सुप्रीम कोर्ट की प्रमुख टिप्पणियां: ‘चुनावी बॉन्ड मतदाताओं के सूचना के अधिकार का उल्लंघन हैं’
सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी बॉन्ड योजना को असंवैधानिक बताने वाले अपने फैसले में और भी कई महत्वपूर्ण टिप्पणी कीं, जिनमें से एक में कहा गया कि राजनीतिक फंडिंग के बारे में जानकारी एक मतदाता को यह आकलन करने में सक्षम बनाएगी कि क्या नीति निर्धारण और वित्तीय योगदान के बीच कोई संबंध है|
नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार (15 फरवरी) को चुनावी बॉन्ड योजना को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर अपना फैसला सुनाया और इसे अनुच्छेद 19(1)(ए) का उल्लंघन और असंवैधानिक करार दिया था.
भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) डीवाई चंद्रचूड़ के साथ-साथ जस्टिस संजीव खन्ना, बीआर गवई, जेबी पारदीवाला और मनोज मिश्रा की पीठ ने योजना को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर दो अलग-अलग लेकिन सर्वसम्मत फैसले दिए. पांच न्यायाधीशों की इस पीठ ने 2 नवंबर 2023 को अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था|
यह योजना 2018 की शुरुआत में नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा लाई गई थी. इसके माध्यम से भारत में कंपनियां और व्यक्ति राजनीतिक दलों को गुमनाम दान दे सकते थे. व्यवस्था के तहत व्यक्ति या संस्थाएं भारतीय स्टेट बैंक से चुनावी बॉन्ड खरीद सकते थे और उन्हें अपनी पसंद के राजनीतिक दल को दे सकते थे|
योजना के प्रावधानों के अनुसार, केवल वे राजनीतिक दल जो लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम-1951 की धारा 29ए के तहत पंजीकृत हों और जिन्होंने पिछले लोकसभा और राज्य विधानसभा चुनावों में मतदान का कम से कम एक फीसदी वोट हासिल किया हो, चुनावी बॉन्ड प्राप्त करने के पात्र थे|
हाल ही में 2 जनवरी से 11 जनवरी 2024 तक चली चुनावी बॉन्ड बिक्री के नवीनतम चरण में 570 करोड़ रुपये से अधिक के बॉन्ड बेचे गए थे. इस संबंध में द वायर ने पारदर्शिता कार्यकर्ता कमोडोर लोकेश बत्रा द्वारा सूचना के अधिकार (आरटीआई) से प्राप्त जानकारी के हवाले से एक रिपोर्ट भी की थी|
चुनावी बॉन्ड को लेकर शीर्ष अदालत के फैसले में कुछ प्रमुख कथन इस प्रकार हैं:
लाइव लॉ की एक रिपोर्ट के अनुसार, सीजेआई ने कहा, ‘चुनावी बॉन्ड योजना और विवादित प्रावधान चुनावी बॉन्ड के माध्यम से योगदान को अज्ञात बनाकर मतदाता के सूचना के अधिकार का उल्लंघन करते हैं, जो अनुच्छेद 19(1)(ए) का उल्लंघन है.’
‘पैसे और राजनीति के बीच गहरे संबंध के कारण आर्थिक असमानता राजनीतिक पेशे के विभिन्न स्तरों का नेतृत्व करती है. प्राथमिक स्तर पर वित्तीय राजनीतिक योगदान योगदानकर्ता को ‘प्रमुख स्थान’ दिलाते हैं. यानी उसकी पहुंच कानून निर्माताओं तक हो जाती है. यह पहुंच नीति निर्माण पर प्रभाव डालती है. एक आर्थिक रूप से संपन्न व्यक्ति के पास राजनीतिक दलों को वित्तीय योगदान देने की अधिक क्षमता होती है और इस बात की वैध संभावना है कि किसी राजनीतिक दल को वित्तीय योगदान देने से धन और राजनीति के बीच घनिष्ठ संबंध के कारण विनिमय (लेने के बदले देना) व्यवस्था बन जाएगी.’
‘राजनीतिक फंडिंग के बारे में जानकारी एक मतदाता को यह आकलन करने में सक्षम बनाएगी कि क्या नीति निर्धारण और वित्तीय योगदान के बीच कोई संबंध है.’
‘राजनीतिक योगदान के माध्यम से चुनावी प्रक्रिया को प्रभावित करने की किसी कंपनी की क्षमता किसी व्यक्ति की तुलना में बहुत अधिक होती है. एक कंपनी का राजनीतिक प्रक्रिया पर बहुत अधिक प्रभाव होता है- राजनीतिक दलों को दिए गए धन की मात्रा और इस तरह के योगदान देने के उद्देश्य दोनों के संदर्भ में. व्यक्तियों द्वारा दिए गए योगदान समर्थन देने या राजनीतिक संगठन से संबद्धता की श्रेणी के होते हैं. हालांकि, कंपनियों के योगदान पूरी तरह से व्यावसायिक लेन-देन होते हैं, जो बदले में लाभ हासिल करने के इरादे से किए जाते है.’
‘धारा 182 का उद्देश्य चुनावी वित्तपोषण में भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाना है. उदाहरण के लिए, किसी सरकारी कंपनी को योगदान देने से प्रतिबंधित करने का उद्देश्य ऐसी कंपनियों को राजनीतिक दलों को योगदान देकर राजनीतिक मैदान में उतरने से रोकना है. असीमित कॉरपोरेट योगदान (शेल कंपनियों समेत) की अनुमति देकर धारा 182 में संशोधन चुनावी प्रक्रिया पर कंपनियों के अनियंत्रित प्रभाव को अधिकृत करता है. यह स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के सिद्धांत और ‘एक व्यक्ति एक वोट’ मूल्य में निहित राजनीतिक समानता का उल्लंघन है|
सौजन्य :द वायर
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