मध्य प्रदेश में दलितों की शिकायत: ‘मंदिरों में प्रवेश करने से रोका जा रहा है’- ग्राउंड रिपोर्ट
लगभग 150 घरों की बस्ती है ये. फिर एक ग्रामीण ने कहा, “हमें मंदिर में जाने नहीं देते हैं. हमारे घर पुजारी भी नहीं आता है. हम भगवान के दर्शन बाहर से ही करके आ जाते हैं. हमारे साथ शुरू से ही ये भेद-भाव चल रहा है. यही बताना चाहते हैं.”भेदभाव की वजह चांदबढ़ गाँव के दलित ये सीहोर ज़िला मुख्यालय से 70 किलोमीटर की दूसरी पर है|
जैसे-जैसे हम बस्ती के अन्दर की तरफ़ बढ़ने लगे, हमें महिलाओं का एक समूह नज़र आया जो भजन गाकर अपने आराध्य इष्ट देव को याद कर रहीं थी. कच्चे पक्के घरों के बाहर के दालान में छोटे छोटे समूहों में लोग जमा हैं.
इन्हीं के बीच रेशम बाई भी बैठी हुईं थीं. इतने लोगों को अपनी तरफ़ आते देख महिलाओं ने घूंघट की आड़ लेनी शुरू कर दी. ज़ाहिर हैं, गाँव की अपनी परम्परा है. ये घूंघट सिर्फ़ गाँव के लोगों के सामने लेती हैं जो इनके रिश्तेदार हैं या पड़ोसी.
एक-एक कर महिलाएं अपने मकान दिखाती हैं और कहती हैं कि भेदभाव की वजह से ही उन्हें प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत पट्टे भी आवंटित नहीं किए जा रहे हैं.
यहां की रहने वाली लीला बाई कहती हैं कि उनके घरों की ऐसी दुर्दशा हो गयी है कि अब गाँव में उनके बच्चों के लिए रिश्ते भी आने बंद हो गए हैं. उनका आरोप है कि उनकी बस्ती के लोगों के साथ हर क़दम पर भेद-भाव किया जा रहा है.
कैसे मिट रहा मध्य प्रदेश का गांव जहाँ हमारे पूर्वजों ने कभी की थी खेती की शुरुआत इसी गाँव की रेशम बाई कहती हैं कि उन्होंने व्रत रखा था जिसकी समाप्ति पर उन्हें अपने यहाँ पूजा करनी थी. लेकिन वो कहती हैं कि मंदिर के पुजारी ने उनके यहां आने से मना कर दिया| रेशम बाई ने बताया, “गाँव के एक मात्र राम मंदिर में नहीं जाने देते हैं हमें. हमें सीढ़ी तक नहीं चढ़ने देते मंदिर की. अंदर नहीं जाने देते हैं. जब हमारी बस्ती में शादी ब्याह होता है तो रस्म अदाइगी के लिए मंदिर में नारियल लेकर जाना पड़ता है.”
“मंदिर में पूजा होती है तो हम हल्दी और चावल को बाहर ही छिड़क कर चले आते हैं. और नारियल वहाँ दूसरे लड़के को देते हैं जो उनकी जाति के होते हैं. वो अंदर जाकर नारियल चढ़ाते हैं और हम बस बाहर से ही हाथ जोड़कर वापस आ जाते हैं| इस दलित बस्ती के लोगों का आरोप है कि उन लोगों ने कई बार इस मामले को दूसरे समाज के लोगों के सामने भी उठाया है. पंचायत में भी उठाया है और सरपंच के सामने भी उठाया है. लेकिन अभी तक कोई रास्ता नहीं निकल पाया है|
उनके दावे के मुताबिक गाँव के श्मशान में भी दलितों के लिए शव जलाने की अलग व्यवस्था की हुई है|
‘हमारा तो कोई मंदिर है ही नहीं…’
बलदेव सिंह जांगड़ा इसी बस्ती में पैदा हुए और अब उनके बच्चे भी बड़े हो रहे हैं. वो कहते हैं कि होश संभालने के बाद से ही उन्होंने ‘इस भेदभाव’ का सामना किया है और ‘अब भी’ कर रहे हैं.
अपने घर के चबूतरे पर बैठ कर बीबीसी से बातचीत के दौरान वो कहते हैं, “हमारा तो कोई मंदिर है ही नहीं. कभी नहीं रहा. उनका (दूसरे समाज) का ही मंदिर है. मंदिर जाते हैं कभी-कभी अगर काम पड़ता है तो. लेकिन बाहर से ही दर्शन कर के वापस आ जाते हैं. अंदर तो जाना मना है हमें. अन्दर जाते ही नहीं हैं. ये जातीय भेदभाव है. अंदर जाने ही नहीं देते हैं.”
एक घटना की चर्चा करते हुए वो कहते हैं कि उनकी बस्ती का एक व्यक्ति मंदिर में चल रही कथा सुनने के लिए वहां चला गया था. वो कहते हैं, “वो प्रसाद लेने के लिए गया था और सीढ़ी चढ़ कर अंदर चला गया था. तो दूसरे समाज के एक भैया ने बाहर निकाल दिया. उन्होंने कहा कि आप यहां अंदर नहीं आओगे. बाहर से ही प्रसाद लिया करो.”
इस बस्ती के बाहर, बिकुल सड़क के किनारे एक ‘हैंड पम्प’ है जहाँ से बस्ती की महिलाएं पानी भर कर ला रही हैं. बस्ती के लोग बताते हैं कि पानी के लिए ये ‘हैंड पम्प’ ही एक मात्र सहारा है क्योंकि उनका आरोप है कि जो पानी का ‘कनेक्शन’ गाँव में आया है, उससे उनकी बस्ती को पानी नहीं मिलता है.
‘समाज के लिए अलग मंदिर’
मदनलाल बताते हैं कि पानी का ‘कनेक्शन’ देने के नाम पर उनसे पैसे भी लिए गए. मगर उनका आरोप है कि गाँव की जो पानी की टंकी है, उससे उनकी बस्ती को पानी नहीं मिलता है. उनका आरोप है कि ये भी ‘भेदभाव की वजह’ से ही है.
उनका कहना था, “ना पानी मिलता है. न ज़मीन का पट्टा मिलता है. न मंदिर जा सकते हैं. पूजा पाठ करते हैं तो पंडित नहीं मिलता है. पंडित आते ही नहीं हैं हम लोगों के घर पर. दलित के यहाँ. अछूत मानते हैं ना हमें वो. भेदभाव रखते हैं. जाति का भेदभाव कि यह चमार है, वो बलई है, वो धोबी है. यह भंगी है, यह बसोड़ है… ऐसा भेदभाव है…”
ये बात सिर्फ़ खेरी गाँव की नहीं है| चांदबढ़ के लोग बताते हैं कि सीहोर जिले के ग्रामीण अंचलों में दलित परिवारों को अपनी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में भेदभाव का सामना करना पड़ता है| चांदबढ़, सीहोर ज़िला मुख्यालय से लगा हुआ इलाका है जहाँ दलितों की अच्छी ख़ासी आबादी है|यहाँ के लोगों का आरोप है कि भेदभाव की वजह से ही अब उन्होंने अपने समाज के लिए अलग मंदिर बना लिया है ताकि उन्हें कोई मंदिर जाने से ना रोके|
राम मंदिर के प्राण प्रतिष्ठा समारोह के बाद
बसंत कुमार मालवीय अपने समाज में काफ़ी सक्रिय हैं. उन्होंने ही दलितों को मंदिर बनाने के लिए ज़मीन उपलब्ध कराई है| आख़िर अलग मंदिर बनाने की नौबत क्यूँ कर आई? यह सवाल मैंने उनसे किया तो उनका कहना था कि ‘ये नौबत इसलिए आई’ क्योंकि उनके समाज के लोगों को ‘मंदिर में जाने नहीं दिया जाता’ है|वो कहते हैं कि 22 जनवरी को अयोध्या में श्री राम मंदिर के प्राण प्रतिष्ठा समारोह के बाद सब जगहों और ख़ास तौर पर मंदिरों में भंडारे लगाए गए. उनका आरोप है कि उनके समाज के लोग जब भंडारे में गए तो उन लोगों को अलग दूसरी जगह पर बैठाकर खिलाया गया. वो ये भी कहते हैं कि उनके समाज से स्थानीय मंदिर के लिए चन्दा भी नहीं लिया जाता है.
बसंत कुमार मालवीय कहते हैं, “वोट के समय कहते हैं कि अपन भाई-भाई ही तो हैं. अपन बहन-बहन ही तो हैं. चुनाव आया तो बोलते हैं तू भाई है हमारा…आ जा… बिलकुल आलती पालती मार कर हमारे घर में ही बैठ जाएगा वो नेता. मगर जब चुनाव ख़त्म हो जाते हैं तो गाली देते हैं और बोलते हैं कि दलित हो, दूर रहो. नीचे बैठो. ऊपर कैसे चढ़ गए…?”
‘ऑब्जेक्शन’ उठाया जाता है…
रतनलाल अहिरवाल चाँदबढ़ के दलितों के इस मंदिर की देख भाल करते हैं. उनका आरोप है कि उनके लोगों को इस मंदिर में निर्माण का ‘कोई नया काम’ करने नहीं दिया जाता है और उस पर ‘ऑब्जेक्शन’ उठाया जाता है. वो कहते हैं कई सालों के बाद भी उनके मंदिर की ज़मीन का पट्टा नहीं दिया है सरकार ने.
सीहोर के ज़िला प्रशासन पर आरोप है कि वो समाज में भेदभाव की बात को अनदेखा करता रहा है. लेकिन मार्च की 19 तारीख़ को समाहरणालय यानी कलेक्टरेट में तब अफ़रा तफ़री मच गयी जब मुस्करा गाँव की महिलाओं ने वहाँ पहुँच कर हंगामा किया| इन महिलाओं का आरोप था कि उन्हें सार्वजनिक नल से पानी नहीं लेने दिया जा रहा है. इस शिकायत को उन्होंने एक ज्ञापन के रूप में ज़िला अधिकारी को भी सौंपा. इस ज्ञापन में उन्होंने अपने साथ हो रहे भेदभाव का आरोप भी लगाया.
हंगामे के बाद जब स्थानीय पत्रकार मुस्करा पहुंचे तो ग्रामीणों का कहना था कि “उनके समाज के लोगों को सार्वजनिक नल से पानी भरने नहीं दिया जाता है.”
वहां मौजूद मुस्करा गाँव की एक महिला ने कैमरे पर जो कहा वो कुछ इस तरह है, “इस गाँव में हमारे समाज के 60 से 70 घर हैं… दलितों के. दूसरे समाज के लोग पानी नहीं भरने देते हैं हमें. ऐसा बोलते हैं कि पानी नहीं है तो कहीं से भी ले कर आओ और हरिजन मोहल्ले से छुआ-छूत ज़्यादा ही करते हैं| लेकिन सीहोर के ज़िला अधिकारी प्रवीण सिंह मुस्करा गाँव की घटना को ‘भेदभाव’ की घटना नहीं मानते हैं. हालांकि वो कहते हैं कि आरोपों की जांच की जा रही है लेकिन इसमें ‘छुआ-छूत जैसी कोई बात नहीं’ है|
ज़िला अधिकारी का कहना था कि मुस्करा गाँव की ‘कुछ महिलाएं’ कलेक्टरेट आयी थीं और उन्होंने ‘जॉइंट कलेक्टर’ को ज्ञापन भी दिया था जिसमे गाँव में पानी की समस्या की बात कही गयी थी| वो बताते हैं, “वहां जाकर गाँव में चेक भी करवाया. पानी को लेकर कुछ ‘इश्यूज’ सामने आए. गाँव में नौ बोर हैं जिसमे से सात को अब ठीक करा दिया गया है. 7 बोर काम करने लगे हैं अब. उसमें दलित अत्याचार, छूआ-छूत या ऐसा कोई मामला वहाँ पर नहीं मिला है.”
खेरी और चांदबढ़ की चर्चा करने पर ज़िला अधिकारी का कहना था कि उन्हें “इसकी जानकारी मीडिया से ही मिली है.”
उन्होंने बताया कि वो इन दोनों जगहों पर अधिकारियों की टीम भेज रहे हैं. उनका कहना था, “टीम भेज रहा हूँ और आवश्यक जो भी होगा. उस टीम की जांच की रिपोर्ट से जो निष्कर्ष निकला या जो बातें सामने आयेंगी, उसके आधार पर कार्रवाई की जाएगी.”
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की कोशिश
समाज के इस भेदभाव को ख़त्म करने का प्रयास अपनी स्थापना के पहले दिन से कर रहा है|संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले के मुताबिक हाल ही में नागपुर में आयोजित संघ के अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा में इसको लेकर सघन चर्चा की गई.
बीबीसी के एक सवाल के जवाब में उन्होंने नागपुर में पत्रकार सम्मेलन के दौरान कहा था कि संघ अपनी स्थापना के पहले दिन से ही हिन्दू समाज के अंदर फैले ऊंच-नीच, छुआ-छूत जैसी बातों को लेकर गंभीर है और उसे ठीक करने की दिशा में काम कर रहा है|
उन्होंने कहा, “हिन्दू समाज में क्या होता है कि मंदिर में प्रवेश नहीं मिलता है. तालाब या कुओं से पानी लेने में परेशानियां होती हैं. श्मशान को लेकर भी मंदिर में प्रवेश को लेकर भी बातें सामने आती हैं कि समाज के एक तबक़े को घुसने नहीं दिया जाता है. ये दुर्भाग्य से कुछ छोटे स्थानों पर ही होता है यानी गावों में ज़्यादा है. नगरीय क्षेत्र में ये कम दिखता है या लगभग नहीं के बराबर है. लेकिन सच है कि दुर्भाग्य से ये प्रथा आज भी है. तो इसको दूर करने के हम प्रयास कर रहे हैं.”
खेरी और मुस्करा गाँव विदिशा लोक सभा के क्षेत्र में आते हैं जिसका प्रतिनिधित्व अटल बिहारी वाजपेयी, सुषमा स्वराज और शिवराज सिंह चौहान कर चुके हैं.
सीहोर ज़िला मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की राजनीतिक कर्म भूमि भी है. अब सवाल उठता है कि इस क्षेत्र से बड़े नामों के जुड़े होने के बावजूद यहाँ समाज में फैली असमानता अब तक क्यों नहीं दूर हो सकी है|
सौजन्य :बीबीसी
नोट: यह समाचार मूल रूप से.bbc.com में प्रकाशित हुआ है|और इसका उपयोग पूरी तरह से गैर-लाभकारी/गैर-व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए विशेष रूप से मानव अधिकार के लिए किया गया था।