एससी-एसटी के सदस्य को झूठे सबूतों के कारण हुई फांसी, तो केस करने वाला भी लटकेगा; सुप्रीम कोर्ट कर रहा विचार
सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के एक प्रावधान की वैधता की जांच करने पर सहमति जताई। इस प्रावधान के तहत उस व्यक्ति के लिए मौत की सजा है, जिसके झूठे साक्ष्य की वजह से SC या ST समुदाय के किसी निर्दोष सदस्य को दोषी ठहराया गया और फांसी दी गई। न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति केवी विश्वनाथन की पीठ इस प्रावधान को चुनौती देने वाली एक सुनवाई कर रही थी, जिसका इस्तेमाल शायद ही कभी किया जाता हो।
बचन सिंह मामले में 9 मई, 1980 को सुप्रीम कोर्ट की पांच न्यायाधीशों वाली पीठ ने फैसला सुनाया था कि अदालतें केवल ‘दुर्लभतम’ हत्या के मामलों में दोषी पाए गए व्यक्तियों को ही मृत्युदंड दे सकती हैं,जिसमें अत्यधिक क्रूरता शामिल हो। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि हत्या के दोषी व्यक्तियों के लिए आजीवन कारावास नियम है और मृत्युदंड अपवाद है। केवल दुर्लभतम मामलों में ही मृत्युदंड का प्रावधान है।
याचिकाकर्ता ने न्यायमूर्ति कांत और न्यायमूर्ति विश्वनाथन की पीठ को बताया कि एससी/एसटी अधिनियम की धारा 3(2) (I) में प्रावधान है कि यदि एससी या एसटी समुदाय के किसी निर्दोष सदस्य को ‘ऐसे झूठे या मनगढ़ंत साक्ष्य के परिणामस्वरूप दोषी ठहराया जाता है और उसे फांसी दी जाती है, तो ऐसे झूठे साक्ष्य देने या गढ़ने वाले व्यक्ति को मौत की सजा दी जाएगी। अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणी ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि वह सरकार से परामर्श करेंगे। सुप्रीम कोर्ट ने मामले की सुनवाई जुलाई के लिए टाल दी।
इससे पहले की सुनवाई में पीठ ने कहा था कि क्या कोई एक भी उदाहरण है जहां दोषसिद्धि हुई है। वकील ने जवाब दिया कि उनके पास इससे जुड़ा डेटा नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि यह प्रावधान सजा की मात्रा के मामले में न्यायिक विवेक को छीन लेता है। इसके बाद पीठ ने वेंकटरमणी से जानकारी जुटाने और इस मुद्दे पर एक संक्षिप्त नोट प्रस्तुत करने को कहा था।
सौजन्य :राईट न्यूज़ इंडिया
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