद्घाटन किया तो वह उद्घाटन के साथ ही टूटने लगी थी. पिछले वर्ष जून की 24 तारीख को उरई के आगे सड़क का यह हाल था, कि खुद मेरी कार फंस गई और उसे निकालने के लिए गांव के लोगों को बुलाना पड़ा. तब पता चला कि डेड लाइन के चक्कर में सड़क की गुणवत्ता चेक ही नहीं की गई थी.
IGI एयरपोर्ट के टर्मिनल-1 पर हादसा
बिहार में 10 दिन के भीतर 5 पुल ढहे
सबसे खराब स्थिति तो बिहार की है, जहां 10 दिन के भीतर पांच पुल भरभरा कर गिर पड़े. अभी 28 जून को भुताही नदी पर बन रहे पुल की शटरिंग ढह गई. इस पर दो दिन पहले लोहे के गर्डर की ढलाई हुई थी. शुक्र रहा कि इस हादसे में किसी की जान नहीं गई. यह हादसा मधुबनी जिले के झंझारपुर में हुआ. इसके पहले किशन गंज, अररिया, पूर्वी चंपारण और सीवन में पुल गिर चुके हैं. तेजस्वी यादव ने इन पुल हादसों के लिए नीतीश सरकार पर हमला किया है. सबसे पहले 18 जून को अररिया जिले के सिकटी में बकरा नदी पर बना पुल गिरा. शुक्र है कि यह पुल अभी आम लोगों के लिए खोला नहीं गया था. इसके बाद 22 जून को सिवान ज़िले के महराज गंज में गंडक नहर का पुल धंसा. 23 जून को पूर्वी चंपारण में एक निर्माणाधीन पुल गिरा. चार दिन बाद 27 जून को किशन गंज में 13 वर्ष पुराना मारिया नदी का पुल धंस गया.
बिहार में पुल गिरा
दिल्ली के पुराने पुल से सीखते
आखिर क्यों आज की नयी बनी इमारतें पहली बारिश को ही नहीं झेल पातीं. जबकि अंग्रेजों के जमाने के रेलवे पुल आज भी यथावत हैं. दिल्ली में यमुना पर बना पुराना लोहे वाला रेलवे पुल 1875 में निर्मित हुआ था. यह अपनी 100 वर्ष की मियाद 50 वर्ष पहले पूरी कर चुका है. किंतु आज भी इस पर रोजाना सैकड़ों ट्रेनें गुजरती हैं और इसके नीचे की सड़क पर हजारों वाहन. और अकेले यही पुल नहीं कानपुर, कालपी, इलाहाबाद (अब प्रयागराज), मिर्ज़ापुर आदि तमाम पुल अंग्रेजों के समय बने थे. जौनपुर में गोमती नदी पर बना शाही पुल तो अकबर के समय का बताया जाता है. हर साल बारिश में पानी इसके ऊपर से बहने लगता है. पुल यातायात के लिए रोक दिया जाता है. मगर बारिश खत्म होते ही पुल फिर से चालू हो जाता है. उस जमाने के तमाम पुल और इमारतें आज भी शान से सिर ऊंचा किए हुए खड़े हैं.
सबसे अधिक जरूरी है मॉनिटरिंग
दिल्ली में आईएसबीटी (ISBT) समेत कई ओवर ब्रिज के निर्माण में सहायक बने सिविल इंजीनियर विवेक श्रीवास्तव इसके तीन प्रमुख कारण बताते हैं. उनके मुताबिक़ किसी भी इमारत के निर्माण में सबसे ज़रूरी चीज़ है, उसकी डिजाइन प्रॉसेस. कोई भी इमारत इसी के बूते बनती है. इसके बाद उसके निर्माण के दौरान उसका पूरा निरीक्षण करते रहना. उसकी टेक्निकल मॉनिटरिंग बहुत आवश्यक है. जब एयर पोर्ट की यह इमारत बन रही थी, तब उसका एयर प्रेशर चेक किया गया अथवा नहीं? बारिश के लिए यह इमारत कितनी पुख्ता रहेगी, इसका निरीक्षण आदि. जब इन चीजों की अनदेखी होती है, तब ही इमारत कोई भी तूफान, भारी बारिश या प्राकृतिक आपदा नहीं झेल पाएगी. हालांकि IGI एयरपोर्ट के बाबत उनका कहना है, चूंकि यह इमारत 2009 में बनी थी, इसलिए विंड प्रेशर तो ठीक ही रहा होगा लेकिन बनने के बाद इसकी प्रॉपर मॉनिटरिंग नहीं हुई होगी.
मजदूरों के भरोसे निरीक्षण!
दिल्ली और जबलपुर के एयरपोर्ट हादसे के संदर्भ में विवेक का यह भी कहना है कि आजकल किसी भी इमारत के निर्माण में जल्दबाज़ी भी बहुत की जाती है. एक समय सीमा दे दी गई और कह दिया गया कि अमुक तारीख को उद्घाटन होना है. इस दबाव में इंजीनियर उस इमारत के सारे तकनीकी पहलुओं की जांच नहीं कर पाते. मसलन निर्माणाधीन इमारत की छत की जांच करने कोई भी इंजीनियर नहीं जाता. आमतौर पर यह काम किसी मजदूर या वेल्डर से करवा लिया जाता है. फिर काउंटर चेक भी नहीं होता. मजे की बात कि फीता काटने के बाद राजनेता भी उस इमारत की चिंता नहीं करते. नतीजा यह होता है, कि इमारत पहली ही वर्षा झेल नहीं पाती. जबलपुर के डुमना एयरपोर्ट हादसे की अगर सटीक जांच हो तो ऐसी कई खामियां पता चल जाएंगी.
ड्रेनेज सिस्टम की अनदेखी
जहां तक अयोध्या के रेलवे स्टेशन पर जल भराव की बात है वहां भी ऐसी ही खामियां दीखती हैं. विवेक श्रीवास्तव का कहना है कि जब यह बिल्डिंग बन रही थी, तब क्या ड्रेनेज सिस्टम को चेक किया गया? निश्चित तौर पर नहीं. आज जो शहर बन रहे हैं, उनकी जल निकासी कहां होगी, इसे कभी नहीं जांचा जाता. पुराने जमाने में जब शहर बसते थे तब सबसे अधिक जोर उनकी जल निकासी पर होता था. तमाम नालियों से होता हुआ पानी नदियों में बह जाता. पर अब नदियों के किनारे इतनी गाद-मिट्टी जमा हो गई है कि ये नाले या नालियां जहां खुलते हैं, वह स्थान ऊंचा हो गया है. नतीजा यह होता है कि इन नालियों का पानी उलटा बहने लगता है और शहर डूब जाते हैं. वे पूछते हैं कि अयोध्या इतने वर्षों से बसी हुई है पर न कभी अयोध्या कस्बा डूबा न वहां का स्टेशन. सरयू का पानी भी वहां से संकुचित हो कर निकल जाता. जबकि इसी सरयू का पाट गुप्तार घाट में इतना विस्तृत है कि उस पार की जमीन तक बरसात में नहीं दीखती.
दिल्ली में बारिश से बुरा हाल
Fly Ash के खतरे
पर्यावरणविद जीडी अग्रवाल के साथ काम कर चुके गुंजन मिश्र कहते हैं कि अंग्रेजों के समय या उनके भी पहले जो पुल या इमारतें बनतीं उनमें चूना पत्थर का इस्तेमाल होता था. चूना पत्थर से जोड़ मजबूत होता. बाद में इसी चूना पत्थर से सीमेंट बननी शुरू हुई. 1990 के दशक तो सीमेंट कंपनियां ईमानदारी से काम करती रहीं. इसके बाद सीमेंट में मिलावट शुरू हुई. इसके अतिरिक्त इस लाइम स्टोन के परिपक्व (मेच्योर) होने के पहले ही इस स्टोन को पीसा जाने लगा. नतीजा यह हुआ कि इनकी पकड़ कमजोर होती गई. साथ ही धीरे-धीरे इस सीमेंट में थर्मल पावर प्लांट की राख (FLY ASH) को मिलाने लगे. देखने में यह सीमेंट जैसी होती है किंतु फ्लाई ऐश है तो राख ही. उससे भला मजबूती कहां से आएगी. मेंटिनेंस, मिक्सिंग और क्वेरिंग इन तीन बातों पर पूरी नजर रखनी चाहिए. लेकिन चुनावी चक्कर में इन बातों की अनदेखी की जाती है. परिणाम सामने है. एक जमाने में इमारतें वर्षों चलती थीं, आज की इमारतें पहली बारिश नहीं झेल पातीं.
प्रगति मैदान का अंडर पास में रिसाव
यह अकेले इमारतों का ही मसला नहीं है. दिल्ली में प्रगति मैदान अंडर पास 2022 में बना था और पहली ही बारिश में इसमें जल भराव और रिसाव दोनों शुरू हो गए. इस अंडर पास की डिजाइनिंग की इतनी अधिक अनदेखी की गई कि सोमवार से शनिवार तक इस अंडर पास पर जाम लगा ही रहता है. इसकी मुख्य वजह है कि इसकी एंट्री तो फोर लेन की है और एग्जिट टू लेन की. जाम तो लगेगा ही. जाम के कारण यहां ऑक्सीजन का लेबल भी घटने लगता है. कभी भी कोई बड़ा हादसा हो सकता है. दिल्ली जब मुग़लों के समय बसी थी तब इसकी जल आपूर्ति और निकासी के लिए कई मुहाने थे. खिड़की एक्सटेंशन का पांच पूला और तुगलकाबाद का बारा पूला नाले इसके उदाहरण हैं. आज इन नालों पर इतनी गाद भर गई है कि नाले उलटा बहने लगते हैं. इसी के कारण दिल्ली में बारिश आफत ला दे देती है. अभी डेढ़ हफ्ते पहले जो दिल्ली वाले ‘रामा मेघ दे’ ‘अल्ला मेघ दे’ चिल्ला रहे थे वही आज बारिश को कोस रहे हैं.
सौजन्य: टीवी9 भारतवर्ष
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