एससी-एसटी वर्गों के भीतर पिछड़ेपन के प्रभाव में भिन्नता मौजूद है
सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने बुधवार को 7 फरवरी को एससी-एसटी वर्ग को मिलने वाले आरक्षण के भीतर उसके उप वर्गीकरण की वैधता पर दूसरे दिन सुनवाई की है। सुप्रीम कोर्ट की यह पीठ इस बात पर सुनवाई कर रही है कि एससी -एसटी वर्ग को दिये जाने वाले आरक्षण को क्या विभिन्न उप वर्गों या सब कैटेगरी में बांटा जा सकता है या नहीं।
सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट इस कानूनी सवाल की भी समीक्षा कर रहा है कि क्या राज्य सरकार को सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में आरक्षण देने के लिए एससी -एसटी वर्ग के अंदर भी उप-वर्गीकरण करने का अधिकार है?
7 जजों की यह संविधान पीठ पंजाब अनुसूचित जाति और पिछड़ा वर्ग (सेवाओं में आरक्षण) अधिनियम, 2006 की वैधता पर भी सुनवाई कर रही है। इस कानून के तहत पंजाब में एससी यानी अनुसूचित जातियों के लिए सरकारी नौकरियों में तय आरक्षण में मजहबी सिखों और वाल्मीकि समुदायों को 50 प्रतिशत आरक्षण और प्रथम वरीयता दी जाती है।
दूसरे दिन 7 फरवरी को हुई इस सुनवाई में इस संविधान पीठ ने कहा है कि एससी-एसटी अपनी आर्थिक, शैक्षणिक और सामाजिक स्थिति के मामले में एक समान नहीं हो सकते हैं। वे एक निश्चित मकसद के लिए तो एक वर्ग हो सकते हैं लेकिन सभी मकसद के लिए एक वर्ग नहीं हो सकते हैं।
लॉ से जुड़े खबरें देने वाली वेबसाइट लाइव लॉ के मुताबिक दूसरे दिन की हुई इस सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने वर्ग की एकरूपता की धारणा पर विचार-विमर्श किया और “अनुसूचित जाति” वरिष्ठ के रूप में नामित समुदायों के मामले में संविधान के अनुच्छेद 341 का क्या मतलब है, इस दलीलों को सुना। दलीलों को सुनने के बाद पीठ ने भी माना है कि एससी-एसटी वर्गों के भीतर पिछड़ेपन के प्रभाव में भिन्नता मौजूद है।
याचिकाकर्ता की ओर से पेश वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने तर्क दिया कि चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश राज्य के फैसले में दो प्रमुख गलतियां थीं, जिसमें कहा गया था कि एससी-एसटी श्रेणियों के भीतर उपवर्गीकरण की अनुमति नहीं है। पहला तो इसने एससी के भीतर अंतर्निहित विविधता को नजरअंदाज कर बिना किसी तथ्यात्मक डेटा के एससी को एक समरूप समूह माना। दूसरे, इसने राष्ट्रपति के आदेश को आरक्षण प्रदान करने के सीमित उद्देश्य से जोड़ा।
उनकी इस दलील पर सीजेआई ने कहा कि “वास्तव में, सभी प्रविष्टियों की समरूप प्रकृति पदनाम के प्रयोजनों के लिए है। वे इस अर्थ में सजातीय हैं कि उनमें से प्रत्येक एक अनुसूचित जाति है, लेकिन आपका तर्क यह है कि समाजशास्त्रीय प्रोफ़ाइल, आर्थिक विकास आदि के संदर्भ में भी कोई एकरूपता नहीं है।
वहीं जस्टिस बीआर गवई ने कहा कि हालांकि ऐसे सभी समुदाय पिछड़ेपन की सामान्य छतरी के नीचे आते हैं, लेकिन वर्गों के भीतर पिछड़ेपन के प्रभाव में भिन्नता मौजूद है। उन्होंने कहा, “सामान्य कारक सामाजिक और आर्थिक पिछड़ापन है लेकिन इसकी डिग्री एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में भिन्न हो सकती है।
कपिल सिब्बल ने कहा कि कैसे अनुच्छेद 341 के उद्देश्य का आरक्षण से कोई लेना-देना नहीं है। यह अनुच्छेद 16(4) है जिसके अंतर्गत संसद की प्रारंभिक शक्तियां अंतर्निहित हैं।
इस पर सीजेआई ने कहा कि, हालांकि अनुच्छेद 341 आरक्षण के लिए एक पूर्व शर्त है, लेकिन यह अपने आप में आरक्षण के कार्यान्वयन के लिए पर्याप्त नहीं है। यह जरूरी है लेकिन पर्याप्त शर्त नहीं, 341 के तहत पदनाम आरक्षण के लिए जरूरी शर्त है लेकिन यह अपने आप में पर्याप्त नहीं है।
अपनी दलीलें देते हुए कपिल सिब्बल ने कहा कि अनुसूचित जातियों के भीतर विविधता मौजूद है। उन्होंने कहा कि अनुसूचित जाति की श्रेणी के भीतर विविध समूहों की व्यापकता और उनके विभिन्न संघर्षों और भेदभाव की स्थिति पर जोर देते हुए, सिब्बल ने बताया कि व्यावसायिक मतभेदों के कारण पिछड़े वर्ग के भीतर उपवर्गों का निर्माण हुआ।
इस पर सीजेआई ने कहा कि यह विविधता शायद संसाधनों, अवसरों या इसकी कमी सहित कई कारकों की भिन्नता का परिणाम है।
सिब्बल ने पीठ का ध्यान केरल राज्य बनाम एनएम थॉमस मामले में न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर की टिप्पणियों की ओर आकर्षित किया। जिसमें कहा गया था कि, 341 और 342 को पढ़ने से यह सर्वोत्कृष्ट अवधारणा सामने आती है कि हिंदू धर्म में कोई जाति नहीं हैं, बल्कि जातियों, नस्लों, समूहों, जनजातियों, समुदायों या उनके कुछ हिस्सों का एक मिश्रण हैं जो जांच में सबसे निचले स्तर के पाए गए और उन्हें बड़े पैमाने पर राज्य सहायता की आवश्यकता थी। और राष्ट्रपति द्वारा इस रूप में अधिसूचित किया गया।
सीजेआई ने उनकी इस दलील का विश्लेषण किया कि, ‘मिक्स बैग’ शब्द का उपयोग करके, न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर ने एकरूपता की अवधारणा को रेखांकित किया। सिब्बल ने इस बात पर जोर दिया कि ऐसे सभी समुदायों के बीच आम बात सामाजिक भेदभाव है, लेकिन विभिन्न परिदृश्यों में भेदभाव का स्तर अलग-अलग है।
उन्होंने कहा कि यह भेदभाव का स्तर है जो पूरी सूची में चलता है लेकिन उनके व्यवसाय अलग-अलग हो सकते हैं, उनकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि अलग-अलग हो सकती है, भेदभाव की सीमा भिन्न हो सकती है। एससी के रूप में किसी समुदाय का पदनाम तब तक नहीं बदला जा सकता जब तक कि संसद निर्णय न ले।
7 जजों की संविधान पीठ कर रही मामले की सुनवाई
सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली इस संविधान पीठ में जस्टिस बीआर गवई, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस बेला एम त्रिवेदी, जस्टिस सतीश चंद्र मिश्रा, जस्टिस पंकज मिथल और जस्टिस मनोज मिश्रा शामिल हैं।
7 जजों की यह संविधान पीठ 23 याचिकाओं पर सुनवाई कर रही है। जिसमें से पंजाब सरकार द्वारा दायर एक प्रमुख याचिका भी शामिल है जिसमें उसने पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के 2010 के फैसले को चुनौती दी है।
यह मामला सुप्रीम कोर्ट इसलिए पहुंचा है क्योंकि देश के कई हिस्सों से इन वर्गों के भीतर से ही आवाज उठती रही है कि इन्हें मिलने वाले आरक्षण के भीतर भी सब कैटेगरी होनी चाहिए। इनका तर्क है कि उनके वर्ग को मिलने वाले आरक्षण का लाभ उनके अंदर की कुछ जातियां ही ज्यादा उठाती हैं और कई जातियों का प्रतिनिधित्व सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में बेहद कम है।
सभी पक्षों को सुनने के बाद सुप्रीम कोर्ट जो फैसला देगा वह एक ऐतिहासिक फैसला होगा। माना जा रहा है कि इस फैसले से पंजाब में बाल्मीकि और मजहबी सिख, आंध्र प्रदेश के मडिगा, बिहार में पासवान, उत्तर प्रदेश में जाटव आदि प्रभावित होंगी।
सौजन्य :सत्या
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