दलित-आदिवासियों के सामाजिक न्याय पर एक और प्रहार है मोदी सरकार का अंतरिम बजट
रांची। एक फरवरी को केन्द्रीय मंत्री डॉ निर्मला सीतारमन ने 51,08,780 करोड़ रुपये का अंतरिम बजट पेश किया है। इसमें अनुसूचित जाति के कल्याण के लिए कुल 1,65,598 करोड़ रुपये और अनुसूचित जनजातियों के लिए 1,21,023 करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं।
मोदी सरकार के अंतरिम बजट को लेकर राष्ट्रीय दलित मानवाधिकार अधिकार अभियान ने झारखंड की राजधानी रांची में प्रेस कॉन्फ्रेंस का आयोजन किया। प्रेस कॉन्फ्रेंस में झारखंड यूनाइटेड मिली फोरम और भोजन के अधिकार अभियान सहित अन्य संगठनों ने भी अपनी भागीदारी निभाई।
प्रेस कॉन्फ्रेंस को संबोधित करते हुए सामाजिक कार्यकर्त्ता जेम्स हेरेंज ने कहा कि “अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के कल्याण के लिए 1,65,598 करोड़ रुपये और 1,21,023 करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं। जबकि नीतिगत दस्तावेजों और संविधानिक प्रावधान में कहा गया है कि इन दोनों वर्गों के- सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक- सर्वांगीण विकास के लिए उनकी जनसंख्या के अनुपात में बजटीय प्रावधान किया जाना है। इस बजट राशि का विचलन नहीं किया जाएगा और वित्तीय वर्ष के अंत में इसे लैप्स नहीं किया जाएगा।”
जेम्स ने कहा कि 2011 की जनगणना आंकडों के अनुसार भारत में दलितों की जनसंख्या 16.80% और अनुसूचित जनजातियों की जनसंख्या 8.60% है। इसके अनुसार देश के बजटीय प्रावधान में भी दोनों समुदायों की जनसंख्या के अनुसार 25% की हिस्सेदारी होनी चाहिए।”
उन्होंने बताया कि “बजट विश्लेषण से परिलक्षित होता है कि पूर्व की भांति आगामी वित्तीय वर्ष में भी सरकार अपने नीतिगत निर्णयों को पूरा करने में अक्षम साबित हुई है। जहां ऊपरी तौर पर 2024 के बजट प्रावधान में अनुसूचित जाति के लिए 11.50 फीसदी और अनुसूचित जनजातियों के लिए 8.40 प्रतिशत ही बजट आवंटित किया गया है। लेकिन इस बजट की सूक्ष्मता में जाते हैं तो, बजट का एक बड़ा हिस्सा ऐसी योजनाओं के लिए है, जिनसे आदिवासियों व दलितों का कोई संबंध नहीं है।”
जेम्स हेरेंज ने आगे कहा कि “अनुसूचित जातियों को महज 44,282 करोड़ एवं अनुसूचित जनजातियों के लिए 36,212 करोड़ की योजनाओं से ही सीधा लाभ मिल सकेगा। अनुसूचित जातियों के लिए यह कुल बजट का मात्र 3.10% एवं अनुसूचित जनजातियों के लिए 2.5% ही होगा। बजट वह भी तब मिलेगा, जब योजनाएं व्यवहारिक धरातल पर पूर्ण रूप से क्रियान्वित की जाएंगी।”
एनसीडीएचआर के राज्य समन्यक मिथिलेश कुमार ने कहा कि “सर्वविदित है कि केन्द्रीय बजट में दलितों और आदिवासियों के विकास के लिए केन्द्रीय मंत्रालयों/विभागों में सामान्य क्षेत्रों की अपेक्षा कम से कम उनकी जनसंख्या के अनुपात में बजटीय प्रावधान किए जाने की नीतियां निर्धारित की गई हैं। आदिवासी उपयोजना की शुरुआत 1974-75 में की गई है और दलित उपयोजना की शुरुआत 1979 से की गई है।
उन्होंने कहा कि 2011 की जनगणना आंकड़ों के अनुसार देश में 16.60 प्रतिशत दलित एवं 8.60 प्रतिशत आदिवासी अर्थात दोनों मिलाकर 25% आबादी के अनुपात में बजटीय हिस्सेदारी भी कुल केन्द्रीय बजट का 25% होनी चाहिए। लेकिन कोई भी सरकार ऐसा नहीं करती रही है। जिसका दुष्प्रभाव इन वंचित समुदायों के आर्थिक एवं सामाजिक उत्थान पर पड़ता है। उपरोक्त बजट में भी 25% आबादी के अनुपात में बजटीय हिस्सेदारी की उपेक्षा की गई है जो दलित आदिवासियों के सामाजिक न्याय पर एक बड़ा प्रहार है।”
प्रेस वार्ता को संबोधित करते हुए सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व राज्य सलाहकार सदस्य बलराम ने कहा कि “पर्याप्त बजट आवंटन नहीं किए जाने से सतत विकास का प्रथम लक्ष्य, गरीबी को पूर्णतः खत्म करना, भूख की समाप्ति, खाद्य सुरक्षा और बेहतर पोषण और टिकाऊ कृषि को बढ़ावा देने के लक्ष्य को हासिल करने में सरकार कतई सफल नहीं होगी।”
बलराम ने बताया कि “जिस प्रकार आज आदिवासी गांव के स्कूलों में एकल शिक्षक की व्यवस्था कायम है; पोस्ट मैट्रिक स्कॉलरशिप में कटौती की गयी है; आदिम जनजातीय समुदाय के लिए बजट सिर्फ 20 करोड़ है; कुपोषण, शिक्षा-स्वास्थ व गरीबी की स्थिति बनी हुई है, वहां बजट में कटौती करना सरकार के लिए शर्म की बात है।”
जनजातीय सलाहकार समिति के पूर्व सदस्य रतन तिर्की ने कहा कि “सरकार के समावेशिता के वादों के बावजूद, बजट निर्णय लेने वाले निकायों में दलितों और आदिवासियों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के उपायों की रूपरेखा नहीं बताता है। यह निरीक्षण इन समुदायों को उन नीतियों में सक्रिय रूप से योगदान करने के अवसर से वंचित करता है, जो उनके जीवन को प्रभावित करती है और प्रणालीगत बहिष्करण को कायम रखती है।”
तिर्की ने व्यंग्यात्मक लहजे में कहा कि “यह बजट कटौती ऐसे समय में की गई है, जब देश में रामराज्य आ गया है। इससे यह वर्ग भली भांति समझ चुका है कि ऐसे दलित-आदिवासी विरोधी सरकारों के सत्तासीन रहते इन समुदायों का सर्वांगीण विकास एक दिवास्वपन मात्र है।”
उन्होंने कहा कि “मांग रखी गई कि दोनों महत्वपूर्ण योजनाओं के सतही क्रियान्वयन के लिए सशक्त कानून बने। इसका ड्राफ्ट भी झारखंड सरकार की फाइलों में लंबित है। जिसे टीआरआई ने कई राज्य स्तरीय बैठकों के जरिए तैयार किया है।”
प्रेस कॉन्फ्रेंस में यूनाइटेड मिली फोरम के अफजल अनिश, एडवोकेट निषाद खान एवं राष्ट्रीय भुईंयां जागृति परिषद के मनोज भुइयां मौजूद थे।
राष्ट्रीय दलित मानवाधिकार अधिकार अभियान द्वारा आयोजित प्रेस कॉन्फ्रेंस में झारखण्ड यूनाइटेड मिली फोरम, राष्ट्रीय भुइयां जागृति परिषद और भोजन के अधिकार अभियान, झारखण्ड सहित अन्य संगठनों के प्रतिनिधि भी शामिल थे।
सौजन्य: Jan chowk
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