आरएसएस-बीजेपी के बैकग्राउंड से निकला वो नेता जो पीएम मोदी को चुनावी मैदान में दे रहा है चुनौती

अजय राय की पहचान उत्तर प्रदेश के वैसे राजनेता की है, जिसने हर दल का दामन थामा, चुनाव भी जीते और एक दल से दूसरे दल में जिनकी आवाजाही होती रही है|
अजय राय इन दिनों उत्तर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष भी हैं और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ वाराणसी से कांग्रेस के उम्मीदवार भी. इन दोनों भूमिकाओं में वे कितने कामयाब होते हैं, ये चुनावी नतीजों से तय होगा| लेकिन इतना तय है कि कांग्रेस ने उन्हें उत्तर प्रदेश का अध्यक्ष बनाकर उनकी राजनीतिक हैसियत काफ़ी बढ़ा दी. ये पद उन्हें कुछ ही महीने पहले तब मिला, जब राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के बाद विपक्षी दलों ने कांग्रेस की अगुवाई में बीजेपी के ख़िलाफ़ एक प्लेटफ़ॉर्म तैयार किया और उसका नाम ‘इंडिया’ रखा था|हालांकि उत्तर प्रदेश की राजनीति में कई लोग यह पूछते हैं कि आख़िर अजय राय को कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य का अध्यक्ष क्यों बनाया?
वरिष्ठ पत्रकार ज्ञानेंद्र शुक्ला इस सवाल का जवाब देने की कोशिश करते हैं. उनके अनुसार, ‘यूपी में अपनी खोई हुई सियासी ज़मीन पाने के लिए कांग्रेस लगातार प्रयोग करती रही है. इसी कड़ी में कांग्रेस को यूपी में प्रदेश अध्यक्ष के लिए एक ऐसे चेहरे की दरकार थी जो जुझारू हो और जनता से कांग्रेस को जोड़ सके.’
पीएम मोदी के ख़िलाफ़
शुक्ला कहते हैं, “अजय राय की अपनी ख़ुद की एक अलग हैसियत है, एक अलग व्यक्तित्व है. उनकी छवि एक ताक़तवर और अक्रामक नेता की है. जो राहुल गांधी की मौजूदा उग्र कार्य शैली में ज़्यादा सटीक बैठते हैं. ऐसे में कांग्रेसी रणनीतिकारों को लगा कि ऐसा चेहरा उनके लिए मुफ़ीद होगा.”
ज्ञानेंद्र शुक्ला के अनुसार, ‘कांग्रेस ने इस बात की भी परवाह नहीं की कि अजय राय के ख़िलाफ़ 16 मुक़दमे दर्ज हैं और वो हिंदुत्व की प्रयोगशाला से निकले हुए हैं. उनका बैकग्राउंड संघ, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, बीजेपी का रहा है.’
वे कहते हैं, “अजय राय ने पीएम मोदी के ख़िलाफ़ दो बार चुनाव लड़ने का साहस दिखाया इसलिए कांग्रेस को वो सारे गुण अजय राय में नज़र आए जो मौजूदा वक़्त में उन्हें प्रदेश अध्यक्ष की कमान संभालने वाले शख़्स में चाहिए थे.”
कांग्रेस और सपा इस बार उत्तर प्रदेश में मिलकर चुनाव लड़ रहे हैं. कांग्रेस को 17 सीटें मिली हैं जो कुछ विश्लेषकों की राय में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की मौजूदा राजनीतिक शक्ति की तुलना में कहीं ज़्यादा है| ऐसे में यह सवाल उठना लाज़िमी है कि आख़िर कांग्रेस 17 सीटें पाने में कैसे कामयाब हो गई?
कांग्रेस-सपा गठबंधन
कुछ राजनीतिक विश्लेषक इसका श्रेय यूपी कांग्रेस अध्यक्ष अजय राय को देते हैं. हालांकि यह कहना मुश्किल है कि सीटों की बातचीत को लेकर किसकी क्या भूमिका रही होगी.
वरिष्ठ पत्रकार ज्ञानेंद्र शुक्ला कहते हैं कि ‘कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद कई मौक़ों पर अजय राय ने अखिलेश यादव पर निशाना साधा. उनके ख़िलाफ़ जब वो बयान दे रहे थे तो ऐसे बिगड़े बोल उस वक़्त कांग्रेसी ख़ेमे को भी भा रहे थे, क्योंकि मध्य प्रदेश में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के दरम्यान तल्ख़ी आ गई थी.’
ज्ञानेंद्र शुक्ला के अनुसार, यह कांग्रेस की पुरानी प्रेशर बिल्डअप तकनीक है. राज्य स्तर पर नेता को लड़ाते और ज़रूरत पड़ने पर शांत करा देते हैं. यहाँ भी यही हुआ| वो कहते हैं, “कांग्रेस के आलाकमान ने इन बयानों का संज्ञान लिया. अखिलेश यादव से बातचीत करने के बाद अजय राय को दिल्ली बुलाकर उन्हें समझाया गया.”
कांग्रेस ने पूर्वांचल में दबंग छवि वाले इन्हीं अजय राय को पिछली बार की तरह नरेन्द्र मोदी के ख़िलाफ़ अपना प्रत्याशी घोषित किया है|अजय राय का क़द पिछले कुछ महीनों में बढ़ा है लेकिन पीएम मोदी के ख़िलाफ़ बनारस में वोट बटोरना आसान नहीं है|
पिछले दो लोकसभा चुनावों में तीसरे नंबर पर
बीते दो लोकसभा चुनावों में अजय राय मोदी के ख़िलाफ़ दूसरे नंबर पर भी नहीं पहुंच पाए थे. साल 2014 के लोकसभा चुनावों की बात करें तो अजय राय तीसरे नंबर पर रहे थे|तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पहली बार यहां चुनाव लड़ने आए थे, उन्हें पांच लाख 81 हज़ार से ज़्यादा वोट मिले थे, जबकि आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल ने दो लाख से ज़्यादा वोट हासिल किया था. अजय राय को 75 हज़ार के क़रीब वोट मिले थे|
साल 2019 में अजय राय ने अपने वोट तो बढ़ाए लेकिन तीसरे नंबर से आगे नहीं बढ़ सके. इस बार उन्हें एक लाख 52 हज़ार 548 वोट मिले थे. जबकि नरेंद्र मोदी छह लाख 75 हज़ार के करीब वोट हासिल करने में कामयाब हुए थे.
साल 2019 के वोटों के आधार पर आकलन किया जाए तो अजय राय बनारस में ऐसे प्रत्याशी हैं जिन्हें उनकी बिरादरी यानि की भूमिहार वोटों का भी भरपूर लाभ मिलता है. यह उसी का परिणाम था कि 2009 में कोलअसला विधानसभा उपचुनाव में उन्हें निर्दलयी जीत हासिल हुई थी.
कांग्रेसियों में नाराज़गी
साल 2024 में पिछले वोटों के समीकरण को देखा जाए तो इस बार हालात थोड़े बदल सकते हैं. इस बार यूपी में सपा और कांग्रेस एक साथ हैं. इन दोनों के पिछले बार के वोट प्रतिशत को अगर मिला लिया जाए तो यह 32.8 प्रतिशत होता है|जबकि वहीं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को वोट प्रतिशत अकेले 63.6 है, पर इसमें भी एक पेच है. पिछली बार सपा और बसपा एक साथ लड़े थे, लेकिन इस बार बसपा इस गठबंधन से दूर है|
कांग्रेस के साथ एक दूसरी मुश्किल ये भी है कि अजय राय को जब उत्तर प्रदेश का अध्यक्ष बनाया गया तो पुराने दिग्गज कांग्रेसियों में नाराज़गी बढ़ी|चुनाव से ठीक पहले बनारस से सांसद रहे राजेश मिश्रा कांग्रेस का दामन छोड़ कर बीजेपी में शामिल हो गए.
राजेश मिश्रा का कहना है कि, “अजय राय अपनी ज़मानत भी नहीं बचा पाएंगे. जीत-हार की बात तो दूर की है. वो यहां से लड़ना ही नहीं चाहते थे. आप सब लोग जानते हैं अजय राय ग़ाज़ीपुर या बलिया से टिकट मांग रहे थे, लेकिन कांग्रेस के पास बनारस के लिए कोई नेता ही नहीं है.”
‘काशी का लाल हूँ, काशी मेरे लिए लड़ेगी’
दैनिक जागरण, वाराणसी के संपादक और वरिष्ठ पत्रकार भारतीय बंसत का कहना है, “अजय राय मज़बूती से चुनाव लड़ेंगे और कांग्रेस की उपस्थिति दर्ज कराएंगे. लेकिन मोदी की जीत पर कहीं कोई संदेह नहीं है. हां जीत-हार के अंतर पर बात की जा सकती है.”
हो सकता है कि अजय राय का वोट प्रतिशत थोड़ा बढ़ जाए क्योंकि वो जुझारू व्यक्ति हैं और इस बार सपा के साथ कांग्रेस का गठबंधन भी है.
बनारस के राजनैतिक परिदृश्य पर गंभीरता से नज़र रखने वाले डीएवी डिग्री कालेज के पूर्व प्रिंसिपल डॉ सत्यदेव सिंह कहते हैं कि बीजेपी, ख़ासकर मोदी की बीजेपी अब कोई सामान्य पार्टी नहीं रही.
“हर चुनाव में वो राष्ट्रीय से लेकर लोकल मुद्दों को वोट के आधार पर केन्द्रित करती है. नरेंद्र मोदी को सिर्फ़ चुनाव नहीं जीतना है बल्कि उन्हें जीत का रिकॉर्ड भी बढ़ाना है. विश्वनाथ कॉरिडोर, अयोध्या के साथ ज्ञानवापी भी एक बड़ा मुद्दा है.”
इसीलिए बनारस में मोदी समर्थकों ने ‘मोदी निर्विरोध’ के होर्डिंग भी लगा दिए हैं|अजय राय के आने से मोदी समर्थकों का यह सपना पूरा नहीं होता दिख रहा है. अजय राय पिछले 30 सालों में 10 से अधिक चुनाव लड़ चुके हैं.
अजय राय को कांग्रेस की मजबूरी माना जा रहा है क्योंकि पार्टी के पास मोदी के ख़िलाफ़ कोई ऐसा प्रत्याशी नहीं है जो ख़ुद को अजय राय से बेहतर साबित कर सके.
वाराणसी संसदीय क्षेत्र से उम्मीदवारी घोषित होने के बाद अजय राय ने बीबीसी को बताया, “मैं इसी बनारस की पैदाइश हूँ, माँ गंगा की गोद में जन्मा हूँ, माँ गंगा की गोद में ही समा जाऊंगा. कांग्रेस के संगठन में सारी ज़िम्मेदारियां बँटी हुई हैं, ऐसे में ये सिर्फ़ मेरे ऊपर ही नहीं, बल्कि सबके ऊपर है और सभी लोग अपनी ज़िम्मेदारियों को निभाने के लिए प्रतिबद्ध हैं.”
भाई की हत्या के बाद शुरू हुआ राजनैतिक सफ़र
नब्बे के दशक में उत्तर प्रदेश का पूर्वांचल, गैंगवार के लिए जाना जाता था. जिसका केन्द्र-बिंदु बनारस था.
गोरखपुर में हरिशंकर तिवारी और वीरेन्द्र प्रताप शाही हो या फिर ग़ाज़ीपुर बनारस में नया-नया पनप रहा मुख़्तार अंसारी और बृजेश सिंह गैंग.
अजय राय के बड़े भाई अवधेश राय.. बृजेश सिंह और कृष्णानंद राय के साथ थे. ये लोग मुख़्तार अंसारी के ख़िलाफ़ थे.
साल 1991 में वाराणसी के चेतगंज में दिनदहाड़े अवधेश राय की हत्या कर दी गयी. इसका आरोप मुख़्तार अंसारी गैंग पर लगा था.
32 साल लंबी क़ानूनी लड़ाई के बाद जून, 2023 में मुख़्तार अंसारी को इस मामले में उम्रकै़द की सज़ा मिली थी. इस लंबी लड़ाई के चलते भी अजय राय सुर्ख़ियों में रहे.
लेकिन बड़े भाई की हत्या के बाद छोटे भाई अजय राय पर परिवार की ज़िम्मेदारियों के साथ बड़े भाई के प्रभाव और दुश्मनियों का बोझ भी आ गया. गैंगवार चरम पर था. ऐसे में अजय राय ने राजनैतिक संरक्षण के लिए एबीवीपी से होते हुए बीजेपी में एंट्री ले ली.
इस बीच अलग-अलग मामलों में बनारस से लेकर लखनऊ तक अलग-अलग थानों में उनके ख़िलाफ़ 16 मुक़दमे दर्ज हुए.
साल 2015 में अखिलेश यादव की सरकार के समय गंगा में मूर्ति विसर्जन पर रोक के आदेश के विरोध में प्रदर्शन करने पर इन पर रासुका (राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून) लगाकर इन्हें जेल भेज दिया गया, महीनों तक ये जेल में रहे.
नौ बार के विधायक को हराया
अजय राय के राजनैतिक सफ़र की औपचारिक और मज़बूत शुरुआत 1996 में हुई.
तब उन्होंने पहली बार कोलअसला से चुनाव लड़ा और नौ बार के विधायक कॉमरेड उदल को हराने में कामयाब रहे.
कोलअसला को उदल का अभेद्य क़िला कहा जाता था. पर अजय राय ने कोलअसला में उदल के क़िले को ज़मींदोज़ कर दिया.
जीत का अंतर 488 वोटों का था, लेकिन इस जीत ने अजय को कोलअसला का हीरो बना दिया.
यहां से अजय राय तीन बार 1996 से 2007 तक बीजेपी के विधायक रहे. 2003 में बीजेपी और बसपा की गठबंधन सरकार में ये सहकारिता राज्य मंत्री भी बने.
टिकट नहीं मिला तो छोड़ दी बीजेपी
साल 2007 में विधानसभा की जीत के बाद अजय राय की महत्वाकांक्षा परवान चढ़ी और ये दिल्ली की ओर देखने लगे. ये कहीं से ग़ैरवाजिब भी नहीं था, क्योंकि बनारस से लगातार तीन बार बीजेपी के सांसद रहे शंकर प्रसाद जायसवाल 2004 में चुनाव हार गये थे.
वाराणसी सीट पर कांग्रेस के राजेश मिश्रा ने जीत दर्ज की. लिहाज़ा 2009 में अजय राय ने वाराणसी संसदीय सीट पर अपनी दावेदारी मज़बूती से ठोकी.
लेकिन पार्टी ने अपने क़द्दावर नेता मुरली मनोहर जोशी को यहां से टिकट दे दिया. बीजेपी के निर्णय का विरोध करते हुए अजय ने समाजवादी पार्टी से हाथ मिलाया और चुनावी रिंग में आ गए. इस चुनाव में बीएसपी के मुख्तार अंसारी ने एंट्री मारकर चुनाव को त्रिकोणीय बना दिया. जोशी की जीत हुई और उन्हें मुख़्तार अंसारी ने कड़ी टक्कर दी. अजय राय तीसरे नंबर पर रहे.
पार्टी छोड़ देने के कारण अजय राय की सदस्यता चली गयी लिहाज़ा 2009 में ही निर्दलीय चुनाव लड़े और जीते भी. इसके बाद 2012 में उन्होंने कांग्रेस का हाथ थामा और विधानसभा चुनाव जीता. तब कोलअसला विधानसभा का नाम परिसीमन के बाद पिंडरा हो चुका था. लगातार पांच बार विधानसभा जीत का ये क्रम 2014 के बाद थम गया.
फिर शुरू हुआ हार का सिलसिला
अजय राय ने 2014 में मोदी के ख़िलाफ़ कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ा और मुंह की खायी.
यही नहीं, नौ बार के विधायक उदल से छीनी हुई पिंडरा विधानसभा सीट पर अजय राय 2017 में हार गए.
फिर 2019 के लोकसभा चुनाव में वाराणसी सीट पर नरेन्द्र मोदी से हार गए.
साल 2022 विधानसभा चुनाव में उनकी परंपरागत पिंडरा सीट से भी मतदाताओं ने उन्हें बेदख़ल कर दिया और बीजेपी के अवधेश सिंह लगातार दूसरी बार विधायक बने.
अब देखना ये है कि 2024 में नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ किस रणनीति के तहत अजय राय अपना और कांग्रेस का वोट बढ़ाएंगे.
सौजन्य : इ टीवी भारत
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